"श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 1-13" के अवतरणों में अंतर

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उद्धवजी कहते हैं—इसके बाद श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेव को सुख पहुँचाने की इच्छा से बलदेवजी के साथ मथुरा पधारे और उन्होंने शत्रु समुदाय के स्वामी कंस को ऊँचे सिंहासन से नीचे पटककर तथा उसके प्राण लेकर उसकी लाश को बड़े जोर से पृथ्वी पर घसीटा। सान्दीपनि मुनि के द्वारा एक बार उच्चारण किये हुए सांगोपांग वेद का अध्ययन करके दक्षिणा स्वरुप उनके मरे हुए पुत्र को पंचजन नामक राक्षस के पेट से (यमपुरी से) लाकर दे दिया। भीष्मकनन्दिनी रुक्मिणी के सौन्दर्य से अथवा रुक्मी के बुलाने से जो शिशुपाल और उसके सहायक वहाँ आये हुए थे, उनके सिर पर पैर रखकर गान्धर्व विधि के द्वारा विवाह करने के लिये अपनी नित्यसंगिनी रुक्मिणी को वे वैसे ही हरण कर लाये, जैसे गरुड़ अमृत कलश को ले आये थे। स्वयंवर में सात बिना नथे हुए बैलों को नाथकर नाग्नजिती (सत्या)-से विवाह किया। इस प्रकार मानभंग हो जाने पर मूर्ख राजाओं ने शस्त्र उठाकर राजकुमारी को छिनना चाहा। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं बिना घायल हुए अपने शस्त्रों से उन्हें मार डाला। भगवान् विषयी पुरुषों की-सी लीला करते हुए अपनी प्राणप्रिया सत्यभामा को प्रसन्न करने की इच्छा से उनके लिये स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लाये। उस समय इन्द्र ने क्रोध से अंधे होकर अपने सैनिकों सहित उन पर आक्रमण कर दिया; क्योंकि वह निश्चय ही अपनी स्त्रियों का क्रीडा मृग बना हुआ है।<br />
 
उद्धवजी कहते हैं—इसके बाद श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेव को सुख पहुँचाने की इच्छा से बलदेवजी के साथ मथुरा पधारे और उन्होंने शत्रु समुदाय के स्वामी कंस को ऊँचे सिंहासन से नीचे पटककर तथा उसके प्राण लेकर उसकी लाश को बड़े जोर से पृथ्वी पर घसीटा। सान्दीपनि मुनि के द्वारा एक बार उच्चारण किये हुए सांगोपांग वेद का अध्ययन करके दक्षिणा स्वरुप उनके मरे हुए पुत्र को पंचजन नामक राक्षस के पेट से (यमपुरी से) लाकर दे दिया। भीष्मकनन्दिनी रुक्मिणी के सौन्दर्य से अथवा रुक्मी के बुलाने से जो शिशुपाल और उसके सहायक वहाँ आये हुए थे, उनके सिर पर पैर रखकर गान्धर्व विधि के द्वारा विवाह करने के लिये अपनी नित्यसंगिनी रुक्मिणी को वे वैसे ही हरण कर लाये, जैसे गरुड़ अमृत कलश को ले आये थे। स्वयंवर में सात बिना नथे हुए बैलों को नाथकर नाग्नजिती (सत्या)-से विवाह किया। इस प्रकार मानभंग हो जाने पर मूर्ख राजाओं ने शस्त्र उठाकर राजकुमारी को छिनना चाहा। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं बिना घायल हुए अपने शस्त्रों से उन्हें मार डाला। भगवान् विषयी पुरुषों की-सी लीला करते हुए अपनी प्राणप्रिया सत्यभामा को प्रसन्न करने की इच्छा से उनके लिये स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लाये। उस समय इन्द्र ने क्रोध से अंधे होकर अपने सैनिकों सहित उन पर आक्रमण कर दिया; क्योंकि वह निश्चय ही अपनी स्त्रियों का क्रीडा मृग बना हुआ है।<br />
अपने विशाल डील डौल से आकाश को भी ढक देने वाले अपने पुत्र भौमासुर को भगवान् के हाथ से मरा हुआ देखकर पृथ्वी ने जब उनसे प्रार्थना की, तब उन्होंने भौमासुर के पुत्र भगदत्त को उसका बचा हुआ राज्य देकर उसके अन्तःपुर में प्रवेश किया। वहाँ भौमासुर द्वारा हरकर लायी हुई बहुत-सी राजकन्याएँ थीं। वे दीनबन्धु श्रीकृष्णचन्द्र को देखते ही खड़ी हो गयीं और सबसे महान् हर्ष, लज्जा एवं प्रेमपूर्ण चितवन से तत्काल ही भगवान् को पतिरूप में वरण कर लिया। तब भगवान् ने अपनी निजशक्ति योगमाया से उन ललनाओं के अनुरूप उतने ही रूप धारणकर उन सबका अलग-अलग महलों में एक ही मुहूर्त में विधिवत् पाणिग्रहण किया। अपनी लीला का विस्तार करने के लिये उन्होंने उनमें से प्रत्येक के गर्भ से सभी गुणों में अपने ही समान दस-दस पुत्र उत्पन्न किये। जब कालयवन, जरासन्ध और शाल्वादि ने अपनी सेनाओं से मथुरा और द्वारकापुरी को घेरा था, तब भगवान् ने निजजनों को अपनी अलौकिक शक्ति देकर उन्हें स्वयं मरवाया था। शम्बर, द्विविद्, बाणासुर, मुर, बल्वल तथा दन्तवक्त्र आदि अन्य योद्धाओं में से भी किसी को उन्होंने स्वयं मारा था किसी को दूसरों से मरवाया। इसके बाद उन्होंने आपके भाई धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्रों का पक्ष लेकर आये हुए राजाओं का भी संहार किया, जिनके सेना सहित कुरुक्षेत्र में पहुँचने पर पृथ्वी डगमगाने लगी थीं। कर्ण, दुःशासन और शकुनि की खोटी सलाह से जिसकी आयु और श्री दोनों नष्ट हो चुकी थी तथा भीमसेन की गदा से जिसकी जाँघ टूट चुकी थीं, उस दुर्योधन को अपने साथियों के सहित पृथ्वी पर पड़ा देखकर भी उन्हें प्रसन्नता न हुई।
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अपने विशाल डील डौल से आकाश को भी ढक देने वाले अपने पुत्र भौमासुर को भगवान् के हाथ से मरा हुआ देखकर पृथ्वी ने जब उनसे प्रार्थना की, तब उन्होंने भौमासुर के पुत्र भगदत्त को उसका बचा हुआ राज्य देकर उसके अन्तःपुर में प्रवेश किया। वहाँ भौमासुर द्वारा हरकर लायी हुई बहुत-सी राजकन्याएँ थीं। वे दीनबन्धु श्रीकृष्णचन्द्र को देखते ही खड़ी हो गयीं और सबसे महान् हर्ष, लज्जा एवं प्रेमपूर्ण चितवन से तत्काल ही भगवान् को पतिरूप में वरण कर लिया। तब भगवान् ने अपनी निजशक्ति योगमाया से उन ललनाओं के अनुरूप उतने ही रूप धारणकर उन सबका अलग-अलग महलों में एक ही मुहूर्त में विधिवत् पाणिग्रहण किया। अपनी लीला का विस्तार करने के लिये उन्होंने उनमें से प्रत्येक के गर्भ से सभी गुणों में अपने ही समान दस-दस पुत्र उत्पन्न किये। जब कालयवन, जरासन्ध और शाल्वादि ने अपनी सेनाओं से मथुरा और द्वारकापुरी को घेरा था, तब भगवान् ने निजजनों को अपनी अलौकिक शक्ति देकर उन्हें स्वयं मरवाया था। शम्बर, द्विविद्, बाणासुर, मुर, बल्वल तथा दन्तवक्त्र आदि अन्य योद्धाओं में से भी किसी को उन्होंने स्वयं मारा था किसी को दूसरों से मरवाया। इसके बाद उन्होंने आपके भाई धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्रों का पक्ष लेकर आये हुए राजाओं का भी संहार किया, जिनके सेना सहित कुरुक्षेत्र में पहुँचने पर पृथ्वी डगमगाने लगी थीं। कर्ण, दुःशासन और शकुनि की खोटी सलाह से जिसकी आयु और श्री दोनों नष्ट हो चुकी थी तथा भीमसेन की गदा से जिसकी जाँघ टूट चुकी थीं, उस दुर्योधन को अपने साथियों के सहित पृथ्वी पर पड़ा देखकर भी उन्हें प्रसन्नता न हुई।
  
 
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==संबंधित लेख==
 
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१०:५७, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

तृतीय स्कन्ध: तृतीय अध्यायः (3)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद

भगवान् के अन्य लीला चरित्रों का वर्णन

उद्धवजी कहते हैं—इसके बाद श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेव को सुख पहुँचाने की इच्छा से बलदेवजी के साथ मथुरा पधारे और उन्होंने शत्रु समुदाय के स्वामी कंस को ऊँचे सिंहासन से नीचे पटककर तथा उसके प्राण लेकर उसकी लाश को बड़े जोर से पृथ्वी पर घसीटा। सान्दीपनि मुनि के द्वारा एक बार उच्चारण किये हुए सांगोपांग वेद का अध्ययन करके दक्षिणा स्वरुप उनके मरे हुए पुत्र को पंचजन नामक राक्षस के पेट से (यमपुरी से) लाकर दे दिया। भीष्मकनन्दिनी रुक्मिणी के सौन्दर्य से अथवा रुक्मी के बुलाने से जो शिशुपाल और उसके सहायक वहाँ आये हुए थे, उनके सिर पर पैर रखकर गान्धर्व विधि के द्वारा विवाह करने के लिये अपनी नित्यसंगिनी रुक्मिणी को वे वैसे ही हरण कर लाये, जैसे गरुड़ अमृत कलश को ले आये थे। स्वयंवर में सात बिना नथे हुए बैलों को नाथकर नाग्नजिती (सत्या)-से विवाह किया। इस प्रकार मानभंग हो जाने पर मूर्ख राजाओं ने शस्त्र उठाकर राजकुमारी को छिनना चाहा। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं बिना घायल हुए अपने शस्त्रों से उन्हें मार डाला। भगवान् विषयी पुरुषों की-सी लीला करते हुए अपनी प्राणप्रिया सत्यभामा को प्रसन्न करने की इच्छा से उनके लिये स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लाये। उस समय इन्द्र ने क्रोध से अंधे होकर अपने सैनिकों सहित उन पर आक्रमण कर दिया; क्योंकि वह निश्चय ही अपनी स्त्रियों का क्रीडा मृग बना हुआ है।
अपने विशाल डील डौल से आकाश को भी ढक देने वाले अपने पुत्र भौमासुर को भगवान् के हाथ से मरा हुआ देखकर पृथ्वी ने जब उनसे प्रार्थना की, तब उन्होंने भौमासुर के पुत्र भगदत्त को उसका बचा हुआ राज्य देकर उसके अन्तःपुर में प्रवेश किया। वहाँ भौमासुर द्वारा हरकर लायी हुई बहुत-सी राजकन्याएँ थीं। वे दीनबन्धु श्रीकृष्णचन्द्र को देखते ही खड़ी हो गयीं और सबसे महान् हर्ष, लज्जा एवं प्रेमपूर्ण चितवन से तत्काल ही भगवान् को पतिरूप में वरण कर लिया। तब भगवान् ने अपनी निजशक्ति योगमाया से उन ललनाओं के अनुरूप उतने ही रूप धारणकर उन सबका अलग-अलग महलों में एक ही मुहूर्त में विधिवत् पाणिग्रहण किया। अपनी लीला का विस्तार करने के लिये उन्होंने उनमें से प्रत्येक के गर्भ से सभी गुणों में अपने ही समान दस-दस पुत्र उत्पन्न किये। जब कालयवन, जरासन्ध और शाल्वादि ने अपनी सेनाओं से मथुरा और द्वारकापुरी को घेरा था, तब भगवान् ने निजजनों को अपनी अलौकिक शक्ति देकर उन्हें स्वयं मरवाया था। शम्बर, द्विविद्, बाणासुर, मुर, बल्वल तथा दन्तवक्त्र आदि अन्य योद्धाओं में से भी किसी को उन्होंने स्वयं मारा था किसी को दूसरों से मरवाया। इसके बाद उन्होंने आपके भाई धृतराष्ट्र और पाण्डु के पुत्रों का पक्ष लेकर आये हुए राजाओं का भी संहार किया, जिनके सेना सहित कुरुक्षेत्र में पहुँचने पर पृथ्वी डगमगाने लगी थीं। कर्ण, दुःशासन और शकुनि की खोटी सलाह से जिसकी आयु और श्री दोनों नष्ट हो चुकी थी तथा भीमसेन की गदा से जिसकी जाँघ टूट चुकी थीं, उस दुर्योधन को अपने साथियों के सहित पृथ्वी पर पड़ा देखकर भी उन्हें प्रसन्नता न हुई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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