"श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 16-28" के अवतरणों में अंतर

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तृतीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः (4)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद

प्रभो! आप निःस्पृह होकर भी कर्म करते हैं, अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं, काल रूप होकर भी शत्रु के डर से भागते हैं और द्वारका के किले में जाकर छिप रहते हैं तथा स्वात्माराम होकर भी सोलह हजार स्त्रियों एक साथ रमण करते हैं—इन विचित्र चरित्रों को देखकर विद्वानों की बुद्धि भी चक्कर में पड़ जाती है। देव! आपका स्वरुप ज्ञान सर्वथा अबाध और अखण्ड है। फिर भी आप सलाह लेने के लिये मुझे बुलाकर जो भोले मनुष्यों की तरह बड़ी सावधानी से मेरी सम्मति पूछा करते थे, प्रभो! आपकी वह लीला मेरे मन को मोहित-सा कर देती है। स्वामिन्! अपने स्वरुप का गूढ़ रहस्य प्रकट करने वाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान आपने ब्रम्हाजी को बतलाया था, वह यदि मेरे समझने योग्य हो तो मुझे भी सुनाइये, जिससे मैं भी संसार-दुःख को सुगमता से पार कर जाऊँ’। जब मैंने इस प्रकार अपने ह्रदय का भाव निवेदित किया, तब परमपुरुष कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे अपने स्वरुप की परम स्थिति का उपदेश दिया। इस प्रकार पूज्यपाद गुरु श्रीकृष्ण से आत्म तत्व की उपलब्धि का साधन सुनकर तथा उन प्रभु के चरणों की वन्दना और परिक्रमा करके मैं यहाँ आया हूँ। इस समय उनके विरह से मेरा चित्त अत्यन्त व्याकुल हो रहा है। विदुरजी! पहले तो उनके दर्शन पाकर मुझे आनन्द हुआ था, किन्तु अब तो मेरे ह्रदय को उनकी विरह व्यथा अत्यन्त पीड़ित कर रही है। अब मैं उनके प्रिय क्षेत्र बदरिकाश्रम को जा रहा हूँ, जहाँ भगवान् श्रीनारायणदेव और नर—ये दोनों ऋषि लोगों पर अनुग्रह करने के लिये दीर्घकालीन सौम्य, दूसरों को सुख पहुँचाने वाली एवं कठिन तपस्या कर रहे हैं।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार उद्धवजी के मुख से अपने प्रिय बन्धुओं के विनाश का असह्य समाचार सुनकर परम ज्ञानी विदुरजी को जो शोक उत्पन्न हुआ, उसे उन्होंने ज्ञान द्वारा शान्त कर दिया। जब भगवान् श्रीकृष्ण के परिकरों में प्रधान महाभागवत उद्धवजी बदरिकाश्रम की ओर जाने लगे, तब कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ने श्रद्धापूर्वक उनसे पूछा।

विदुरजी ने कहा—उद्धवजी! योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने स्वरुप के गूढ़ रहस्य को प्रकट करने वाला जो परमज्ञान आपसे कहा था, वह आप हमें भी सुनाइये; क्योंकि भगवान् के सेवक तो अपने सेवकों का कार्य सिद्ध करने के लिये ही विचरा करते हैं। उद्धवजी ने कहा—उस तत्व ज्ञान के लिये आपको मुनिवर मैत्रेयजी की सेवा करनी चाहिये। इस मर्त्यलोक को छोड़ते समय मेरे सामने स्वयं भगवान् ने ही आपको उपदेश करने के लिये उन्हें आज्ञा दी थी।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—इस प्रकार विदुरजी के साथ विश्वमूर्ति भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों की चर्चा होने से उस कथामृत के द्वारा उद्धवजी का वियोगजनित महान् ताप शान्त हो गया। यमुनाजी के तीर पर उनकी वह रात्रि एक क्षण के समान बीत गयी। फिर प्रातःकाल होते ही वे वहाँ से चल दिये।

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! वृष्णिकुल और भोजवंश के सभी रथी और यूथपतियों के भी यूथपति नष्ट हो गये थे। यहाँ तक कि त्रिलोकीनाथ श्रीहरि को भी अपना वह रूप छोड़ना पड़ा था। फिर उन सबके मुखिया उद्धवजी ही कैसे बच रहे ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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