"श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 29-44" के अवतरणों में अंतर

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तृतीय स्कन्ध: पञ्चम अध्यायः (5)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पञ्चम अध्यायः श्लोक 29-44 का हिन्दी अनुवाद

महतत्व के विकृत होने पर अहंकार की उत्पत्ति हुई—जो कार्य (अधिभूत), कारण (अध्यात्म) और कर्ता (अधिदैव) रूप होने के कारण भूत, इन्द्रिय और मन का कारण है। वह अहंकार वैकारिक (सात्विक), तैजस (राजस) और तामस-भेद से तीन प्रकार का है; अतः अहंतत्व के विकार होने पर वैकारिक अहंकार से मन और जिनसे विषयों का ज्ञान होता है वे इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवता हुए। तैजस अहंकार से सूक्ष्म भूतों का कारण शब्द-तन्मात्र हुआ और उससे दृष्टान्त रूप से आत्मा का बोध कराने वाला आकाश उत्पन्न हुआ। भगवान् की दृष्टि जब आकाश पर पड़ी, तब उससे फिर काल, माया और चिदाभास के योग से स्पर्श तन्मात्र हुआ और उसके विकृत होने पर उससे वायु की उत्पत्ति हुई। अत्यन्त बलवान् वायु ने आकाश के सहित विकृत होकर रूप तन्मात्र की रचना की और उससे संसार का प्रकाशक तेज उत्पन्न हुआ। फिर परमात्मा की दृष्टि पड़ने पर वायु युक्त तेज ने काल, माया और चिदंश के योग से विकृत होकर रसतन्मात्र के कार्य जल को उत्पन्न किया। तदनन्तर तेज से युक्त जल ने ब्रम्हा का दृष्टिपात होने पर काल, माया और चिदंश के योग से गन्धगुणमयी पृथ्वी को उत्पन्न किया। विदुरजी! इन आकाशादि भूतों में से जो-जो भूत पीछे-पीछे उत्पन्न हुए हैं, उनमें क्रमशः अपने पूर्व-पूर्व भूतों के गुण भी अनुगत समझने चाहिये। ये महतात्वादि के अभिमानी विकार, विक्षेप और चेतनांश विशिष्ट देवगण श्रीभगवान् के ही अंश हैं किन्तु पृथक्-पृथक् रहने के कारण जब वे विश्व रचना रूप अपने कार्य में सफल नहीं हुए, तब हाथ जोड़कर भगवान् से कहने लगे।

देवताओं ने कहा—देव! हम आपके चरण-कमलों की वन्दना करते हैं। ये अपनी शरण में आये हुए जीवों का ताप दूर करने के लिये छत्र के समान हैं तथा इनका आश्रय लेने से यतिजन अनन्त संसार दुःख को सुगमता से ही दूर फेंक देते हैं। जगत्कर्ता जगदीश्वर! इस संसार में तापत्रय से व्याकुल रहने के कारण जीवों को जरा भी शान्ति नहीं मिलती। इसलिये भगवन्! हम आपके चरणों की ज्ञानमयी छाया का आश्रय लेते हैं। मुनिजन एकान्त स्थान में रहकर आपके मुखकमल का आश्रय लेने वाले वेद मन्त्र रूप पक्षियों के द्वारा जिनका अनुसन्धान करते रहते हैं तथा जो सम्पूर्ण पापनाशिनी नदियों में श्रेष्ठ श्रीगंगाजी के उद्गम स्थान हैं, आपके उन परम पावन पाद पद्मों का हम आश्रय लेते हैं। हम आपके चरणकमलों की उस चौकी का आश्रय ग्रहण करते हैं, जिसे भक्तजन श्रद्धा और श्रवण-कीर्तनादि रूप भक्ति से परमार्जित अन्तःकरण में धारण करके करके वैराग्य पुष्ट ज्ञान के द्वारा परम धीर हो जाते हैं। ईश! आप संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के लिये ही अवतार लेते हैं; अतः हम सब आपके उन चरणकमलों की शरण लेते हैं, जो अपना स्मरण करने वाले भक्तजनों को अभय कर देते हैं। जिन पुरुषों का देह, गेह तथा उनसे सम्बन्ध रखने वाले अन्य तुच्छ पदार्थों में अहंता, ममता का दृढ़ दुराग्रह है, उनके शरीर में (आपके अन्तर्यामी रूप से) रहने पर भी जो अत्यन्त दूर हैं; उन्हीं आपके चरणारविन्दों को हम भजते हैं। परम यशस्वी परमेश्वर! इन्द्रियों के विषयाभिमुख रहने के कारण जिनका मन सर्वदा बाहर ही भटका करता है, वे पामर लोग आपके विलास पूर्ण पाद विन्यास की शोभा के विशेषज्ञ भक्तजनों के दर्शन नहीं कर पाते; इसी से वे आपके चरणों से दूर रहते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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