"श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 18-34" के अवतरणों में अंतर

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तृतीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः (6)

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद

फिर विराट् शरीर में चर्म उत्पन्न हुआ; उसमें अपने अंश रोमों के सहित ओषधियाँ स्थित हुईं, जिन रोमों से जीव खुजली आदि का अनुभव करता है। अब उसके लिंग उत्पन्न हुआ। अपने इस आश्रय में प्रजापति ने अपने अंश वीर्य के सहित प्रवेश किया, जिससे जीव आनन्द का अनुभव करता है। फिर विराट् के गुदा प्रकट हुई; उसमें लोकपाल मित्र ने अपने अंश पायु-इन्द्रिय के सहित प्रवेश किया, इससे जीव मल त्याग करता है। इसके पश्चात् उसके हाथ प्रकट हुए; उनमें अपनी ग्रहण-त्याग रूपा शक्ति के सहित देवराज इन्द्र ने प्रवेश किया, इस शक्ति से जीव अपनी जीविका प्राप्त करता है। जब इसके चरण उत्पन्न हुए, तब उनमें अपनी शक्ति गति के सहित लोकेश्वर विष्णु ने प्रवेश किया—इस गति शक्ति द्वारा जीव अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचता है। फिर इसके बुद्धि उत्पन्न हुई; अपने इस स्थान में अपने अंश बुद्धि शक्ति के साथ वाक्पति ब्रम्हा ने प्रवेश किया, इस बुद्धि शक्ति से जीव ज्ञातव्य विषयों को जान सकता । फिर इसमें ह्रदय प्रकट हुआ; उसमें अपने अंश मन के सहित चन्द्रमा स्थित हुआ। इस मनःशक्ति के द्वारा जीव संकल्प-विकल्पादि रूप विकारों को प्राप्त होता है। तत्पश्चात् विराट् पूरुष में अहंकार उत्पन्न हुआ; इस अपने आश्रय में क्रिया शती सहित अभिमान (रूद्र)-ने प्रवेश किया। इससे जीव अपने कर्तव्य को स्वीकार करता है। अब इसमें चित्त प्रकट हुआ। उसमें चित्त शक्ति के सहित महतत्व (ब्रम्हा) स्थित हुआ; इस चित्त शक्ति से जीव विज्ञान (चेतना)-को उपलब्ध करता है। इस विराट् पुरुष के सिर से स्वर्ग लोक, पैरों से पृथ्वी और नाभि से अन्तरिक्ष (आकाश) उत्पन्न हुआ। इनमें क्रमशः सत्व, रज और तम—इन तीन गुणों के परिणाम रूप देवता, मनुष्य और प्रेतादि देखे जाते हैं।
इनमें देवता लोग सत्वगुण की अधिकता के कारण स्वर्ग लोक में, मनुष्य और उनके उपयोगी गौ आदि जीव रजोगुण की प्रधानता के कारण पृथ्वी में तथा तमोगुणी स्वभाव वाले होने से रूद्र के पार्षदगण (भूत, प्रेम आदि) दोनों के बीच में स्थित भगवान् के नाभि स्थानीय अन्तरिक्ष लोक में रहते हैं। विदुरजी! वेद और ब्राम्हण भगवान् के मुख से प्रकट हुए। मुख से प्रकट होने के कारण ही ब्राम्हण सब वर्णों में श्रेष्ठ और सबका गुरु है। उनकी भुजाओं से क्षत्रियवृत्ति और उसका अवलम्बन करने वाला क्षत्रिय वर्ण उत्पन्न हुआ, जो विराट् भगवान् का अंश होने के कारण जन्म लेकर सब वर्णों की चोर आदि के उपद्रवों से रक्षा करता है। भगवान् की दोनों जाँघों से सब लोगों का निर्वाह करने वाली वैश्यवृत्ति उत्पन्न हुई और उन्हीं से वैश्य वर्ण का भी प्रादुर्भाव हुआ। यह वर्ण अपनी वृत्ति से सब जीवों की जीविका चलाता है। फिर सब धर्मों की सिद्धि के लिये भगवान् के चरणों से सेवावृत्ति प्रकट हुई और उन्हीं से पहले-पहल उस वृत्ति का अधिकारी शूद्र वर्ण भी प्रकट हुआ, जिसकी वृत्ति से ही श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं[१]। ये चारों वर्ण अपनी-अपनी वृत्तियों के सहित जिनसे उत्पन्न हुए हैं, उन अपने गुरु श्रीहरि का अपने-अपने धर्मों से चित्त शुद्धि के लिये श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सब धर्मों की सिद्धि का मूल सेवा है, सेवा किये बिना कोई भी धर्म सिद्ध नहीं होता। अतः सब धर्मों की मूलभूता सेवा ही जिसका धर्म है, वह शूद्र सब वर्णों में महान् है। ब्राम्हण का धर्म मोक्ष के लिये है, क्षत्रिय का धर्म भोगने के लिये है, वैश्य का धर्म अर्थ के लिये है और शूद्र का धर्म धर्म के लिये है। इस प्रकार प्रथम तीन वर्णों के धर्म अन्य पुरुषार्थों के लिये हैं, किन्तु शूद्र का धर्म स्वपुरुषार्थ के लिये है, अतः इसकी वृत्ति से ही भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं।

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