श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 11-22

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दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय (पूर्वाध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय: श्लोक 11-22 का हिन्दी अनुवाद

मनुष्याकार सच्चिदानन्दमय विग्रह प्रकट करके द्वारकापुरी में यदुवंशियों के साथ उन्होंने उन्होंने कितने वर्षों तक निवास किया ? और उन सर्वशक्तिमान प्रभु की पत्नियाँ कितनी थीं? मुने! मैंने श्रीकृष्ण की जितनी लीलाएँ पूछी हैं और जो नहीं पूछीं हैं, वे सब आप मुझे विस्तार से सुनाइये; क्योंकि आप सब कुछ जानते हैं और मैं बड़ी श्रद्धा के साथ उन्हें सुनना चाहता हूँ। भगवन! अन्न की तो बात ही क्या, मैंने जल का भी परित्याग कर दिया है । फिर भी वह असह्य भूख-प्यास (जिसके कारण मैंने मुनि के गले में मृत सर्प डालने का अन्याय किया था) मुझे तनिक भी नहीं सता रही है; क्योंकि मैं आपके मुखकमल से झरती हुई भगवान की सुधामयी लीला-कथा का पान कर रहा हूँ।

सूत जी कहते हैं—शौनक जी! भगवान के प्रेमियों में अग्रगण्य एवं सर्वज्ञ श्री शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित का ऐसा समीचीन प्रश्न सुनकर (जो संतों की सभा में भगवान की लीला के वर्णन हेतु हुआ करता है) उनका अभिनन्दन किया और भगवान श्रीकृष्ण की उन लीलाओं का वर्णन प्रारम्भ किया, जो समस्त कलिमलों को सदा के लिए धो डालती है। श्री शुकदेव जी कहते हैं—भगवान की लीला-रस के रसिक राजर्षे! तुमने जो कुछ निश्चय किया है, वह बहुत ही सुन्दर और आदरणीय है; क्योंकि सबके हृदयाराध्य श्रीकृष्ण की लीला-कथा श्रवण करने में तुम्हें सहज एवं सुदृढ़ प्रीति प्राप्त हो गयी है। भगवान श्रीकृष्ण की कथा के सम्बन्ध में प्रश्न करने से ही वक्ता, प्रश्नकर्ता और श्रोता तीनों ही पवित्र हो जाते हैं—जैसे गंगाजी का जल या भगवान शालग्राम का चरणामृत सभी को पवित्र कर देता है। परीक्षित! उस समय लाखों दैत्यों के दल ने घमंडी राजाओं का रूप धारण कर अपने भारी भार से पृथ्वी को आक्रान्त कर रखा था। उससे त्राण पाने के लिए वह ब्रह्माजी की शरण में गयी।

पृथ्वी ने उस समय गौ का रूप धारण कर रखा था। उसके नेत्रों से आँसू बह-बहकर मुँह पर आ रहे थे। उसका मन तो खिन्न था ही, शरीर भी बहुत कृश हो गया था। वह बड़े करुण स्वर से रँभा रही थी। ब्रह्माजी के पास जाकर उसने उन्हें अपनी पूरी कष्ट-कहानी सुनायी। ब्रह्माजी ने बड़ी सहानुभूति के साथ उसकी दुःख-गाथा सुनी। उसके बाद वे भगवान शंकर, स्वर्ग के अन्य प्रमुख देवता तथा गौ के रूप में आयी हुई पृथ्वी को अपने साथ लेकर क्षीर सागर के तट पर गये। भगवान देवताओं के भी आराध्यदेव हैं। वे अपने भक्तों की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं और उनके समस्त क्लेशों को नष्ट कर देते हैं। वे ही जगत के एक मात्र स्वामी हैं। क्षीर सागर के तट पर पहुँच कर ब्रह्मा आदि देवताओं ने ‘पुरुषसूक्त’ के द्वारा परम पुरुष सर्वान्तर्यामी प्रभु की स्तुति की। स्तुति करते-करते ब्रह्माजी समाधिस्थ हो गए। उन्होंने समाधि-अवस्था में आकाशवाणी सुनी। इसके बाद जगत के निर्माण कर्ता ब्रह्माजी ने देवताओं से कहा—‘देवताओं! मैंने भगवान की वाणी सुनी है। तुम लोग भी उसे मेरे द्वारा अभी सुन लो और फिर वैसा ही करो। उसके पालन में विलम्ब नहीं होना चाहिए। भगवान को पृथ्वी के कष्ट का पहले से ही पता है। वे ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। अतः अपनी कालशक्ति के द्वारा पृथ्वी का भार हरण करते हुए वे जब तक पृथ्वी पर लीला करें, तब तक तुम लोग भी अपने-अपने अंशों के साथ यदुकुल में जन्म लेकर उनकी लीला में सहयोग दो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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