"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 23-39" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  प्रथम अध्याय: श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  प्रथम अध्याय: श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद </div>
वसुदेवजी के घर स्वयं पुरुषोत्तम भगवान प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा (श्रीराधा) की सेवा के लिए देवांगनाएँ जन्म ग्रहण करें। स्वयंप्रकाश भगवान शेष भी, जो भगवान की कला होने कारण अनंत हैं (अनंत का अंश भी अनंत ही होता है) और जिनके सहस्त्र मुख हैं, भगवान के प्रिय कार्य करने के लिए उनसे पहले ही उनके बड़े भाई के रूप में अवतार ग्रहण करेंगे। भगवान की वह ऐश्वर्यशालिनी योगमाया भी, जिसने सारे जगत को मोहित कर रखा है, उनकी आज्ञा से उनकी लीला के कार्य सम्पन्न करने के लिए अंशरूप से अवतार ग्रहण करेंगी। श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित! प्रजापतियों के स्वामी भगवान ब्रह्माजी ने देवताओं को इस प्रकार आज्ञा दी और पृथ्वी को समझा-बुझाकर ढाढ़स बंधाया। इसके बाद वे अपने परम धाम को चले गए। प्राचीन काल में यदुवंशी राजा थे सूरसेन। वे मथुरापुरी में रहकर माथुरमण्डल और शूरसेनमण्डल का राज्यशासन करते थे। उसी समय से मथुरा ही समस्त यदुवंशी नरपतियों की राजधानी हो गयी थी। भगवान श्रीहरि सर्वदा यहाँ विराजमान रहते हैं। एक बार मथुरा में शूर के पुत्र वसुदेवजी विवाह करके अपनी नव-विवाहिता पत्नी देवकी के साथ घर जाने के लिए रथ पर सवार हुए। उग्रसेन का लड़का था कंस। उसने अपनी चचेरी बहिन देवकी को प्रसन्न करने के लिए उसके रथ के घोड़ों की रास पकड़ ली। वह स्वयं ही रथ हाँकने लगा, यद्यपि उसके साथ सैकड़ों सोने के बने हुए रथ चल रहे थे। देवकी के पिता थे देवक। अपनी पुत्री पर उनका बड़ा प्रेम था। कन्या को विदा करते समय उन्होंने उसे सोने के हारों से अलंकृत चार सौ हाथी, पंद्रह हज़ार घोड़ें, अठारह सौ रथ तथा सुन्दर-सुन्दर दासियाँ दहेज़ में दीं। विदाई के समय वर-वधु के मंगल के लिए एक ही साथ शंख, तुरही, मृदंग और दुन्दुभियाँ बजने लगीं। मार्ग में जिस समय घोड़ों की रास पकड़कर कंस रथ हाँक रहा था, उस समय आकाशवाणी ने उसे सम्बोधन करके कहा— ‘अरे मूर्ख! जिसको तू रथ में बैठाकर लिए जा रहा है, उसकी आठवें गर्भ की संतान तुझे मार डालेगी। कंस बड़ा पापी था। उसकी दुष्टता की सीमा नही थी। वह भोजवंश का कलंक ही था। आकाशवाणी सुनते ही उसने तलवार खींच ली और अपनी बहिन की चोटी पकड़कर उसे मारने के लिए तैयार हो गया। वह अत्यन्त क्रूर तो था ही, पाप-कर्म करते-करते निर्लज्ज भी हो गया था। उसका यह काम देखकर महात्मा वासुदेवजी उसको शांत करते हुए बोले—  <br />
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वसुदेवजी के घर स्वयं पुरुषोत्तम भगवान प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा (श्रीराधा) की सेवा के लिए देवांगनाएँ जन्म ग्रहण करें। स्वयंप्रकाश भगवान शेष भी, जो भगवान की कला होने कारण अनंत हैं (अनंत का अंश भी अनंत ही होता है) और जिनके सहस्त्र मुख हैं, भगवान के प्रिय कार्य करने के लिए उनसे पहले ही उनके बड़े भाई के रूप में अवतार ग्रहण करेंगे। भगवान की वह ऐश्वर्यशालिनी योगमाया भी, जिसने सारे जगत को मोहित कर रखा है, उनकी आज्ञा से उनकी लीला के कार्य सम्पन्न करने के लिए अंशरूप से अवतार ग्रहण करेंगी।  
वसुदेवजी ने कहा—राजकुमार! आप भोजवंश के होनहार वंशधर तथा अपने कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले हैं। बड़े-बड़े शूरवीर आपके गुणों की सराहना करते हैं। इधर यह तो एक स्त्री, दूसरे आपकी बहिन और तीसरे यह विवाह का शुभ अवसर! ऐसी स्थिति में आप इसे कैसे मार सकते हैं ? वीरवर! जो जन्म लेते हैं, उनके शरीर के साथ ही मृत्यु भी उत्पन्न होती है।आज हो या सौ वर्ष के बाद—जो प्राणी है, उसकी मृत्यु होगी ही। जब शरीर का अंत हो जाता है, तब जीव अपने कर्म के अनुसार दूसरे शरीर को ग्रहण करके अपने पहले शरीर को छोड़ देता है। उसे विवश होकर ऐसा करना पड़ता है।
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श्री शुकदेव जी कहते हैं—परीक्षित! प्रजापतियों के स्वामी भगवान ब्रह्मा जी ने देवताओं को इस प्रकार आज्ञा दी और पृथ्वी को समझा-बुझाकर ढाढ़स बंधाया। इसके बाद वे अपने परम धाम को चले गए। प्राचीन काल में यदुवंशी राजा थे सूरसेन। वे मथुरापुरी में रहकर माथुरमण्डल और शूरसेनमण्डल का राज्यशासन करते थे। उसी समय से मथुरा ही समस्त यदुवंशी नरपतियों की राजधानी हो गयी थी। भगवान श्रीहरि सर्वदा यहाँ विराजमान रहते हैं। एक बार मथुरा में शूर के पुत्र वसुदेवजी विवाह करके अपनी नव-विवाहिता पत्नी देवकी के साथ घर जाने के लिए रथ पर सवार हुए। उग्रसेन का लड़का था कंस। उसने अपनी चचेरी बहिन देवकी को प्रसन्न करने के लिए उसके रथ के घोड़ों की रास पकड़ ली। वह स्वयं ही रथ हाँकने लगा, यद्यपि उसके साथ सैकड़ों सोने के बने हुए रथ चल रहे थे।  
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देवकी के पिता थे देवक। अपनी पुत्री पर उनका बड़ा प्रेम था। कन्या को विदा करते समय उन्होंने उसे सोने के हारों से अलंकृत चार सौ हाथी, पंद्रह हज़ार घोड़े, अठारह सौ रथ तथा सुन्दर-सुन्दर दासियाँ दहेज में दीं। विदाई के समय वर-वधू के मंगल के लिए एक ही साथ शंख, तुरही, मृदंग और दुन्दुभियाँ बजने लगीं। मार्ग में जिस समय घोड़ों की रास पकड़कर कंस रथ हाँक रहा था, उस समय आकाशवाणी ने उसे सम्बोधन करके कहा— ‘अरे मूर्ख! जिसको तू रथ में बैठाकर लिए जा रहा है, उसकी आठवें गर्भ की संतान तुझे मार डालेगी।' कंस बड़ा पापी था। उसकी दुष्टता की सीमा नही थी। वह भोजवंश का कलंक ही था। आकाशवाणी सुनते ही उसने तलवार खींच ली और अपनी बहिन की चोटी पकड़कर उसे मारने के लिए तैयार हो गया। वह अत्यन्त क्रूर तो था ही, पाप-कर्म करते-करते निर्लज्ज भी हो गया था। उसका यह काम देखकर महात्मा वसुदेवजी उसको शांत करते हुए बोले—  <br />
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वसुदेवजी ने कहा—'राजकुमार! आप भोजवंश के होनहार वंशधर तथा अपने कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले हैं। बड़े-बड़े शूरवीर आपके गुणों की सराहना करते हैं। इधर यह तो एक स्त्री, दूसरे आपकी बहिन और तीसरे यह विवाह का शुभ अवसर! ऐसी स्थिति में आप इसे कैसे मार सकते हैं ? वीरवर! जो जन्म लेते हैं, उनके शरीर के साथ ही मृत्यु भी उत्पन्न होती है। आज हो या सौ वर्ष के बाद—जो प्राणी है, उसकी मृत्यु होगी ही। जब शरीर का अंत हो जाता है, तब जीव अपने कर्म के अनुसार दूसरे शरीर को ग्रहण करके अपने पहले शरीर को छोड़ देता है। उसे विवश होकर ऐसा करना पड़ता है।'
  
 
{{लेख क्रम |पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 11-22 |अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 40-49}}
 
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०७:०९, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय: श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद

वसुदेवजी के घर स्वयं पुरुषोत्तम भगवान प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा (श्रीराधा) की सेवा के लिए देवांगनाएँ जन्म ग्रहण करें। स्वयंप्रकाश भगवान शेष भी, जो भगवान की कला होने कारण अनंत हैं (अनंत का अंश भी अनंत ही होता है) और जिनके सहस्त्र मुख हैं, भगवान के प्रिय कार्य करने के लिए उनसे पहले ही उनके बड़े भाई के रूप में अवतार ग्रहण करेंगे। भगवान की वह ऐश्वर्यशालिनी योगमाया भी, जिसने सारे जगत को मोहित कर रखा है, उनकी आज्ञा से उनकी लीला के कार्य सम्पन्न करने के लिए अंशरूप से अवतार ग्रहण करेंगी।

श्री शुकदेव जी कहते हैं—परीक्षित! प्रजापतियों के स्वामी भगवान ब्रह्मा जी ने देवताओं को इस प्रकार आज्ञा दी और पृथ्वी को समझा-बुझाकर ढाढ़स बंधाया। इसके बाद वे अपने परम धाम को चले गए। प्राचीन काल में यदुवंशी राजा थे सूरसेन। वे मथुरापुरी में रहकर माथुरमण्डल और शूरसेनमण्डल का राज्यशासन करते थे। उसी समय से मथुरा ही समस्त यदुवंशी नरपतियों की राजधानी हो गयी थी। भगवान श्रीहरि सर्वदा यहाँ विराजमान रहते हैं। एक बार मथुरा में शूर के पुत्र वसुदेवजी विवाह करके अपनी नव-विवाहिता पत्नी देवकी के साथ घर जाने के लिए रथ पर सवार हुए। उग्रसेन का लड़का था कंस। उसने अपनी चचेरी बहिन देवकी को प्रसन्न करने के लिए उसके रथ के घोड़ों की रास पकड़ ली। वह स्वयं ही रथ हाँकने लगा, यद्यपि उसके साथ सैकड़ों सोने के बने हुए रथ चल रहे थे।

देवकी के पिता थे देवक। अपनी पुत्री पर उनका बड़ा प्रेम था। कन्या को विदा करते समय उन्होंने उसे सोने के हारों से अलंकृत चार सौ हाथी, पंद्रह हज़ार घोड़े, अठारह सौ रथ तथा सुन्दर-सुन्दर दासियाँ दहेज में दीं। विदाई के समय वर-वधू के मंगल के लिए एक ही साथ शंख, तुरही, मृदंग और दुन्दुभियाँ बजने लगीं। मार्ग में जिस समय घोड़ों की रास पकड़कर कंस रथ हाँक रहा था, उस समय आकाशवाणी ने उसे सम्बोधन करके कहा— ‘अरे मूर्ख! जिसको तू रथ में बैठाकर लिए जा रहा है, उसकी आठवें गर्भ की संतान तुझे मार डालेगी।' कंस बड़ा पापी था। उसकी दुष्टता की सीमा नही थी। वह भोजवंश का कलंक ही था। आकाशवाणी सुनते ही उसने तलवार खींच ली और अपनी बहिन की चोटी पकड़कर उसे मारने के लिए तैयार हो गया। वह अत्यन्त क्रूर तो था ही, पाप-कर्म करते-करते निर्लज्ज भी हो गया था। उसका यह काम देखकर महात्मा वसुदेवजी उसको शांत करते हुए बोले—

वसुदेवजी ने कहा—'राजकुमार! आप भोजवंश के होनहार वंशधर तथा अपने कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले हैं। बड़े-बड़े शूरवीर आपके गुणों की सराहना करते हैं। इधर यह तो एक स्त्री, दूसरे आपकी बहिन और तीसरे यह विवाह का शुभ अवसर! ऐसी स्थिति में आप इसे कैसे मार सकते हैं ? वीरवर! जो जन्म लेते हैं, उनके शरीर के साथ ही मृत्यु भी उत्पन्न होती है। आज हो या सौ वर्ष के बाद—जो प्राणी है, उसकी मृत्यु होगी ही। जब शरीर का अंत हो जाता है, तब जीव अपने कर्म के अनुसार दूसरे शरीर को ग्रहण करके अपने पहले शरीर को छोड़ देता है। उसे विवश होकर ऐसा करना पड़ता है।'


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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