श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 43 श्लोक 15-26

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:३९, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

दशम स्कन्ध: त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः (43) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवाद

परीक्षित! मरे हुए हाथी को छोड़कर भगवान् श्रीकृष्ण ने हाथ में उसके दाँत लिये-लिये ही रंगभूमि में प्रवेश किया। उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य थी। उनके कंधे पर हाथी का दाँत रखा हुआ था, शरीर रक्त और मद की बूँदों से सुशोभित था और मुखकमल पर पसीने की बूँदें झलक रहीं थीं । परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम दोनों के ही हाथ में कुवलयापीड के बड़े-बड़े दाँत शस्त्र के रूप में सुशोभित हो रहे थे और कुछ ग्वालबाल उनके साथ-साथ चल रहे थे। इस प्रकार उन्होंने रंगभूमि में प्रवेश किया । जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ रंगभूमि के पधारे, उस समय वे पहलवानों को व्रजकठोर शरीर, साधारण मनुष्यों को नर-रत्न, स्त्रियों को मूर्तिमान् कामदेव, गोपों को स्वजन, दुष्ट राजाओं को दण्ड देने वाले शासक, माता-पिता के समान बड़े-बूढ़ों को शिशु, कंस को मृत्यु, अज्ञानियों को विराट्, योगियों को परम तत्त्व और भक्तशिरोमणि वृष्णिवंशियों को अपने इष्टदेव जान पड़े (सबने अपने-अपने भावानुरूप क्रमशः रौद्र, अद्भुत, श्रृंगार, हास्य, वीर, वात्सल्य, भयानक, बीभत्स, शान्त और प्रेमभक्ति रस का अनुभव किया) । राजन्! वैसे तो कंस बड़ा धीर-वीर था; फिर भी जब उसने देखा इन दोनों ने कुवलयापीड को मार डाला, तब उसकी समझ में यह बात आयी कि इनको जीतना तो बहुत कठिन है। उस समय वह बहुत घबड़ा गया । श्रीकृष्ण और बलराम की बाँहें बड़ी लम्बी-लम्बी थीं। पुष्पों के हार, वस्त्र और आभूषण आदि से उनका वेष विचित्र हो रहा था; ऐसा जान पड़ता था, मानो उत्तम वेष धारण करके दो नट अभिनय करने के लिये ये हों। जिनके नेत्र एक बार उन पर पड़ जाते, बस, लग ही जाते। यही नहीं, वे अपनी कान्ति से उनका मन भी चुरा लेते। इस प्रकार दोनों रंगभूमि में शोभायमान हुए । परीक्षित! मंचों पर जितने लोग बैठे थे—वे मथुरा के नागरिक और राष्ट्र के जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी को देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे। उत्कण्ठा से भर गये। वे नेत्रों के द्वारा उनकी मुखमाधुरी का पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे । मानो वे उन्हें नेत्रों से पी रहे हों, जिभ्हा से चाट रहे हों, नासिका से सूँघ रहे हों और भुजाओं से पकड़कर ह्रदय से सटा रहे हों । उनके सौन्दर्य, गुण, माधुर्य और निर्भयता ने मानो दर्शकों को उनकी लीलाओं का स्मरण करा दिया और वे लोग आपस में उनके सम्बन्ध देखी-सुनी बातें कहने-सुनने लगे । ‘ये दोनों साक्षात् भगवान् नारायण अंश हैं। इस पृथ्वी पर वसुदेवजी के घर में अवतीर्ण हुए हैं ।

[अँगुली से दिखाकर] ये साँवले-सलोने ने कुमार देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। जन्मते ही वसुदेवजी ने इन्हें गोकुल पहुँचा दिया था। इतने दिनों तक ये वहाँ छिपकर रहे और नन्दजी के घर में ही पलकर इतने बड़े हुए । इन्होने ही पूतना, तृणावर्त, शंखचूड़, केशी और धनुक आदि का तथा और भी दुष्ट दैत्यों का वध तथा यमलार्जुन का उद्धार किया है । इन्होने ही गौ और ग्वालों को दावानल की ज्वाला से बचाया था। कालियनाग का दमन और इन्द्र का मान-मर्दन भी इन्होने ही किया था ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-