"श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 1-14" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण:  द्वादश स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण:  द्वादश स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद </div>
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! (तीसरे स्कन्ध में) परमाणु से लेकर द्विपरार्ध पर्यन्त काल का स्वरुप और एक-एक युग कितने-कितने वर्षों का होता है, यह मैं तुम्हें बतला चुका हूँ। अब तुम कल्प की स्थिति और उसके प्रलय का वर्णन भी सुनो । राजन्! एक हजार चतुर्युगी का ब्रम्हा का एक दिन होता है। एक कल्प में चौदह मनु होते हैं । कल्प के अन्त में उतने ही समय तक प्रलय भी रहता है। प्रलय को ही ब्रम्हा की रात भी कहते हैं। उस समय ये तीनों लोक लीन हो जाते हैं, उंनका प्रलय हो जाता है । इसका नाम नैमित्तिक प्रलय है। इस प्रलय के अवसर पर सारे विश्व को अपने अन्दर समेटकर—लीन कर ब्रम्हा और तत्पश्चात् शेषशायी भगवान् नारायण भी शयन कर जाते हैं । इस प्रकार रात के बाद दिन और दिन के बाद रात होते-होते जब ब्रम्हाजी की अपने मान से सौ वर्ष की और मनुष्यों की दृष्टि में दो परार्द्ध की आयु समाप्त हो जाती है, तब महतत्व, अहंकार और पंचतन्मात्रा—ये सातों प्रकृतियाँ अपने कारण मूल प्रकृति में लीन हो जाती हैं ।
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श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! (तीसरे स्कन्ध में) परमाणु से लेकर द्विपरार्ध पर्यन्त काल का स्वरुप और एक-एक युग कितने-कितने वर्षों का होता है, यह मैं तुम्हें बतला चुका हूँ। अब तुम कल्प की स्थिति और उसके प्रलय का वर्णन भी सुनो । राजन्! एक हजार चतुर्युगी का ब्रम्हा का एक दिन होता है। एक कल्प में चौदह मनु होते हैं । कल्प के अन्त में उतने ही समय तक प्रलय भी रहता है। प्रलय को ही ब्रम्हा की रात भी कहते हैं। उस समय ये तीनों लोक लीन हो जाते हैं, उंनका प्रलय हो जाता है । इसका नाम नैमित्तिक प्रलय है। इस प्रलय के अवसर पर सारे विश्व को अपने अन्दर समेटकर—लीन कर ब्रम्हा और तत्पश्चात् शेषशायी भगवान  नारायण भी शयन कर जाते हैं । इस प्रकार रात के बाद दिन और दिन के बाद रात होते-होते जब ब्रम्हाजी की अपने मान से सौ वर्ष की और मनुष्यों की दृष्टि में दो परार्द्ध की आयु समाप्त हो जाती है, तब महतत्व, अहंकार और पंचतन्मात्रा—ये सातों प्रकृतियाँ अपने कारण मूल प्रकृति में लीन हो जाती हैं ।
राजन्! इसी का नाम प्राकृतिक प्रलय है। इस प्रलय में प्रलय का कारण उपस्थित होने पर पंचभूतों के मिश्रण से बना हुआ ब्राम्हण अपना स्थूलरूप छोड़कर कारणरूप में स्थित हो जाता है, घुल-मिल जाता है । परीक्षित्! प्रलय का समय आने पर सौ वर्षा तक मेघ पृथ्वी पर वर्षा नहीं करते। किसी को अन्न नहीं मिलता। उस समय प्रजा भूख-प्यास से व्याकुल होकर एक-दूसरे को खाने लगती है । इस प्रकार काल के उपद्रव से पीड़ित होकर धीरे-धीरे सारी प्रजा क्षीण हो जाती है। प्रलयकालीन सांवर्तक सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणों से समुद्र, प्राणियों के शरीर और पृथ्वी का सारा रस खींच-खींचकर सोख जाते हैं और फिर उन्हें सदा की भाँति पृथ्वी पर बरसाते नहीं। उस समय संकर्षण भगवान् के मुख से प्रलयकालीन संवर्तक अग्नि प्रकट होती है । वायु के वेग से वह और भी बढ़ जाती है और तल-अतल आदि सातों नीचे के लोकों को भस्म कर देती हैं। वहाँ के प्राणी तो पहले ही मर चुके होते हैं नीचे से आग की लपटें और ऊपर से सूर्य की प्रचण्ड गरमी! उस समय ऊपर-नीचे, चारों ओर यह ब्राम्हण जलने लगता है और ऐसा जान पड़ता है, मानो गोबर का उपला जलकर अंगारे के रूप में दहक रहा हो। इसके बाद प्रलयकालीन अत्यन्त प्रचण्ड सांवर्तन वायु सैकड़ों वर्षों तक चलती रहती है। उस समय का आकाश धुएँ और धूल से तो भरा ही रहता है, उसके बाद असंख्यों रंग-बिरंगें बादल आकाश में मँडराने लगते हैं और बड़ी भयंकरता के साथ गरज-गरजकर सैकड़ों वर्षों तक वर्षा करते रहते हैं। उस समय ब्रम्हाण के भीतर सारा संसार एक समुद्र हो जाता है, सब कुछ जलमग्न हो जाता है ।
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राजन्! इसी का नाम प्राकृतिक प्रलय है। इस प्रलय में प्रलय का कारण उपस्थित होने पर पंचभूतों के मिश्रण से बना हुआ ब्राम्हण अपना स्थूलरूप छोड़कर कारणरूप में स्थित हो जाता है, घुल-मिल जाता है । परीक्षित्! प्रलय का समय आने पर सौ वर्षा तक मेघ पृथ्वी पर वर्षा नहीं करते। किसी को अन्न नहीं मिलता। उस समय प्रजा भूख-प्यास से व्याकुल होकर एक-दूसरे को खाने लगती है । इस प्रकार काल के उपद्रव से पीड़ित होकर धीरे-धीरे सारी प्रजा क्षीण हो जाती है। प्रलयकालीन सांवर्तक सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणों से समुद्र, प्राणियों के शरीर और पृथ्वी का सारा रस खींच-खींचकर सोख जाते हैं और फिर उन्हें सदा की भाँति पृथ्वी पर बरसाते नहीं। उस समय संकर्षण भगवान  के मुख से प्रलयकालीन संवर्तक अग्नि प्रकट होती है । वायु के वेग से वह और भी बढ़ जाती है और तल-अतल आदि सातों नीचे के लोकों को भस्म कर देती हैं। वहाँ के प्राणी तो पहले ही मर चुके होते हैं नीचे से आग की लपटें और ऊपर से सूर्य की प्रचण्ड गरमी! उस समय ऊपर-नीचे, चारों ओर यह ब्राम्हण जलने लगता है और ऐसा जान पड़ता है, मानो गोबर का उपला जलकर अंगारे के रूप में दहक रहा हो। इसके बाद प्रलयकालीन अत्यन्त प्रचण्ड सांवर्तन वायु सैकड़ों वर्षों तक चलती रहती है। उस समय का आकाश धुएँ और धूल से तो भरा ही रहता है, उसके बाद असंख्यों रंग-बिरंगें बादल आकाश में मँडराने लगते हैं और बड़ी भयंकरता के साथ गरज-गरजकर सैकड़ों वर्षों तक वर्षा करते रहते हैं। उस समय ब्रम्हाण के भीतर सारा संसार एक समुद्र हो जाता है, सब कुछ जलमग्न हो जाता है ।
 
इस प्रकार जब जल-प्रलय हो जाता है, तब जल पृथ्वी के विशेष गुण गन्ध को ग्रस लेता है—अपने में लीन कर लेता है। गन्ध गुण के जल में लीन हो जाने पर पृथ्वी का प्रलय हो जाता है, वह जल में घुल-मिलकर जलरूप बन जाती है ।
 
इस प्रकार जब जल-प्रलय हो जाता है, तब जल पृथ्वी के विशेष गुण गन्ध को ग्रस लेता है—अपने में लीन कर लेता है। गन्ध गुण के जल में लीन हो जाने पर पृथ्वी का प्रलय हो जाता है, वह जल में घुल-मिलकर जलरूप बन जाती है ।
  

१२:४७, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वादश स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः (4)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: चतुर्थोऽध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! (तीसरे स्कन्ध में) परमाणु से लेकर द्विपरार्ध पर्यन्त काल का स्वरुप और एक-एक युग कितने-कितने वर्षों का होता है, यह मैं तुम्हें बतला चुका हूँ। अब तुम कल्प की स्थिति और उसके प्रलय का वर्णन भी सुनो । राजन्! एक हजार चतुर्युगी का ब्रम्हा का एक दिन होता है। एक कल्प में चौदह मनु होते हैं । कल्प के अन्त में उतने ही समय तक प्रलय भी रहता है। प्रलय को ही ब्रम्हा की रात भी कहते हैं। उस समय ये तीनों लोक लीन हो जाते हैं, उंनका प्रलय हो जाता है । इसका नाम नैमित्तिक प्रलय है। इस प्रलय के अवसर पर सारे विश्व को अपने अन्दर समेटकर—लीन कर ब्रम्हा और तत्पश्चात् शेषशायी भगवान नारायण भी शयन कर जाते हैं । इस प्रकार रात के बाद दिन और दिन के बाद रात होते-होते जब ब्रम्हाजी की अपने मान से सौ वर्ष की और मनुष्यों की दृष्टि में दो परार्द्ध की आयु समाप्त हो जाती है, तब महतत्व, अहंकार और पंचतन्मात्रा—ये सातों प्रकृतियाँ अपने कारण मूल प्रकृति में लीन हो जाती हैं । राजन्! इसी का नाम प्राकृतिक प्रलय है। इस प्रलय में प्रलय का कारण उपस्थित होने पर पंचभूतों के मिश्रण से बना हुआ ब्राम्हण अपना स्थूलरूप छोड़कर कारणरूप में स्थित हो जाता है, घुल-मिल जाता है । परीक्षित्! प्रलय का समय आने पर सौ वर्षा तक मेघ पृथ्वी पर वर्षा नहीं करते। किसी को अन्न नहीं मिलता। उस समय प्रजा भूख-प्यास से व्याकुल होकर एक-दूसरे को खाने लगती है । इस प्रकार काल के उपद्रव से पीड़ित होकर धीरे-धीरे सारी प्रजा क्षीण हो जाती है। प्रलयकालीन सांवर्तक सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणों से समुद्र, प्राणियों के शरीर और पृथ्वी का सारा रस खींच-खींचकर सोख जाते हैं और फिर उन्हें सदा की भाँति पृथ्वी पर बरसाते नहीं। उस समय संकर्षण भगवान के मुख से प्रलयकालीन संवर्तक अग्नि प्रकट होती है । वायु के वेग से वह और भी बढ़ जाती है और तल-अतल आदि सातों नीचे के लोकों को भस्म कर देती हैं। वहाँ के प्राणी तो पहले ही मर चुके होते हैं नीचे से आग की लपटें और ऊपर से सूर्य की प्रचण्ड गरमी! उस समय ऊपर-नीचे, चारों ओर यह ब्राम्हण जलने लगता है और ऐसा जान पड़ता है, मानो गोबर का उपला जलकर अंगारे के रूप में दहक रहा हो। इसके बाद प्रलयकालीन अत्यन्त प्रचण्ड सांवर्तन वायु सैकड़ों वर्षों तक चलती रहती है। उस समय का आकाश धुएँ और धूल से तो भरा ही रहता है, उसके बाद असंख्यों रंग-बिरंगें बादल आकाश में मँडराने लगते हैं और बड़ी भयंकरता के साथ गरज-गरजकर सैकड़ों वर्षों तक वर्षा करते रहते हैं। उस समय ब्रम्हाण के भीतर सारा संसार एक समुद्र हो जाता है, सब कुछ जलमग्न हो जाता है । इस प्रकार जब जल-प्रलय हो जाता है, तब जल पृथ्वी के विशेष गुण गन्ध को ग्रस लेता है—अपने में लीन कर लेता है। गन्ध गुण के जल में लीन हो जाने पर पृथ्वी का प्रलय हो जाता है, वह जल में घुल-मिलकर जलरूप बन जाती है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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