"श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 27-33" के अवतरणों में अंतर

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राजन्! तुमने बहुत-से निरपराध सर्पों को जला दिया है। इस अभिचार-यज्ञ का फल केवल प्राणियों की हिंसा ही है। इसलिये इसे बन्द कर देना चाहिये। क्योंकि जगत् के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्ध कर्म का ही भोग कर रहे हैं ।
 
राजन्! तुमने बहुत-से निरपराध सर्पों को जला दिया है। इस अभिचार-यज्ञ का फल केवल प्राणियों की हिंसा ही है। इसलिये इसे बन्द कर देना चाहिये। क्योंकि जगत् के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्ध कर्म का ही भोग कर रहे हैं ।
 
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियों! महर्षि बृहस्पतिजी की बात का सम्मान करके जनमेजय ने कहा कि ‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।’ उन्होंने सर्प-सत्र बंद कर दिया और देवगुरु बृहस्पतिजी की विधिपूर्वक पूजा की ।
 
सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियों! महर्षि बृहस्पतिजी की बात का सम्मान करके जनमेजय ने कहा कि ‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।’ उन्होंने सर्प-सत्र बंद कर दिया और देवगुरु बृहस्पतिजी की विधिपूर्वक पूजा की ।
ऋषिगण! (जिससे विद्वान् ब्राम्हण को भी क्रोध आया, राजा को शाप हुआ, मृत्यु हुई, फिर जनमेजय को क्रोध आया, सर्प मारे गये) यह वही भगवान् विष्णु की महामाया है। यह अनिर्वचनीय है, इसी से भगवान् के स्वरुपभूत जीव क्रोधादि गुण-वृत्तियों के द्वारा शरीरों में मोहित हो जाते हैं, एक-दूसरे को दुःख देते और भोगते हैं और अपने प्रयत्न से इसको निवृत्त नहीं कर सकते । (विष्णु भगवान् के स्वरुप का निश्चय करके उनका भजन करने से ही माया से निवृत्ति होती है; इसलिये उनके स्वरुप का निरूपण सुनो—) यह दम्भी है, कपटी है—इत्याकारक बुद्धि में बार-बार जो दम्भ-कपट स्फुरण होता है, वही माया है। जब आत्मवादी पुरुष आत्मचर्चा करने लगते हैं, तब वह परमात्मा के स्वरुप में निर्भयरूप से प्रकाशित नहीं होती; किन्तु भयभीत होकर अपना मोह आदि कार्य न करती हुई ही किसी प्रकार रहती है। इस रूप में उसका प्रतिपादन किया गया है। माया के आश्रित नाना प्रकार के विवाद, मतवाद भी परमात्मा के स्वरुप में नहीं हैं; क्योंकि वे विशेष विषयक हैं और परमात्मा निर्विशेष है। केवल वाद-विवाद की तो बात ही क्या, लोक-परलोक के विषयों के सम्बन्ध में संकल्प-विकल्प करने वाला मन भी शान्त हो जाता है । कर्म, उसके सम्पादन की सामग्री और उनके द्वारा साध्यकर्म—इन तीनों से अन्वित अहंकारात्मक जीव—यह सब जिसमें नहीं हैं, वह आत्म-स्वरुप परमात्मा न तो कभी किसी के द्वारा बाधित होता है और न तो किसी का विरोधी ही है। जो पुरुष उस परमपद के स्वरुप का विचार करता है, वह मन की मायामयी लहरों, अहंकार आदि का बाध करके स्वयं अपने आत्मस्वरुप में विहार करने लगता है । जो मुमुक्षु एवं विचारशील पुरुष परमपद के अतिरिक्त वस्तु का परित्याग करते हुए ‘नेति-नेति’ के द्वारा उसका निषेध करके ऐसी वस्तु प्राप्त करते हैं, जिसका कभी निषेध नहीं हो सकता और न तो कभी त्याग ही, वही विष्णु भगवान् का परम पद है; यह बात सभी महात्मा और श्रुतियाँ एक मत से स्वीकार करती हैं। अपने चित्त को एकाग्र करने वाल पुरुष अन्तःकरण की अशुद्धियों को, असत्य भावनाओं को सदा-सर्वदा के लिये मिटाकर अनन्य प्रेम भाव से परिपूर्ण ह्रदय के द्वारा उसी परम पद का आलिंगन करते हैं और उसी में समा जाते हैं । विष्णु भगवान् का यही वास्तविक स्वरुप है, यही उनका परम पद है। इसकी प्राप्ति उन्हीं लोगों को होती है, जिनके अन्तःकरण में शरीर के प्रति अहंभाव नहीं है, और न तो इसके सम्बन्धी गृह आदि पदार्थों में ममता ही। सचमुच जगत् की वस्तुओं में मैं पन और मेरे पन का आरोप बहुत बड़ी दुर्जनता है ।  
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ऋषिगण! (जिससे विद्वान् ब्राम्हण को भी क्रोध आया, राजा को शाप हुआ, मृत्यु हुई, फिर जनमेजय को क्रोध आया, सर्प मारे गये) यह वही भगवान  विष्णु की महामाया है। यह अनिर्वचनीय है, इसी से भगवान  के स्वरुपभूत जीव क्रोधादि गुण-वृत्तियों के द्वारा शरीरों में मोहित हो जाते हैं, एक-दूसरे को दुःख देते और भोगते हैं और अपने प्रयत्न से इसको निवृत्त नहीं कर सकते । (विष्णु भगवान  के स्वरुप का निश्चय करके उनका भजन करने से ही माया से निवृत्ति होती है; इसलिये उनके स्वरुप का निरूपण सुनो—) यह दम्भी है, कपटी है—इत्याकारक बुद्धि में बार-बार जो दम्भ-कपट स्फुरण होता है, वही माया है। जब आत्मवादी पुरुष आत्मचर्चा करने लगते हैं, तब वह परमात्मा के स्वरुप में निर्भयरूप से प्रकाशित नहीं होती; किन्तु भयभीत होकर अपना मोह आदि कार्य न करती हुई ही किसी प्रकार रहती है। इस रूप में उसका प्रतिपादन किया गया है। माया के आश्रित नाना प्रकार के विवाद, मतवाद भी परमात्मा के स्वरुप में नहीं हैं; क्योंकि वे विशेष विषयक हैं और परमात्मा निर्विशेष है। केवल वाद-विवाद की तो बात ही क्या, लोक-परलोक के विषयों के सम्बन्ध में संकल्प-विकल्प करने वाला मन भी शान्त हो जाता है । कर्म, उसके सम्पादन की सामग्री और उनके द्वारा साध्यकर्म—इन तीनों से अन्वित अहंकारात्मक जीव—यह सब जिसमें नहीं हैं, वह आत्म-स्वरुप परमात्मा न तो कभी किसी के द्वारा बाधित होता है और न तो किसी का विरोधी ही है। जो पुरुष उस परमपद के स्वरुप का विचार करता है, वह मन की मायामयी लहरों, अहंकार आदि का बाध करके स्वयं अपने आत्मस्वरुप में विहार करने लगता है । जो मुमुक्षु एवं विचारशील पुरुष परमपद के अतिरिक्त वस्तु का परित्याग करते हुए ‘नेति-नेति’ के द्वारा उसका निषेध करके ऐसी वस्तु प्राप्त करते हैं, जिसका कभी निषेध नहीं हो सकता और न तो कभी त्याग ही, वही विष्णु भगवान  का परम पद है; यह बात सभी महात्मा और श्रुतियाँ एक मत से स्वीकार करती हैं। अपने चित्त को एकाग्र करने वाल पुरुष अन्तःकरण की अशुद्धियों को, असत्य भावनाओं को सदा-सर्वदा के लिये मिटाकर अनन्य प्रेम भाव से परिपूर्ण ह्रदय के द्वारा उसी परम पद का आलिंगन करते हैं और उसी में समा जाते हैं । विष्णु भगवान  का यही वास्तविक स्वरुप है, यही उनका परम पद है। इसकी प्राप्ति उन्हीं लोगों को होती है, जिनके अन्तःकरण में शरीर के प्रति अहंभाव नहीं है, और न तो इसके सम्बन्धी गृह आदि पदार्थों में ममता ही। सचमुच जगत् की वस्तुओं में मैं पन और मेरे पन का आरोप बहुत बड़ी दुर्जनता है ।  
  
 
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१२:३५, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः (6)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः श्लोक 27-33 का हिन्दी अनुवाद

राजन्! तुमने बहुत-से निरपराध सर्पों को जला दिया है। इस अभिचार-यज्ञ का फल केवल प्राणियों की हिंसा ही है। इसलिये इसे बन्द कर देना चाहिये। क्योंकि जगत् के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्ध कर्म का ही भोग कर रहे हैं । सूतजी कहते हैं—शौनकादि ऋषियों! महर्षि बृहस्पतिजी की बात का सम्मान करके जनमेजय ने कहा कि ‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।’ उन्होंने सर्प-सत्र बंद कर दिया और देवगुरु बृहस्पतिजी की विधिपूर्वक पूजा की । ऋषिगण! (जिससे विद्वान् ब्राम्हण को भी क्रोध आया, राजा को शाप हुआ, मृत्यु हुई, फिर जनमेजय को क्रोध आया, सर्प मारे गये) यह वही भगवान विष्णु की महामाया है। यह अनिर्वचनीय है, इसी से भगवान के स्वरुपभूत जीव क्रोधादि गुण-वृत्तियों के द्वारा शरीरों में मोहित हो जाते हैं, एक-दूसरे को दुःख देते और भोगते हैं और अपने प्रयत्न से इसको निवृत्त नहीं कर सकते । (विष्णु भगवान के स्वरुप का निश्चय करके उनका भजन करने से ही माया से निवृत्ति होती है; इसलिये उनके स्वरुप का निरूपण सुनो—) यह दम्भी है, कपटी है—इत्याकारक बुद्धि में बार-बार जो दम्भ-कपट स्फुरण होता है, वही माया है। जब आत्मवादी पुरुष आत्मचर्चा करने लगते हैं, तब वह परमात्मा के स्वरुप में निर्भयरूप से प्रकाशित नहीं होती; किन्तु भयभीत होकर अपना मोह आदि कार्य न करती हुई ही किसी प्रकार रहती है। इस रूप में उसका प्रतिपादन किया गया है। माया के आश्रित नाना प्रकार के विवाद, मतवाद भी परमात्मा के स्वरुप में नहीं हैं; क्योंकि वे विशेष विषयक हैं और परमात्मा निर्विशेष है। केवल वाद-विवाद की तो बात ही क्या, लोक-परलोक के विषयों के सम्बन्ध में संकल्प-विकल्प करने वाला मन भी शान्त हो जाता है । कर्म, उसके सम्पादन की सामग्री और उनके द्वारा साध्यकर्म—इन तीनों से अन्वित अहंकारात्मक जीव—यह सब जिसमें नहीं हैं, वह आत्म-स्वरुप परमात्मा न तो कभी किसी के द्वारा बाधित होता है और न तो किसी का विरोधी ही है। जो पुरुष उस परमपद के स्वरुप का विचार करता है, वह मन की मायामयी लहरों, अहंकार आदि का बाध करके स्वयं अपने आत्मस्वरुप में विहार करने लगता है । जो मुमुक्षु एवं विचारशील पुरुष परमपद के अतिरिक्त वस्तु का परित्याग करते हुए ‘नेति-नेति’ के द्वारा उसका निषेध करके ऐसी वस्तु प्राप्त करते हैं, जिसका कभी निषेध नहीं हो सकता और न तो कभी त्याग ही, वही विष्णु भगवान का परम पद है; यह बात सभी महात्मा और श्रुतियाँ एक मत से स्वीकार करती हैं। अपने चित्त को एकाग्र करने वाल पुरुष अन्तःकरण की अशुद्धियों को, असत्य भावनाओं को सदा-सर्वदा के लिये मिटाकर अनन्य प्रेम भाव से परिपूर्ण ह्रदय के द्वारा उसी परम पद का आलिंगन करते हैं और उसी में समा जाते हैं । विष्णु भगवान का यही वास्तविक स्वरुप है, यही उनका परम पद है। इसकी प्राप्ति उन्हीं लोगों को होती है, जिनके अन्तःकरण में शरीर के प्रति अहंभाव नहीं है, और न तो इसके सम्बन्धी गृह आदि पदार्थों में ममता ही। सचमुच जगत् की वस्तुओं में मैं पन और मेरे पन का आरोप बहुत बड़ी दुर्जनता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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