"श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 34-45" के अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण:  द्वादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः श्लोक 34-45 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण:  द्वादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः श्लोक 34-45 का हिन्दी अनुवाद </div>
  
शौनकजी! जिसे इस परम पद की प्राप्ति अभीष्ट है, उसे चाहिये कि वह दूसरों की कटु वाणी सहन कर ले और बदले में किसी का अपमान न करे। इस क्षणभंगुर शरीर में अहंता-ममता करके किसी भी प्राणी से कभी वैर न करे । भगवान् श्रीकृष्ण का ज्ञान अनन्त है। उन्हीं के चरणकमलों के ध्यान से मैंने इस श्रीमद्भागवत महापुराण का अध्ययन किया है। मैं अब उन्हीं को नमस्कार करके यह पुराण समाप्त करता हूँ ।
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शौनकजी! जिसे इस परम पद की प्राप्ति अभीष्ट है, उसे चाहिये कि वह दूसरों की कटु वाणी सहन कर ले और बदले में किसी का अपमान न करे। इस क्षणभंगुर शरीर में अहंता-ममता करके किसी भी प्राणी से कभी वैर न करे । भगवान  श्रीकृष्ण का ज्ञान अनन्त है। उन्हीं के चरणकमलों के ध्यान से मैंने इस श्रीमद्भागवत महापुराण का अध्ययन किया है। मैं अब उन्हीं को नमस्कार करके यह पुराण समाप्त करता हूँ ।
 
शौनकजी ने पूछा—साधुशिरोमणि सूतजी! वेदव्यासजी के शिष्य पैल आदि महर्षि बड़े महात्मा और वेदों के आचार्य थे। उन लोगों ने कितने प्रकार से वेदों का विभाजन किया, यह बात आप कृपा करके हमें सुनाइये ।
 
शौनकजी ने पूछा—साधुशिरोमणि सूतजी! वेदव्यासजी के शिष्य पैल आदि महर्षि बड़े महात्मा और वेदों के आचार्य थे। उन लोगों ने कितने प्रकार से वेदों का विभाजन किया, यह बात आप कृपा करके हमें सुनाइये ।
 
सूतजी ने कहा—ब्रम्हन्! जिस समय परमेष्ठी ब्रम्हाजी पूर्व सृष्टि का ज्ञान सम्पादन करने के लिये एकाग्रचित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाश से कण्ठ-तालु आदि स्थानों के संघर्ष से रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियों को रोक लेता है, तब उसे भी उस अनाहत नाद का अनुभव होता है ।
 
सूतजी ने कहा—ब्रम्हन्! जिस समय परमेष्ठी ब्रम्हाजी पूर्व सृष्टि का ज्ञान सम्पादन करने के लिये एकाग्रचित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाश से कण्ठ-तालु आदि स्थानों के संघर्ष से रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियों को रोक लेता है, तब उसे भी उस अनाहत नाद का अनुभव होता है ।
 
शौनकजी! बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नाद की उपासना करते हैं और उसके प्रभाव से अन्तःकरण के द्रव्य (अधिभूत) रूप मल को नष्ट करके वह परमगति रूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म-मृत्यु रूप संसार चक्र नहीं है ।
 
शौनकजी! बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नाद की उपासना करते हैं और उसके प्रभाव से अन्तःकरण के द्रव्य (अधिभूत) रूप मल को नष्ट करके वह परमगति रूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म-मृत्यु रूप संसार चक्र नहीं है ।
उसी अनाहत नाद से ‘अ’ कार, ‘उ’ कार और और ‘म’ कार रूप तीन मात्राओं से युक्त ॐकार प्रकट हुआ। इस ॐकार की शक्ति से ही प्रकृति अव्यक्त से व्यक्त रूप में परिणत हो जाती है। ॐकार स्वयं भी अव्यक्त एवं अनादि है और परमात्मा-स्वरुप होने के कारण स्वयं प्रकाश भी है। जिस परम वस्तु भगवान् ब्रम्ह अथवा परमात्मा के नाम से कहा जाता है, उसके स्वरुप का बोध भी ॐकार के द्वारा ही होता है । जब श्रवणेन्द्रिय की शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस ॐकार को—समस्त अर्थों को प्रकाशित करने वाले स्फोट तत्व को जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओं में सबके अभाव को भी जानता है, वही परमात्मा का विशुद्ध स्वरुप है। वही ॐकार परमात्मा से हृदयाकाश में प्रकट होकर वेदरूपा वाणी को अभिव्यक्त करता है । ॐकार अपने आश्रय परमात्मा परब्रम्ह का साक्षात् वाचक है और ॐकार ही सम्पूर्ण मन्त्र, उपनिषद और वेदों का सनातन बीज है ।
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उसी अनाहत नाद से ‘अ’ कार, ‘उ’ कार और और ‘म’ कार रूप तीन मात्राओं से युक्त ॐकार प्रकट हुआ। इस ॐकार की शक्ति से ही प्रकृति अव्यक्त से व्यक्त रूप में परिणत हो जाती है। ॐकार स्वयं भी अव्यक्त एवं अनादि है और परमात्मा-स्वरुप होने के कारण स्वयं प्रकाश भी है। जिस परम वस्तु भगवान  ब्रम्ह अथवा परमात्मा के नाम से कहा जाता है, उसके स्वरुप का बोध भी ॐकार के द्वारा ही होता है । जब श्रवणेन्द्रिय की शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस ॐकार को—समस्त अर्थों को प्रकाशित करने वाले स्फोट तत्व को जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओं में सबके अभाव को भी जानता है, वही परमात्मा का विशुद्ध स्वरुप है। वही ॐकार परमात्मा से हृदयाकाश में प्रकट होकर वेदरूपा वाणी को अभिव्यक्त करता है । ॐकार अपने आश्रय परमात्मा परब्रम्ह का साक्षात् वाचक है और ॐकार ही सम्पूर्ण मन्त्र, उपनिषद और वेदों का सनातन बीज है ।
 
शौनकजी! ॐकार के तीन वर्ण हैं—‘अ’, ‘उ’, और ‘म’ । ये ही तीनों वर्ण सत्व, रज, तम—इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम—इन तीनों; भूः, भुवः, स्वः—इन तीन अर्थों और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—इन तीन वृत्तियों के रूप में तीन-तीन की संख्या वाले भावों को धारण करते हैं । इसके बाद सर्वशक्तिमान् ब्रम्हाजी ने ॐकार से ही अन्तःस्थ (य, र, ल, व), उष्म (श, ष, स, ह), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक), स्पर्श (‘क’ से ‘म’ तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणों से युक्त अक्षर-स्माम्नाय अर्थात् वर्णमाला की रचना की । उसी वर्णमाला द्वारा उन्होंने अपने चार मुखों से होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रम्हा—इन चार ऋत्विजों के कर्म बतलाने के लिये ॐकार और व्याह्रितिओं के सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र ब्रम्हर्षि मरीचि आदि को वेदाध्ययन में कुशल देखकर उन्हें वेदों की शिक्षा दी। वे सभी जब धर्म का उपदेश करने में निपुण हो गये, तब उन्होंने अपने पुत्रों को उनका अध्ययन कराया ।
 
शौनकजी! ॐकार के तीन वर्ण हैं—‘अ’, ‘उ’, और ‘म’ । ये ही तीनों वर्ण सत्व, रज, तम—इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम—इन तीनों; भूः, भुवः, स्वः—इन तीन अर्थों और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—इन तीन वृत्तियों के रूप में तीन-तीन की संख्या वाले भावों को धारण करते हैं । इसके बाद सर्वशक्तिमान् ब्रम्हाजी ने ॐकार से ही अन्तःस्थ (य, र, ल, व), उष्म (श, ष, स, ह), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक), स्पर्श (‘क’ से ‘म’ तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणों से युक्त अक्षर-स्माम्नाय अर्थात् वर्णमाला की रचना की । उसी वर्णमाला द्वारा उन्होंने अपने चार मुखों से होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रम्हा—इन चार ऋत्विजों के कर्म बतलाने के लिये ॐकार और व्याह्रितिओं के सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र ब्रम्हर्षि मरीचि आदि को वेदाध्ययन में कुशल देखकर उन्हें वेदों की शिक्षा दी। वे सभी जब धर्म का उपदेश करने में निपुण हो गये, तब उन्होंने अपने पुत्रों को उनका अध्ययन कराया ।
  

१२:४७, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

द्वादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः (6)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: षष्ठोऽध्यायः श्लोक 34-45 का हिन्दी अनुवाद

शौनकजी! जिसे इस परम पद की प्राप्ति अभीष्ट है, उसे चाहिये कि वह दूसरों की कटु वाणी सहन कर ले और बदले में किसी का अपमान न करे। इस क्षणभंगुर शरीर में अहंता-ममता करके किसी भी प्राणी से कभी वैर न करे । भगवान श्रीकृष्ण का ज्ञान अनन्त है। उन्हीं के चरणकमलों के ध्यान से मैंने इस श्रीमद्भागवत महापुराण का अध्ययन किया है। मैं अब उन्हीं को नमस्कार करके यह पुराण समाप्त करता हूँ । शौनकजी ने पूछा—साधुशिरोमणि सूतजी! वेदव्यासजी के शिष्य पैल आदि महर्षि बड़े महात्मा और वेदों के आचार्य थे। उन लोगों ने कितने प्रकार से वेदों का विभाजन किया, यह बात आप कृपा करके हमें सुनाइये । सूतजी ने कहा—ब्रम्हन्! जिस समय परमेष्ठी ब्रम्हाजी पूर्व सृष्टि का ज्ञान सम्पादन करने के लिये एकाग्रचित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाश से कण्ठ-तालु आदि स्थानों के संघर्ष से रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियों को रोक लेता है, तब उसे भी उस अनाहत नाद का अनुभव होता है । शौनकजी! बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नाद की उपासना करते हैं और उसके प्रभाव से अन्तःकरण के द्रव्य (अधिभूत) रूप मल को नष्ट करके वह परमगति रूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म-मृत्यु रूप संसार चक्र नहीं है । उसी अनाहत नाद से ‘अ’ कार, ‘उ’ कार और और ‘म’ कार रूप तीन मात्राओं से युक्त ॐकार प्रकट हुआ। इस ॐकार की शक्ति से ही प्रकृति अव्यक्त से व्यक्त रूप में परिणत हो जाती है। ॐकार स्वयं भी अव्यक्त एवं अनादि है और परमात्मा-स्वरुप होने के कारण स्वयं प्रकाश भी है। जिस परम वस्तु भगवान ब्रम्ह अथवा परमात्मा के नाम से कहा जाता है, उसके स्वरुप का बोध भी ॐकार के द्वारा ही होता है । जब श्रवणेन्द्रिय की शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस ॐकार को—समस्त अर्थों को प्रकाशित करने वाले स्फोट तत्व को जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओं में सबके अभाव को भी जानता है, वही परमात्मा का विशुद्ध स्वरुप है। वही ॐकार परमात्मा से हृदयाकाश में प्रकट होकर वेदरूपा वाणी को अभिव्यक्त करता है । ॐकार अपने आश्रय परमात्मा परब्रम्ह का साक्षात् वाचक है और ॐकार ही सम्पूर्ण मन्त्र, उपनिषद और वेदों का सनातन बीज है । शौनकजी! ॐकार के तीन वर्ण हैं—‘अ’, ‘उ’, और ‘म’ । ये ही तीनों वर्ण सत्व, रज, तम—इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम—इन तीनों; भूः, भुवः, स्वः—इन तीन अर्थों और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति—इन तीन वृत्तियों के रूप में तीन-तीन की संख्या वाले भावों को धारण करते हैं । इसके बाद सर्वशक्तिमान् ब्रम्हाजी ने ॐकार से ही अन्तःस्थ (य, र, ल, व), उष्म (श, ष, स, ह), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक), स्पर्श (‘क’ से ‘म’ तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणों से युक्त अक्षर-स्माम्नाय अर्थात् वर्णमाला की रचना की । उसी वर्णमाला द्वारा उन्होंने अपने चार मुखों से होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रम्हा—इन चार ऋत्विजों के कर्म बतलाने के लिये ॐकार और व्याह्रितिओं के सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र ब्रम्हर्षि मरीचि आदि को वेदाध्ययन में कुशल देखकर उन्हें वेदों की शिक्षा दी। वे सभी जब धर्म का उपदेश करने में निपुण हो गये, तब उन्होंने अपने पुत्रों को उनका अध्ययन कराया ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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