श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 13-22

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:४७, २९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "भगवान् " to "भगवान ")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

द्वादश स्कन्ध: नवमोऽध्यायः (9)

श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: नवमोऽध्यायः श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद

उस समय बाहर-भीतर, चारों ओर जल-ही-जल दीखता था। ऐसा जान पड़ता था कि उस जलराशि में पृथ्वी ही नहीं, स्वर्ग भी डूबा जा रहा है; ऊपर से बड़े वेग से आँधी चल रही है और बिजली चमक रही है, जिससे सम्पूर्ण जगत् संतप्त हो रहा है। जब मार्कण्डेयजी मुनि ने देखा कि इस जल-प्रलय से सारी पृथ्वी डूब गयी है, उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज—चारों प्रकार के प्राणी तथा स्वयं वे भी अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं, तब वे उदास हो गये और साथ ही अत्यन्त भयभीत भी । उनके सामने ही प्रलयसमुद्र में भयंकर लहरें उठ रही थीं, आँधी के वेग से जलराशि उछल रही थी और प्रलयकालीन बादल बरस-बरसकर समुद्र को और भी भरते जा रहे थे। उन्होंने देखा कि समुद्र ने द्वीप, वर्ष और पर्वतों के साथ सारी पृथ्वी को डुबा दिया । पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग, ज्योतिर्मण्डल (ग्रह, नक्षत्र एवं तारों का समूह) और दिशाओं के साथ तीनों लोक जल में डूब गये। बस, उस समय एकमात्र महामुनि मार्कण्डेयजी ही बच रहे थे। उस समय वे पागल और अंधे के समान जटा फैलाकर यहाँ से वहाँ से यहाँ भाग-भागकर अपने प्राण बचाने की चेष्टा कर रहे थे । वे भूख-प्यास से व्याकुल हो रहे थे। किसी ओर बड़े-बड़े मगर तो किसी ओर बड़े-बड़े तिमिंगिल मच्छ उन पर टूट पड़ते। किसी ओर से हवा का झोंका आता, तो किसी ओर से लहरों के थपेड़े उन्हें घायल कर देते। इस प्रकार इधर-उधर भटकते-भटकते वे आपार अज्ञानान्धकार में पड़ गये—बेहोश हो गये और इतने थक गये कि उन्हें पृथ्वी और आकाश का भी ज्ञान न रहा । वे कभी बड़े भारी भँवर में पड़ जाते, कभी तरल तरंगों की चोट से चंचल हो उठते। जब कभी जल-जन्तु आपस में एक-दूसरे पर आक्रमण करते, तब ये अचानक ही उनके शिकार बन जाते । कहीं शोकग्रस्त हो जाते तो कहीं मोहग्रस्त। कभी दुःख-ही-दुःख के निमित्त आते तो कभी तनिक सुख भी मिल जाता। कभी भयभीत होते, कभी मर जाते तो कभी तरह-तरह के रोग उन्हें सताने लगते । इस प्रकार मार्कण्डेयजी मुनि विष्णु भगवान की माया के चक्कर में मोहित हो रहे थे। उस प्रलयकाल के समुद्र में भटकते-भटकते उन्हें सैकड़ों-हजारों ही नहीं, लाखों-करोंड़ों वर्ष बीत गये । शौनकजी! मार्कण्डेयजी मुनि इसी प्रकार प्रलय के जल में बहुत समय तक भटकते रहे। एक बार उन्होंने पृथ्वी के एक टीले पर एक छोड़ा-सा बरगद का पेड़ देखा। उसमें हरे-हरे पत्ते और लाल-लाल फल शोभायमान हो रहे थे । बरगद के पेड़ में ईशानकोण पर एक डाल थी, उसमें एक पत्तों का का दोना-सा बन गया था। उसी पर एक बड़ा ही सुन्दर नन्हा-सा शिशु लेट रहा था। उसके शरीर से ऐसी उज्ज्वल छटा छिटक रही थी, जिससे आस पास का अँधेरा दूर हो रहा था । वह शिशु मरकतमणि के समान साँवल-साँवला था। मुखकमल पर सारा सौन्दर्य फूटा पड़ता था। गरदन शंख के समान उतार-चढ़ाव वाली थी। छाती चौड़ी थी। तोते की चोंच के समान सुन्दर नासिका और भौंहें बड़ी मनोहर थीं ।



« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-