"श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 30-39" के अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 30-39 का हिन्दी अनुवाद </div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 30-39 का हिन्दी अनुवाद </div> | ||
− | <center>'''ध्यान-विधि और | + | <center>'''ध्यान-विधि और भगवान के विराट् स्वरुप का वर्णन'''</center> |
<center>ॐ नमो भगवते वासुदेवाय</center> | <center>ॐ नमो भगवते वासुदेवाय</center> | ||
− | + | भगवान विष्णु के नेत्र अन्तरिक्ष हैं, उसमें देखने की शक्ति सूर्य है, दोनों पलकें रात और दिन हैं, उनका भ्रूविलास ब्रम्हलोक है। तालु जल है और जिह्वा रस । वेदों को भगवान का ब्रम्हरन्ध्र कहते हैं और यम को दाढ़ें। सब प्रकार के स्नेह दाँत हैं और उन्क्की जगन्मोहिनी माया को ही उनकी मुसकान कहते हैं। यह अनन्त सृष्टि उसी माया का कटाक्ष-विक्षेप है । | |
लज्जा ऊपर का होठ और लोभ नीचे का होठ है। धर्म स्तन और अधर्म पीठ है। प्रजापति उनके मूत्रेन्द्रिय हैं, मित्रावरुण अण्डकोश हैं, समद्र कोख है और बड़े-बड़े पर्वत उनकी हड्डियाँ हैं । | लज्जा ऊपर का होठ और लोभ नीचे का होठ है। धर्म स्तन और अधर्म पीठ है। प्रजापति उनके मूत्रेन्द्रिय हैं, मित्रावरुण अण्डकोश हैं, समद्र कोख है और बड़े-बड़े पर्वत उनकी हड्डियाँ हैं । | ||
राजन्! विश्वमूर्ति विराट् पुरुष की नाड़ियाँ नदियाँ हैं। वृक्ष रोम हैं। परम प्रबल वायु श्वास है। काल उनकी चाल है और गुणों का चक्कर चलाते रहना ही उनका कर्म है । | राजन्! विश्वमूर्ति विराट् पुरुष की नाड़ियाँ नदियाँ हैं। वृक्ष रोम हैं। परम प्रबल वायु श्वास है। काल उनकी चाल है और गुणों का चक्कर चलाते रहना ही उनका कर्म है । | ||
परीक्षित्! बादलों को उनके केश मानते हैं। सन्ध्या उन अनन्त का वस्त्र है। महात्माओं ने अव्यक्त (मूल प्रकृति)—को ही उनका हृदय बतलाया है और सब विकारों का खजाना उनका मन चन्द्रमा कहा गया है । | परीक्षित्! बादलों को उनके केश मानते हैं। सन्ध्या उन अनन्त का वस्त्र है। महात्माओं ने अव्यक्त (मूल प्रकृति)—को ही उनका हृदय बतलाया है और सब विकारों का खजाना उनका मन चन्द्रमा कहा गया है । | ||
− | महतत्व को सर्वात्मा | + | महतत्व को सर्वात्मा भगवान का चित्त कहते हैं और रूद्र उनके अहंकार कहे गये हैं। घोड़े, खच्चर, ऊँट और हाथी उनके नख हैं। वन में रहने वाले सारे मृग और पशु उनके कटि प्रदेश में स्थित हैं । |
तरह-तरह के पक्षी उनके अद्भुत रचना-कौशल हैं। स्वायम्भुव मनु उनकी बुद्धि हैं और मनु की सन्तान मनुष्य उनके निवास स्थान हैं। गन्धर्व, विद्याधर, चारण और अप्सराएँ उनके षड्ज आदि स्वरों की स्मृति हैं। दैत्य उनके वीर्य हैं । | तरह-तरह के पक्षी उनके अद्भुत रचना-कौशल हैं। स्वायम्भुव मनु उनकी बुद्धि हैं और मनु की सन्तान मनुष्य उनके निवास स्थान हैं। गन्धर्व, विद्याधर, चारण और अप्सराएँ उनके षड्ज आदि स्वरों की स्मृति हैं। दैत्य उनके वीर्य हैं । | ||
ब्राम्हण मुख, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जंघाएँ और शूद्र उन विराट् पुरुष के चरण हैं। विविध देवताओं के नाम से जो बड़े-बड़े द्रव्यमय यज्ञ किये जाते हैं, वे उनके कर्म हैं । | ब्राम्हण मुख, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जंघाएँ और शूद्र उन विराट् पुरुष के चरण हैं। विविध देवताओं के नाम से जो बड़े-बड़े द्रव्यमय यज्ञ किये जाते हैं, वे उनके कर्म हैं । | ||
− | परीक्षित्! विराट् | + | परीक्षित्! विराट् भगवान के स्थूल शरीर का यही स्वरुप है, सो मैंने तुम्हें सुना दिया। इसी में मुमुक्षु पुरुष बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर करते हैं; क्योंकि इससे भिन्न और कोई वस्तु नहीं है । |
− | जैसे स्वप्न देखने वाला स्वप्नावस्था में अपने-आपको ही विविध पदार्थों के रूप में देखता है, वैसे ही सबकी बुद्धि-वृत्तियों के द्वारा सब कुछ अनुभव करने वाला सर्वान्तर्यामी परमात्मा भी एक ही है। उन सत्यस्वरुप आनन्द निधि | + | जैसे स्वप्न देखने वाला स्वप्नावस्था में अपने-आपको ही विविध पदार्थों के रूप में देखता है, वैसे ही सबकी बुद्धि-वृत्तियों के द्वारा सब कुछ अनुभव करने वाला सर्वान्तर्यामी परमात्मा भी एक ही है। उन सत्यस्वरुप आनन्द निधि भगवान का ही भजन करना चाहिये, अन्य किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं करनी चाहिये। क्योंकि यह आसक्ति जीव के अधःपतन का हेतु है । |
{{लेख क्रम|पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 15-29|अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 1-9}} | {{लेख क्रम|पिछला=श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 15-29|अगला=श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 1-9}} |
१२:४७, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
द्वितीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः (1)
भगवान विष्णु के नेत्र अन्तरिक्ष हैं, उसमें देखने की शक्ति सूर्य है, दोनों पलकें रात और दिन हैं, उनका भ्रूविलास ब्रम्हलोक है। तालु जल है और जिह्वा रस । वेदों को भगवान का ब्रम्हरन्ध्र कहते हैं और यम को दाढ़ें। सब प्रकार के स्नेह दाँत हैं और उन्क्की जगन्मोहिनी माया को ही उनकी मुसकान कहते हैं। यह अनन्त सृष्टि उसी माया का कटाक्ष-विक्षेप है । लज्जा ऊपर का होठ और लोभ नीचे का होठ है। धर्म स्तन और अधर्म पीठ है। प्रजापति उनके मूत्रेन्द्रिय हैं, मित्रावरुण अण्डकोश हैं, समद्र कोख है और बड़े-बड़े पर्वत उनकी हड्डियाँ हैं । राजन्! विश्वमूर्ति विराट् पुरुष की नाड़ियाँ नदियाँ हैं। वृक्ष रोम हैं। परम प्रबल वायु श्वास है। काल उनकी चाल है और गुणों का चक्कर चलाते रहना ही उनका कर्म है । परीक्षित्! बादलों को उनके केश मानते हैं। सन्ध्या उन अनन्त का वस्त्र है। महात्माओं ने अव्यक्त (मूल प्रकृति)—को ही उनका हृदय बतलाया है और सब विकारों का खजाना उनका मन चन्द्रमा कहा गया है । महतत्व को सर्वात्मा भगवान का चित्त कहते हैं और रूद्र उनके अहंकार कहे गये हैं। घोड़े, खच्चर, ऊँट और हाथी उनके नख हैं। वन में रहने वाले सारे मृग और पशु उनके कटि प्रदेश में स्थित हैं । तरह-तरह के पक्षी उनके अद्भुत रचना-कौशल हैं। स्वायम्भुव मनु उनकी बुद्धि हैं और मनु की सन्तान मनुष्य उनके निवास स्थान हैं। गन्धर्व, विद्याधर, चारण और अप्सराएँ उनके षड्ज आदि स्वरों की स्मृति हैं। दैत्य उनके वीर्य हैं । ब्राम्हण मुख, क्षत्रिय भुजाएँ, वैश्य जंघाएँ और शूद्र उन विराट् पुरुष के चरण हैं। विविध देवताओं के नाम से जो बड़े-बड़े द्रव्यमय यज्ञ किये जाते हैं, वे उनके कर्म हैं । परीक्षित्! विराट् भगवान के स्थूल शरीर का यही स्वरुप है, सो मैंने तुम्हें सुना दिया। इसी में मुमुक्षु पुरुष बुद्धि के द्वारा मन को स्थिर करते हैं; क्योंकि इससे भिन्न और कोई वस्तु नहीं है । जैसे स्वप्न देखने वाला स्वप्नावस्था में अपने-आपको ही विविध पदार्थों के रूप में देखता है, वैसे ही सबकी बुद्धि-वृत्तियों के द्वारा सब कुछ अनुभव करने वाला सर्वान्तर्यामी परमात्मा भी एक ही है। उन सत्यस्वरुप आनन्द निधि भगवान का ही भजन करना चाहिये, अन्य किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं करनी चाहिये। क्योंकि यह आसक्ति जीव के अधःपतन का हेतु है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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