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संत फ्रांसिस ज़ेवियर (१५०६-१५५२ ई.) स्पेन के बास्क प्रांत के एक अभिजात परिवार में उनका जन्म हुआ। वह १५२५ ई. में पेरिस के विश्वविद्यालय में भरती होकर १५३० ई. में एम. ए. की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। इग्रासियुस लोयोला का सदुपदेश मानकर उन्होंने १५३४ ई. संन्यास लिया और इस प्रकार वह जेसुइट धर्मसंघ के प्रथम सात सदस्यों में से एक हैं। १५३७ ई. में उनका वेनिस नगर में पुरोहिताभिषेक हुआ। प्राच्य देशों में रोमन कैथलिक धर्म के परमाधिकारी (पोप) का प्रतिनिधि नियुक्त होकर वह १५४२ ई. में गोआ पहुँचे। इसके बाद वह केवल दस वर्ष जीवित रहे किंतु इस अल्प काल में उन्होंने पहले गोआ में तथा दक्षिण भारत के पूर्वी तट पर, बाद में मलय तथा हिंदेशिया के कई टापुओं में और अंत में एक वर्ष तक जापान में सफलतापूर्वक धर्म-प्रचार का कार्य किया। बीच में वह कई बार गोआ लौटे और किसी प्रकार समय निकालकर उन्होंने यूरोप के लोगों को बहुत से पत्र भी लिखे। उन पत्रों के कारण वह अपने जीवनकाल में ही वहाँ अपूर्व लोकप्रियता प्राप्त कर प्रसिद्ध हो गए। उनके पत्रों के संग्रह १५५० ई. से प्रकाशित होने लगे जिससे यूरोप में धर्मप्रचार के लिये उत्साह बहुत बढ़ गया। वह चीन में भी धर्मप्रचार करना चाहते थे, उसी प्रयास में चीन के निकटवर्ती संचियन नामक टापू में उनका ३ दिसंबर, १५५२ ई. को देहांत हुआ। सन्‌ १५५४ ई. में उनका शव गोआ लाया गया और अब तक वहाँ सुरक्षित हैं; समय समय पर मकबरा खोलकर शव को तीर्थयात्रियों के लिये प्रदर्शित किया जाता है।
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संत फ्रांसिस ज़ेवियर (1५०६-1५५२ ई.) स्पेन के बास्क प्रांत के एक अभिजात परिवार में उनका जन्म हुआ। वह 1५२५ ई. में पेरिस के विश्वविद्यालय में भरती होकर 1५३० ई. में एम. ए. की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। इग्रासियुस लोयोला का सदुपदेश मानकर उन्होंने 1५३४ ई. संन्यास लिया और इस प्रकार वह जेसुइट धर्मसंघ के प्रथम सात सदस्यों में से एक हैं। 1५३७ ई. में उनका वेनिस नगर में पुरोहिताभिषेक हुआ। प्राच्य देशों में रोमन कैथलिक धर्म के परमाधिकारी (पोप) का प्रतिनिधि नियुक्त होकर वह 1५४२ ई. में गोआ पहुँचे। इसके बाद वह केवल दस वर्ष जीवित रहे किंतु इस अल्प काल में उन्होंने पहले गोआ में तथा दक्षिण भारत के पूर्वी तट पर, बाद में मलय तथा हिंदेशिया के कई टापुओं में और अंत में एक वर्ष तक जापान में सफलतापूर्वक धर्म-प्रचार का कार्य किया। बीच में वह कई बार गोआ लौटे और किसी प्रकार समय निकालकर उन्होंने यूरोप के लोगों को बहुत से पत्र भी लिखे। उन पत्रों के कारण वह अपने जीवनकाल में ही वहाँ अपूर्व लोकप्रियता प्राप्त कर प्रसिद्ध हो गए। उनके पत्रों के संग्रह 1५५० ई. से प्रकाशित होने लगे जिससे यूरोप में धर्मप्रचार के लिये उत्साह बहुत बढ़ गया। वह चीन में भी धर्मप्रचार करना चाहते थे, उसी प्रयास में चीन के निकटवर्ती संचियन नामक टापू में उनका ३ दिसंबर, 1५५२ ई. को देहांत हुआ। सन्‌ 1५५४ ई. में उनका शव गोआ लाया गया और अब तक वहाँ सुरक्षित हैं; समय समय पर मकबरा खोलकर शव को तीर्थयात्रियों के लिये प्रदर्शित किया जाता है।
  
१५२२ ई. में फ्रांसिस ज़ेवियर संत घोषित किए गए थे और १५२७ ई. में उनको धर्मप्रचार का संरक्षक बना दिया गया। उनका पर्व ३ दिसंबर को मनाया जाता है। दुनिया के अन्य देशों की भाँति भारत में उनके याद में जेसुइट संघ के बहुत से महाविद्यालयों का नाम संत ज़ेवियर कॉलेज रखा गया है।  
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1५२२ ई. में फ्रांसिस ज़ेवियर संत घोषित किए गए थे और 1५२७ ई. में उनको धर्मप्रचार का संरक्षक बना दिया गया। उनका पर्व ३ दिसंबर को मनाया जाता है। दुनिया के अन्य देशों की भाँति भारत में उनके याद में जेसुइट संघ के बहुत से महाविद्यालयों का नाम संत ज़ेवियर कॉलेज रखा गया है।  
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

१५:११, १२ अगस्त २०११ का अवतरण

संत फ्रांसिस ज़ेवियर (1५०६-1५५२ ई.) स्पेन के बास्क प्रांत के एक अभिजात परिवार में उनका जन्म हुआ। वह 1५२५ ई. में पेरिस के विश्वविद्यालय में भरती होकर 1५३० ई. में एम. ए. की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। इग्रासियुस लोयोला का सदुपदेश मानकर उन्होंने 1५३४ ई. संन्यास लिया और इस प्रकार वह जेसुइट धर्मसंघ के प्रथम सात सदस्यों में से एक हैं। 1५३७ ई. में उनका वेनिस नगर में पुरोहिताभिषेक हुआ। प्राच्य देशों में रोमन कैथलिक धर्म के परमाधिकारी (पोप) का प्रतिनिधि नियुक्त होकर वह 1५४२ ई. में गोआ पहुँचे। इसके बाद वह केवल दस वर्ष जीवित रहे किंतु इस अल्प काल में उन्होंने पहले गोआ में तथा दक्षिण भारत के पूर्वी तट पर, बाद में मलय तथा हिंदेशिया के कई टापुओं में और अंत में एक वर्ष तक जापान में सफलतापूर्वक धर्म-प्रचार का कार्य किया। बीच में वह कई बार गोआ लौटे और किसी प्रकार समय निकालकर उन्होंने यूरोप के लोगों को बहुत से पत्र भी लिखे। उन पत्रों के कारण वह अपने जीवनकाल में ही वहाँ अपूर्व लोकप्रियता प्राप्त कर प्रसिद्ध हो गए। उनके पत्रों के संग्रह 1५५० ई. से प्रकाशित होने लगे जिससे यूरोप में धर्मप्रचार के लिये उत्साह बहुत बढ़ गया। वह चीन में भी धर्मप्रचार करना चाहते थे, उसी प्रयास में चीन के निकटवर्ती संचियन नामक टापू में उनका ३ दिसंबर, 1५५२ ई. को देहांत हुआ। सन्‌ 1५५४ ई. में उनका शव गोआ लाया गया और अब तक वहाँ सुरक्षित हैं; समय समय पर मकबरा खोलकर शव को तीर्थयात्रियों के लिये प्रदर्शित किया जाता है।

1५२२ ई. में फ्रांसिस ज़ेवियर संत घोषित किए गए थे और 1५२७ ई. में उनको धर्मप्रचार का संरक्षक बना दिया गया। उनका पर्व ३ दिसंबर को मनाया जाता है। दुनिया के अन्य देशों की भाँति भारत में उनके याद में जेसुइट संघ के बहुत से महाविद्यालयों का नाम संत ज़ेवियर कॉलेज रखा गया है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ