अर्चावतार

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १२:२१, १ जून २०१८ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
चित्र:Tranfer-icon.png यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें
लेख सूचना
अर्चावतार
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 238
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक श्री उमाशंकर पाडेंय

अर्चावतार अर्चा का अर्थ प्रतिमा अथवा मूर्ति होता है। प्रांत, नगर, गृह आदि में भगवान्‌ मूर्ति रूप में भी अवतीर्ण होते हैं। निराकार-निर्विकार-शुद्ध-बुद्ध-परमानंदस्वरूप परब्रह्म भक्तों की हितकामना से राम कृष्ण आदि विविध रूपों में अवतार ग्रहण करते हैं। इसी विषय में 'साधकानां हितार्थाय ब्रहाणोरूपकल्पना' कथन भी सार्थक है।

मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह आदि अवतारों के अतिरिक्त गृह, नगर, प्रांत आदि के मंदिरों में भी भक्त के अर्चनासंपादन के लिए भगवान्‌ अवतार लेते है। यह अवतार मूर्ति रूप में प्रतिष्ठित होने के कारण अर्चावतार शब्द से अभिहित होता है। वैष्णव मतानुसार अर्चावतार एक मूर्तिविशेष है जो देश काल की उत्कृष्टता से रहित होता हैं। वह अर्चक के समस्त अपराधों को क्षमा करनेवाला तथा अश्रिताभिमत होता है। वह दिव्य देहयुक्त एवं सहनशील है। वह सर्वसमर्थ एवं परिपूर्ण होने पर भी अपने सभी कर्मो में अर्चक की अधीनता स्वीकार करनेवाला होता है। प्रभु होता हुआ भी परमेश्वर स्नान-भोजन-शयन आदि सब कायों में पूजक के अधीन हो जाता है। अतएव पूजा करनेवाले समय से मूर्ति के स्नान, भोग, शयन आदि की व्यवस्था करते हैं।

गृह, नगर, ग्राम प्रदेश आदि में निवास करने वाले इस अर्चावतार के चार भेद होते हैं-स्वयंव्यक्त, सैद्ध, दैव और मानुष। भगवान् की जो मूर्तियां स्वयं प्रकट हुई उन्हें स्वयंव्यक्त, सिद्ध द्वारा होने से सैद्ध कहा जाता है। दैव और मानुष स्पष्ट ही हैं।

अर्चावतार की अर्चना के 16 प्रकर है: आवाहन, आसन, पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, तांबूल, प्रदक्षिणा और विसर्जन। इसे षोडशोपचार कहा जाता है। छत्र, चामर, व्यंजन आदि के प्रयोग से राजोपचार की अर्चा होती है और पूजा के पश्चात्‌ अर्चावतार की स्तुति की जाती है तथा अंत में साष्टांग दंडवत्‌ प्रणाम का विधान है। पूजकों में इसकी महिमा स्वीकृत है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ