गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 113
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इन दोनों ही भावों में पुरूषोत्त्म अपने आपको विश्व में अभिव्यक्त करते है; गुणों के परे जो अक्षर भाव है वही उनकी शांति की , आत्मवत्ता की और समता की स्थति है, उसीकी समं ब्रह्म कहते है; उसी से प्रकृति के गुणं में और विश्व के सब कर्मो में उनका प्राकटय होता है; प्रकृति में स्थित इन पुरूष से , इन सगुण ब्रह्म से ही मुनष्य में और सब भूतों में कर्म की उत्पत्ति होती है ; इस कर्म से ही यज्ञतत्व पैदा होता हैं देवताओं और मनुष्यों के बीच द्रव्यों का आदान - प्रदान भी इसी तत्व पर चलता है, जैसा कि वर्षा और उससे होने वाले अन्न का इसी क्रिया पर निर्भर करना और उनसे फिर प्राणियों का उत्पन्न होना दृष्टांत - स्वरूप बताया गया है। प्रकृति का सारा कर्म ही, अपने वास्तविक रूप में यज्ञ है और समस्त कर्म, यज्ञ और तप के भोक्ता सर्वभूत - महेश्वर श्रीभगवान् हैं , और , इन भगवान् को जो सर्वगत हैं, तथा यज्ञ में नित्य प्रतिष्ठित है, जानना ही सच्चा वैदिक ज्ञान है।
परंतु इन्ही भगवान् को हम देवताओ के रूप से अर्थात प्राकृतिस्थत परमेश्वर की शक्तियों के रूप से कर्म की कनिष्ठ कोटि में तथा इन शक्तियों और मानव जीवन के बीच होने वाले सनातन परस्पर व्यवहार में भी जान सकते हैं ।
यह व्यवहार परस्पर आदान – प्रदान, परस्पर साहाय्य - संवर्द्धन और परस्पर के कार्यो का उन्नयन - रूप ऐसा व्यवहार है जिसमें मनुष्य उत्तरोत्तर परम श्रेय की प्राप्ति का अधिकाधिक पात्र होता है । वह इस व्यवहार के द्वारा यह जानने लगता है कि उसका जीवन प्रकृतिस्थ परमेश्वर के कर्म का एक अंश मात्र है, कोई ऐसा जीवन नही है जिसको वह अपने लिये ही धारण करे या वितावे । वह प्राप्त होने वाले सुख और कामनाओं की पूर्ति को यज्ञ का फल और भगवान् के कार्य में लगे हुए देवतताओं की देन जानता है। और वह पापमय अहंकारपूर्ण स्वार्थपरता के मिथ्या और दुष्ट भाव से प्रेरित होकर उन भोगों का पीछा करना छोड़ देता है और यह नहीं समझता कि ये भोग ऐसा श्रेय है जिसे उसे अपने बल के आधार पर जीवन से छीन लेना है और इसके लिये न तो प्रतिदान देना है न कृतज्ञ होना है। यह भा ज्यों - ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों - त्यों वह अपनी इच्छाओं की अपने अधीन करता है, जवन और कर्मो का सारत्तव यज्ञ को ही जानकर उससे और जगत् जीवन के बीच परस्पर होने वाले महान और परम हित आदान - प्रदान पर स्वच्छंद रूप से न्योछावर कर देता है।
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