गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 134

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गीता-प्रबंध
14.दिव्य कर्म का सिद्धांत

यही भगवतसत्ता का परम रहस्य है, प्रकृति से बंधे हुए लोग जिस व्यष्टिगत भाव से कर्म किया करते हैं उस अर्थ में भगवान् कर्मो के कर्ता नहीं हैं; क्योंकि भगवान् अपनी शक्ति, माया , प्रकृति के द्वारा कर्म करते हैं, फिर भी उससे ऊपर रहते हैं, उसमें फंसते नहीं, उसे अधीन नहीं होते, ऐसे नहीं है कि उसके बनाये हुए नियमों , कार्य प्रणालियों और कर्म - संस्कारों से ऊपर न उठ सकें और उन्हींमें आसक्त या बंधे रहें तथा हम लोगों की तरह मन - प्राण- शरीर की क्रियाओं से अपने - आपको अलग न कर सकें । वे कर्मो के ऐसे कर्ता हैं जिन्हें अकर्ता समझना चाहिये , भगवान् कहते हैं कि “चातुर्वण्र्य का कर्ता में हूं पर मुझे अविनाशी अकर्ता जान । कर्म मुझे लिप्त नहीं करते , न कर्मफलों की मुझे कोई स्पृहा है।“ फिर भी भगवान् निष्क्रिीय, उदासीन और निर्बल साक्षिमात्र नहीं हैं; क्योंकि वे ही अपनी शक्ति के पदक्षेपों और मानदंडो में कर्म करते हैं; प्रकृति की प्रत्येक गति में, प्राणिजगत् के प्रत्येक अणु में उन्हीं की उपस्थिति व्याप्त है, उन्हींकी चेतना भरी हुई है, उन्ही का संकल्प काम कर रहा है, उन्ही का ज्ञान रूपान्वित कर रहा है। फिर वे ऐसे निर्गुण हैं जिनमें सब गुण हैं उपनिषद उन्हें निर्गुणो गुणी कहती है।
वे प्रकृति के किसी गुण या कर्म से बधे नहीं हैं , न वे हमारे व्यक्तित्व की तरह प्रकृति के गुणधर्मो के समूहों से तथा मानसिक , नैतिक , भावावेगमय , प्राणमय और भौतिक सत्त्ता की लाचणिक क्रियाओं से बने हैं । वे तो समस्त धर्मो और गुणों के मूलों और किसी भी गुण या धर्म को अनिच्छा के अनुसार जब चाहें , जितना चाहें जिस प्रकार चाहें विकसित करने की क्षमता रखते हैं, वे वह अनंत सत्ता हैं जिसके वे सब भूतभा हैं। वह सत्ता अपरिमेय राशि और असीम अनिर्वचनीय तत्व है जिसके ये सब परिमाण, संख्या और प्रतीक हैं और जिसको ये विश्व के मानदंड के अनुसार छंदोबद्ध और संख्याबद्ध करते हैं। फिर भी वे कोई नैव्र्यक्त्कि अनिदिंष्ट सत्ता ही नहीं हैं, न केवल ऐसी सचेतन सत्ता है जहां से समस्त निर्देश और व्यष्टिभाव अपना उपादान प्राप्त करते रहें, बल्कि वे परम सत्त्ता हैं , अद्वितीय मूल चिन्मय सत्य हैं ,पूर्ण पुरूष हैं जिनके साथ अत्यंत स्थूल और घनिष्ठ सभी प्रकार के मानव - संबंध स्थपित किये जा सकते हैं; क्योंकि वे सुहृद सखा , प्रेमी, खेल के संगी, पथ के दिखानेवाले , गुरू , प्रभु , ज्ञानदाता, आनंददाता हैं और इन सब संबधों में रहते हुए भी इनसे अलिप्त, मुक्त और निरपेक्ष हैं देवनर भी, अपनी यथाप्राप्त सिद्धि के अनुसार व्यक्तिभाव में रहते हुए नैव्र्यक्तिक ही, सांसारिक जनों के साथ सब प्रकार के अत्यंत वैयक्त्कि और घनिष्ठ संबंध रखते हुए भी गुण या कर्म से सर्वथा अलिप्त , धर्म का बाह्मतः आचरण करते हुए उससे अनासक्त ही, रहता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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