डायरी

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लेख सूचना
डायरी
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 227
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक शंम्भूनाथ वाजपेयी

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डायरी नित्य प्रति के व्यक्तिगत लिखित अनुभवों को डायरी की संज्ञा दी गई है। इसे दैनंदिनी, रोजनामचा और दैनिकी भी कहते हैं। जीवन के आंरभिक दिनों में डायरी लेखन का कार्य कालांतर में बड़ा मूल्यवान्‌ सिद्ध होता है। प्रौढ़ावस्था में जाकर अपनी ही पिछली डायरी पढ़ने पर व्यक्ति को यह अनुभव होता है कि उसके विचार किस रूप में परिपक्व हुए। अनुभवों, विश्वासों ओर आकांक्षाओं की प्रौढ़ता का विकासक्रम समझने का यह साधन सचमुच बड़ा आकर्षक और रमणीय है।

कागजपत्रों का विस्तार

वर्तमान युग में प्रत्येक क्षेत्र में कागजपत्रों का इतना विस्तार हो गया है कि सरकारी, गैर सरकारी, सार्वजनिक अथवा निजी क्षेत्रों में काम करनेवाले प्रत्येक उत्तरदायी व्यक्ति को किसी न किसी रूप में डायरी का उपयोग अवश्य करना पड़ता है। इसके अंतर्गत छोटे मोटे दैनिक आय और व्यय के विवरण रखने से लेकर बड़े से बड़े जटिलतम कार्यों को सुविधा और सरलतापूर्वक संचालित करने तक के लिए डायरी का व्यवहार प्राय: अनिवार्य हो गया है। लेखों और तथ्यों के संरक्षण का प्रचार यद्यपि भारतवर्ष में भी पूर्वमध्यकाल से ही मिलने लगता है, तथापि डायरी लेखन का वास्तविक आरंभ और विकास पश्चिम में ही हुआ। पाश्चात्य देशों में प्राचीन काल से ही डायरियाँ लिखने का पता चलता है। किंतु परिवार के मुख्य सदस्य स्वयं यह कार्य नहीं करते थे। यह कार्य किसी सेवक या दास को सौंपा जाता था जो डायरी में मुख्यत: दैनिक हिसाब अंकित किया करता था। आय व्यय के हिसाब के अतिरिक्त डायरी में पारिवारिक घटनाओं आदि का अंकन भी हुआ करता था। आगे चलकर डायरियों का लेखन बहुत कुछ व्यक्तिगत रूप ग्रहण करने लगा। साहित्यिक मूल्यों से युक्त डायरियाँ रेनेसाँ काल के बाद लिखी जाने लगी थीं, किंतु रेनेसाँ पूर्व-युगों में, स्मरण रखने के उद्देश्य से, जो टिप्पणियाँ, संस्मरण, भाषणों के सारसंक्षेप, पारिवारिक विवरण आदि लिखित रूप में रखे जाते थे उन सबके लिए प्रचलित अभिधान 'कमेंटराई' था। सीजर के फ्रांसीसी अभियान तथा अन्य युद्धों का विवरण, शासन के विभिन्न विभागों के विवरण, आदि के लिए भी 'कमेंटरी' शब्द ही प्रयुक्त होता था और ऐसे विवरण प्रस्तुत करनेवाले कर्मचारी 'कमेंटराइज' कहे जाते थे। इसी प्रकार सम्राट् के राजकाज का लेखा रखनेवाली पंजिका को 'कमेंटराई प्रिंसिपिस', न्याय विभाग की दैनंदिनी को 'कमेंटराई ड्यूर्नी' और राजा के अधिकारों तथा कर्त्तव्यों का एवं धर्माध्यक्ष के रूप में किए गए उसके कार्यों का लेखा रखनेवाली पंजिका को 'कमेंटराई रेगम' कहते थे।

17वीं शताब्दी में आकर इंग्लैंड आदि पाश्चात्य देशों में डायरी लेखन में यथेष्ट साहित्यिक महत्व लक्षित होता है, यद्यपि लेखकों ने लिखते समय शायद ही उनके प्रकाशन की बात सोची होगी। सर विलियम डगडेल (1605-86), बुलस्ट्रोड ह्वाइटलाक (1605-75) एवं ज्यार्ज फाक्स (1624-91) के नाम ऐसे डायरी लेखकों में उल्लेखनीय हैं। सबसे लंबी कालावधिवाली डायरी संभवत: जान ईवलिन (1620-1706) की है, जिसमें 70 वर्ष की घटनाएँ विकृत हैं। इसका प्रकाशन 1818 में हुआ। सैमुएल पेपिस (1633-1703) ने आत्मचरित्‌ के रूप में नौ वर्षों तक (1-1-1660 से 29-5-1669 तक) जो डायरी लिखी वह संभवत: डायरियों के रूप में अबतक लिखी गई रचनाओं में सर्वश्रेष्ठ है। पेपिस के पश्चात्‌ भावात्मक गुणों से संपन्न डायरी लिखनेवाले जानेदन स्विफ्ट उल्लेख्य हैं जिनकी 'जर्नल टु स्टेला' नामक डायरी में 1710 से लेकर 1713 तक के वृत्तांत संगृहीत हैं। कल्पना, महत्वाकांक्षा और स्नेह का अद्भुत संमिश्रंण स्विफ्ट के इस जर्नल में है। इस प्रकार की रचनाओं में अत्यंत सराहनीय कृति फैनी बर्नी (मैडम डाब्ले) की भी है जो 1842-46 में प्रकाशित हुई थी।

विशेषतायें

अब तक जितनी डायरियाँ छपीं वे सब अपने लेखकों के मरणोपरांत प्रकाशित हुईं। इन्हें प्रकाशित देखकर एवं इनकी विशेषताओं के प्रति आकृष्ट होकर डायरी लिखने की ओर अनेकानेक लोगों का ध्यान गया। परिणामत: 19वीं शताब्दी में डायरियों और जर्नलों की भरमार हो गई। पर साहित्यिक उत्कृष्टता की दृष्टि से उनमें कुछ ही उल्लेखनीय हैं, जैसे सर वाल्टर स्काट का जर्नल (1890), आर. बी. हेडन की कृति 'आटोबायोग्रैफी ऐंड जर्नल' का डायरीवाला अंश, तथा चार्ल्स ग्रेविल (1794-1865), टामस क्रीवी (1768-1838), हेनरी क्रैब राबिनसन (1775-1867), टाम मूर और सुप्रसिद्ध नृतत्वशास्त्री चार्ल्स डारविन, आर. डब्लयू. इमर्सन इत्यादि की कृतियाँ। हाल में प्रकाशित डायरियों में कैथराइन मैंसफील्ड का जर्नल संभवत: सर्वोत्कृष्ट कृति है। फ्रांसीसी लेखकों द्वारा भी मध्ययुग में अनेक उत्कृष्ट डायरियाँ प्रस्तुत की गईं। चार्ल्स षष्ठ एवं चार्ल्स सप्तम के राज्यकाल में एक अज्ञातनामा पुरोहित द्वारा सन्‌ 1409 से लेकर 1431 तक जो डायरी लिखी गई वह इनमें विशेष महत्वपूर्ण है। 1431 के आगे भी यह डायरी 1449 तक किसी अन्य व्यक्ति ने चालू रखी। डेंग्यू के मार्क्विस (1638-1720) ने 1684 से लेकर अपने जीवनपर्यत जो डायरी लिखी उसमें लुई 14वें के राज्यकाल के संबंध में जैसे तथ्य एकत्र मिलते हैं वैसे अन्यत्र दुर्लभ हैं। अन्य फ्रांसीसी डायरी लेखकों में सेंट साइस, एडमंड बार्वियर, चार्ल्स कोले, पेटिट डिबैचामांट के नाम उल्लेखनीय हैं। रूसी कलाकार मेरी बैशकर्टसेफ (1860-84) की डायरी ने, जो उसके मरणोपरांत (1887 में) प्रकाशित हुई थी, बड़ा तहलका मचा दिया था।

भारत के मध्यकाल, विशेषत: मुगलकाल से डायरी लिखी जाने का पता चलता है। इतिहास का पर्यायवाची 'तारीख' और 'तवारीख' शब्द ही यह स्पष्ट कर देते हैं कि उस युग में ऐतिहासिक कृतियाँ पहले दैनंदिनी विवरण के रूप में प्रस्तुत हुआ करती थीं और अंत में उनका समुच्चित या संकलित रूप कालविशेष का इतिहास हो जाता था। मुसलिम इतिहासकार मात्र प्राय: इसी पद्धति से इतिहास प्रस्तुत किया करते थे। इससे भिन्न, इतर पद्धति द्वारा रचित इतिहास ग्रंथ भी है, पर उनकी संख्या अपेक्षाकृत कम है। इन इतिहासकारों के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में डायरियाँ लिखी जाने का पता नहीं चलता। प्राचीन हस्तलिखित पुस्तकों और बहियों आदि की छानबीन करनेवाले यह जानते ही हैं कि संपन्न परिवारों में कहीं-कहीं दैनंदिनी विवरण भी रखे जाते थे। इन विवरणों में मुख्यत: नित्य के आयव्यय का हिसाब विस्तार के साथ रहता था,

अन्य आवश्यक बातें

यथा किसी विशिष्ट व्यक्ति का आगमन, गमन, अथवा जन्म, मरण, विवाहादि संस्कार एवं सामाजिक संबंधों और व्यावहारों की चर्चा इत्यादी उनमें बड़े सूक्ष्म रूप में रहती थी। किंतु खेद है कि उपयोगी विधा के रूप में इसका स्वतंत्र विकास नहीं हो पाया। इसका मुख्य कारण डायरियों के प्रकाशन की व्यवस्था न रहना है। पाश्चात्य डायरियों के प्रकाशन ने एतद्देशीय राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक क्षेत्रों में कार्य करनेवाले विद्वानों को नियमित रूप से डायरियाँ लिखने की प्रेरणा दी और 19वीं शताब्दी के उतरार्ध से यहाँ भी डायरियाँ लिखी जाने लगीं। किंतु प्रकाशन विषयक उदासीनता के कारण उनकी सार्वजनिक उपयोगिता संदिग्ध ही रही। चाहे यों कह लीजिए कि दैनिक व्यय और नितांत व्यक्तिगत विवरणों में सर्वसामान्य उपयोगिता की कोई सामग्री न रहने के कारण उनका प्रकाशन नहीं हो सका। परंतु 19वीं शताब्दी के बाद विभिन्न वर्गों के लोग डायरी लिखने की ओर प्रवृत्त हुए। इनमें भी ऐसी डायरियाँ बहुत कम हैं जो आगे चलकर प्रकाशित हुईं। नीचे ऐसी ही कतिपय उत्कृष्ट डायरियों की चर्चा की जा रही है।

सुप्रसिद्ध हिंदी सेवी और पर्व्राािजक स्वर्गीय स्वामी सत्यदेव जी ने 16 जून, 1915 से लेकर 4 सितंबर, 1915 तक अर्थात्‌ ढाई मास का समय, अपनी मानसरोवर यात्रा में लगाया था। इस यात्रा में उन्होंने नियमित रूप से डायरी रखी थी जिसमें ऐतिहासिक छाया के अंतर्गत इस अंचल का बड़ा अभिनव भौगोलिक वृतांत उन्होंने उपस्थित किया है। इसे एक बार पढ़कर अपरिचित व्यक्ति भी नि:संकोच उस दुर्गम तीर्थ की यात्रा पर चल पड़ सकता है। यह डायरी सन्‌ 1915 में ही प्रकाशित हो गई थी। यह वह समय था जब सुप्रसिद्ध विद्वान आचार्य डॉ. धीरेंद्र वर्मा ने मैट्रिक पास करके कालेज में प्रवेश किया था। कालेज में प्रविष्ट होने के साथ ही वे नियमित रूप से डायरी लिखने लगे थे। उनका यह क्रम सन्‌ 1923 तक निर्बाध रूप से चला। आरंभिक वर्षों की डायरी में तो मात्र ऐसी चर्चा है कि कब सोया, कब उठा, कब भोजन किया, कब टहलने गया, इत्यादि; किंतु 1917 से लेकर 1923 तक की डायरी जब विचारशक्ति और विवेकबुद्धि बहुत कुछ परिपक्च और परिमार्जित हो चली थी विशेष उल्लेखनीय है। मानसिक उलझनों तथा आंतरिक समस्याओं और द्वंद्वों के बीच किस प्रकार वर्मा जी का निर्माण होता रहा, इसकी बड़ी सुंदर झांकी इस डायरी में मिलती है।

'दैनंदिनी' नाम से प्रकाशित श्री सुंदरलाल त्रिपाठी लिखित 21-8-1939 से लेकर 6-2-1944 तक की, अर्थात लगभग साढ़े चार वर्षों की डायरी 'सांसारिक प्रपंचों से विमुख, संत्रस्त, क्षीणस्वास्थ्य, दुर्बलशरीर किंतु अत्यंत मनस्वी और सूक्ष्म विवेचक तथा सहृदय साहित्यिक' की डायरी है। आचार्य नंददुलारे जी वाजपेयी की भूमिका के साथ प्रकाशित यह डायरी अपने ढंग की अत्यंत महत्वपूर्ण कृति है।

राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र

डायरी लेखकों का दूसरा वर्ग राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्रों में कार्य करनेवालों का है। इसमें संदेह नहीं कि परिमाण की दृष्टि से इन कार्यकर्ताओं की संख्या अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक है और इनमें डायरी रखने की प्रवृत्ति भी अपेक्षया विशेष है। इस वर्ग के डायरी वाड्.मय की सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति हमारे राष्ट्रपिता थे। उनके निजी सचिव स्व. महादेव भाई देसाई नियमित रूप से डायरी लिखा करते थे। नवजीवन कार्यालय (अहमदाबाद) द्वारा कई भागों में प्रकाशित उनकी डायरी भारतीय डायरियों में ही नहीं, संसार भर के डायरी वाड्.मय में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। महात्मा जी के संपर्क में आनेवाले संसार भर के सैकड़ों राजनीतिज्ञों, कूटनीतिज्ञों, पत्रकारों, विद्वानों आदि की चर्चा महादेव भाई ने बड़ी सूक्ष्मता और सतर्कता से की है। भारत की स्वतंत्रता के लिए किए गए संघर्ष के रंगमंच का दर्शन तो इतिहास की विविध पुस्तकों से भी हो जाता है परंतु इस रंगमंच के नेपथ्यदेश की झाँकी इस डायरी के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। महादेव भाई का निधन हो जाने पर उनक कार्यभार बहुत दिनों तक श्री मनुबहन गांधी को सँभालना पड़ा था। मनुबहन का प्रशिक्षण राष्ट्रपिता ने स्वयं अपनी देखरेख में किया था और आरंभ से ही उनमें डायरी लिखने की प्रवृत्ति पैदा की थी। मनुबहन ने 1942 से डायरी लिखना आरंभ कर दिया था। उनकी डायरियाँ भी कई खंडों में, भिन्न भिन्न शीर्षकों से पुस्तकाकार, नवजीवन कार्यालय, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित हुई हैं। 1942 से 1945 तक के प्रशिक्षणकाल की डायरी 'बा और बापू की छाया में' नाम से प्रकाशित हुई है। तदनंतर उन्हें राष्ट्रपिता के साथ उनकी नोआखाली की सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक धर्मयात्रा में जाना पड़ा था। इस यात्राकाल में मनुबहन राष्ट्रपिता के निर्देशन में नियमित रूप से डायरी लिखती रहीं। यह धर्मयात्रा 23-10-46 को आरंभ हुई थी और 4-3-47 को राष्ट्रपिता का प्रत्यावर्तन हुआ था। इस कालावधि की डायरी 'अकेला चलो रे' नाम से प्रस्तुत हुई है। इसी प्रकार 1-8-47 से 8-9-47 तक की डायरी भी 'कलकत्ते का चमत्कार' के नाम से उन्होंने प्रस्तुत की है।

राष्ट्रपिता जैसी ही एक संत विभूति आचार्य विनोबा भावे हैं। अपने भूदान कार्यक्रम के संबंध में उन्होंने सारा देश पैदल छान डाला है। सन्‌ 1948 में उन्होंने जो पदयात्रा की थी उसमें अनेक भाषण उन्होंने दिए थे जिनका सारा संकलन डायरी के रूप में हुआ है। डायरी के रूप में भाषणों का ही दूसरा संकलन उत्तर प्रदेश के राज्यपाल महामान्य श्री वराहगिरि वेंकटगिरि का है जिसे उत्तर प्रदेश सरकार के सूचना विभाग ने 'राज्यपाल की डायरी, भाग 1' के नाम से प्रकाशित किया है। इसमें पदग्रहणवाले 15-6-1957 के भाषण से लेकर 21-6-58 तक के भाषण संकलित हैं।

आजकल 'डायरी' का प्रयोग एक साहित्यिक विधा के रूप में भी होने लगा है। किंतु इस रूप में पूर्वलिखित डायरी यथावत्‌ नहीं रह जाती। कथा कहानी, उपन्यास अथवा वाड्.मय का जो अंग भी डायरी रूप में प्रस्तुत किया जाता है उसमें यथेष्ट परिष्कार हुआ रहता है। परंतु वास्तविक डायरियों के इन परिष्कृत रूपों का परिमाण भी अत्यल्प ही है। 'डायरी' अभिधान के रूप में प्रस्तुत होनेवाली ऐसी अधिकांश सामग्री का किसी वास्तविक डायरी से कोई संबंध नहीं रहता। वाचन सामग्री सर्वथा कल्पनाश्रित रहती है, केवल उनका रूपाकार भर डायरी का होता है, ठीक वैसे ही जैसे पत्रसंग्रह के रूप में प्रस्तुत कहानी या उपन्यास।


टीका टिप्पणी और संदर्भ