तुलसी

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लेख सूचना
तुलसी
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 400
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक राम प्रसाद त्रिपाठी
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक सद्गोपाल

तुलसी के पौधे का भारतीय संस्कृति और साहित्य में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। अब यह भी निर्विवाद सिद्ध हो चुका है कि भारत से बाहर भी यह पौधा, लगभग दो सहस्र वर्ष पूर्व से अवश्य, पवित्र और लोकोपयोगी समझा जाता रहा है। भारत में सर्वत्र प्रचलित नाम तुलसी बहुत पुराना नहीं है। चरक, सुश्रुत आदि संहिताओं में इसी पौधे के लिये तुलसी के स्थान पर सुरस और सुरसा शब्दों का प्रयोग हुआ है। प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध अन्य परिचयज्ञापक संज्ञाएँ अनेक हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ग्राम्य सुलभा होने से इसका उपयोग भारतीय चिकित्सा में इतना गुणदायक पाया गया कि सुश्रुत के टीकाकार डल्लण के समय (1060 ई० से 1260 ई० के बीच) इस पौधे को लोक में तुलसी (अर्थात रोग और रोगाणुओं का संहार करने में जिसकी तुलना में और कोई न हो) कहने लग गए थे। अंग्रेजी में प्रचलित नामों, यथा होली बेसिल (Holy Basil), सैक्रड बेसिल (Sacred Basil), मॉड्क़स बेसिल (Monk's Basil) तथा लैटिन भाषा से प्राप्त वानस्पतिक नाम औसिमम सैंक्टम (Ocimum Sanctum) इत्यादि सभी, इस पौधे के सार्वदेशिक महत्व के द्योतक हैं।

तुलसी के प्रकार

तुलसी की सफेद और काली दो किस्में प्राय: देखी जाती हैं। आयुवैंदिक ग्रंथों में भी ये भेद गौरी और श्यामा विशेषणों के रूप में मिलते हैं। चरक ने कुछ प्रयोगों में सफेद और अन्य में काली किस्म लेने का निर्देश किया है। इसलिये यह स्पष्ट है कि चरक इसके काले और सफेद भेदों के गुण दोष से भली भाँति परिचित थे। कैयदेव (1450 ई० के लगभग) ने तुलसी के तीन भेद लिखे हैं, काली तुलसी, सफेद तुलसी और कर्पूर तुलसी। कैयदेव के इस लेख का महत्व और भी स्पष्ट हो जाता है जब कि आधुनिक वनस्पतिशास्त्रज्ञों के मतानुसार भी तुलसी की विविध जातियों और उपजातियों के पौधों का ठीक ठीक नामकरण असंभव पाया जा रहा है। आसिमम (Ocimum) की प्रजाति और बेसिलिकम (Basilicum) की जातिगत बहुरचनात्मकता (polymorphism) के कारण, इनमें अनेकानेक उपजातियाँ और रूप बन जाने से इनका ठीक ठीक परिचय और नामकरण असंभव सा हो गया है।

काली तुलसी का पौधा औसिमम बेसिलिकम एल० (Ocimumbasilicum L.) वानस्पतिक कुल लेबिएटी (Labiateae) का सदस्य होने से भारत, बर्मा, श्रीलंगा, मलय, अफ्रीका, ब्राजील आदि गर्म देशों में लगभग सर्वत्र पाया जाता है। भारत में यह पौधा हिमालय में पच्चीस सौ मीटर की ऊँचाई तक मिलता हैं। धार्मिक कार्यों में महत्व के कारण लोग इसे बोते भी हैं। काली तुलसी की विशिष्ट उपजातियों के पौधों के सौगंधिक तेलों के रासायनिक विश्लेषण से यह सिद्ध हो चुका है कि इनके मुख्य भेद निम्नलिखित प्रकार हैं:

(क) यूरोप और अमरीका के विशुद्ध औ० बेसिलिकम के पौधे, जिनके सौगंधिक तेल में कर्पूर का अभाव तथा मिथाइल चेविकोल (Methyl chavicol) और लिनेलूल पाए जाते हैं।

(ख) मैडागैसकर सागर के निकटवर्ती द्वीपों में पाए जानेवाले पौधे, जिनके सौगंधिक तेल में मिथाइल चेविकोल के मुख्यांश और कर्पूर प्राप्त होता है तथा लिनेलूल का सर्वथा अभाव है।

(ग) बलगेरिया और इटली इत्यादि देशों में पाए जानेवाले पौधे, जिनके सौगंधिक तेल में मिथाइल चेविकोल के मुख्यांश के अतिरिक्त लिनेलूल और मिथाइल सिनेमेट पाए जाते हैं।

(घ) जावा इत्यादि द्वीपों में पाए जानेवाले पौधे जिनके सौगंधिक तेल का मुख्यांश यूजिनोल पाया गया है।

तुलसी के भेदों की उपरिलिखित जटिलता के कारण निम्नलिखित विशिष्ट जातियों का उल्लेख किया जाना अनिवार्य है :

(क) औसिमम कैनम सिम्‌स (Ocimum Cannum Sims)। इसके दो उपभेद पाए जाते हैं, एक में मिथाइल सिनेमेट की प्रधानता और दूसरे में कर्पूर की होती है।

(ख) औसिमस ग्रैटिस्सिमम एलo (Ocimum gratissimum L.)। इसके भी दो भेद पाए गए हैं, थाइमोल प्रधान और यूजिनोल प्रधान।

(ग) औसिमस किलिमैंशैरिकम ग्युर्किo (Ocimum kilimandscharicum Guerke)। इसके सौगंधिक तेल में 75 प्रतिशत कर्पूर पाया गया है। ऐसा कहा जाता है कि भारत में इससे कर्पूर बनाया जा सकता है।

(घ) औo सैंकटम लिन्नo (O. sanctum Linn.)। इसे सफेद तुलसी के नाम से हिंदू पूजते हैं। इसके सौगंधिक तेल में 70 प्रतिशत यूजिनोल, 20 प्रतिशत यूजिनोल मिथाइल ईथर और तीन प्रतिशत कैर्वैक्रोल (Carvacrol) पाए गए हैं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संदर्भ ग्रंथ

गुंथर, ईo : दि एसेन्शैयल ऑयल, वॉल्यूम 3; डी वॉन नॉस्ट्रैंड कंपनी इंक, न्यूयॉर्क। कीर्तिकर, केo आरo ऐंड बसू, बीo डीo : इंडियन मेडिसिनल प्लांट्स वॉल्यूम 3.। सद्गोपाल: न्यूअर पोटेंशिअल सोरसेज़ ऑव इंडियन एसेन्शैल ऑयल्स।