भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 223

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अध्याय-13
सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक सर्वोच्च ज्ञान

   
अच्छाई आवेश और निष्क्रियता (सत्व, रज और तम)
5.सत्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।
हे महाबाहु (अर्जुन), अच्छाई (सत्व), आवेश (रजस्) और निष्क्रियता (तमस्), ये तीनों गुण प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं और ये अनश्वर शरीरी (आत्मा) को शरीर में बांधकर रखते हैंअनश्वर आत्मा को जन्म और मरण के चक्र में फंसा हुआ प्रतीत कराने वाली शक्ति गुणों की शक्ति है। वे गुण ’प्रकृति के आद्यघटक हैं और सब तत्वों के आधार हैं। इसलिए उन्हें इन तत्वों में विद्यमान गुण नहीं कहा जा सकता।’- आनन्दगिरि। उन्हें गुण इसलिए कहा जाता है, क्योंकि उनकी उत्पत्ति सांख्य के पुरुष या गीता के क्षेत्रज्ञ पर आश्रित है। गुण प्रकृति की तीन प्रवृत्तियां हैं या वे तीन धागे हैं, जिनसे प्रकृति की रस्सी बटी गई है। सत्व चेतना के प्रकाश को प्रतिध्वनित करता है और उसके द्वारा आलोकित होता है और इसलिए उसकी विशेषता चमक (प्रकाश) है। रजस् में बहिर्मुख गतिविधि (प्रवृत्ति) है और तमस् की विशेषता जड़ता (अप्रवृत्ति) और लापरवाही (प्रमाद) है।[१] सत्व पूर्ण विशुद्धता और द्युति है, जब कि रजस् अशुद्धता है, जो कि गतिविधि की ओर ले जाती है और तमस् अन्धकार एवं जड़ता है। क्यों कि गीता में गुणों का मुख्य रूप से व्यवहार नैतिक अर्थ में किया गया है, इसलिए हमने सत्व के लिए अच्छाई, रजस् के लिए आवेश और तमस् के लिए निष्क्रयता शब्द का प्रयोग किया है।ब्रह्माण्डीय त्रैत में इन तीन गुणों मे से एक-एक का प्राधान्य प्रतिबिम्बित है; रक्षक विष्णु में सत्व का, स्रष्टा ब्रह्मा में रजस् विश्व की सृजनशील गतिविधि में; और तमस् वस्तुओं की जीर्ण-शीर्ण होने और मरने की प्रवृत्ति का प्रतिनिधि है। ये गुण संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रयल के लिए उत्तरदायी हैं गुणों का ईश्वर के तीन पक्षों पर आरोप इस बात का सूचक है कि ईश्वर का सम्बन्ध वस्तु-रूपात्मक या व्यक्त जगत् से है। परमात्मा मानवता में उसके उद्धार के लिए संघर्ष कर रहा है, और देवतुल्य आत्माएं उसके इस उद्धार के कार्य में उसके साथ सहयोग करती हैं।[२]जब आत्मा अपने-आप को प्रकृति के गुणों के साथ एक समझने लगती है, तब वह अपनी नित्यता को भूल को भूल जाती है और मन, प्राण तथा शरीर का उपयोग अहंकारपूर्ण तृप्ति के लिए करती है। बन्धन से ऊपर उठने के लिए हमें प्रकृति के गुणों से ऊपर उठना होगा और त्रिगुणातीत बनना होगा; तब हम आत्मा के स्वतन्त्र और अदृश्य स्वभाव को धारण कर सकेंगे। तब सत्व उन्नयन (सब्लीमेशन) द्वारा चेतना का प्रकाश, ज्योति बन जाता है, रजस् तप बन जाता है और तमस् प्रशान्तता या शान्ति बन जाता है।
 
6.तत्र सत्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसगेन बध्नाति ज्ञानसंगेन चानघ।।
इनमें से अच्छाई (सत्व) विशुद्ध होने के कारण प्रकाश और स्वास्थ्य का कारण बनती है। हे निष्कलंक अर्जुन, यह सत्व-गुण आनन्द और ज्ञान के प्रति आसिक्ति के कारण मनुष्य को बाधंता है।यहां ज्ञान का अर्थ निम्नतर बौद्धिक ज्ञान है।सत्व हमें अहंभाव से मुक्ति नहीं दिलाता। यह भी इच्छा उत्पन्न करता है, भले ही वह इच्छा अच्छी वस्तुओं के लिए हो। आत्मा, जो कि सब आसक्तियों से मुक्त है, यहां आनन्द और ज्ञान के प्रति आसक्त रहती है। यदि हम अहंभाव के साथ सोचना और कामना करना बन्द न करें, तो हम मुक्त नहीं हैं। ज्ञान का सम्बन्ध बुद्धि से है, जो कि प्रकृति की एक उपज है और उसकी विशुद्ध चेतना से भिन्न समझा जाना चाहिए, जो कि आत्मा का सार-तत्व है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11 और 22, 12 और 22, 13
  2. ईसाइयाह से तुलना कीजिए, जो मसीयाह के विषय में इस प्रकार कहता हैः ’’उसने हमारे कष्टों को सहा और हमारे दुःखों को झेला। वह हमारे अपराधों के लिए आहत हुआ। हमारी शान्ति के लिए दंड उसे सहना पड़ा और उसके द्वारा खाए कोड़ों से हम स्वस्थ होते हैं।’’ (53, 45)

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