भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 250

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अध्याय-18
निष्कर्ष संन्यास कर्म का ही नहीं, अपितु कर्म के फल का किया जाना चाहिए

   
61.ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढ़ानि मायया।।
हे अर्जुन, ईश्वर सब प्राणियों के हृदय में निवास करता है और वह उन सबको इस प्रकार घुमा रहा है मानो वे किसी यन्त्र पर चढे़ हुए हों।हमारे जन्मजात स्वभाव और उसके भाग्यनिर्णायक बलप्रयोग का सम्बन्ध उस भगवान् द्वारा नियन्त्रित रहता है, जो हमारे हृदय में निवास करता है और हमारे विकास का पथप्रदर्शन करता है और उसे संयत रखता है। वह शक्ति, जो घटनाओं का निर्धारण करती है, जैसा कि हार्डी की रचनाओं में दिखाई पड़ता है, अन्धी, अनुभूतिशून्य और विचारहीन संकल्प-शक्ति नहीं है, जिसे कि हम ’भाग्य’, ’भवितव्यता’ या ’दैवयोग’ का नाम देते हैं।[१]विश्व के नियमों पर शासन करने वाली आत्मा, विश्व की आयोजना के विकास का अध्यक्ष परमात्मा, प्रत्येक प्राणी के हृदय में भी स्थित है और उसे शान्त नहीं बैठने देता। ’’तेरे बिना हम क्षण-भर भी जीवित नहीं रह सकते। सत्य-रूप में तू हमारे अन्दर और बाहर सदा विद्यमान रहता है।’’[२]भगवान् हमारे अस्तित्व का आन्तरिकतम आत्म है। सम्पूर्ण जीवन उसके जीवन की लय की गति है और हमारी शक्तियां और कर्म सबके सब उससे ही निकले हैं। यदि हम अपने अज्ञान के कारण इस गम्भीरतम सत्य को भूल जाएं, तो इससे सत्य नहीं बदल जाता। यदि हम सचेत रूप से उस परमात्मा के सत्य में जीवन-यापन करें, तो हम अपने सब कर्म परमात्मा के हाथों में छोड़ देंगे और अपने अहंकार से छुुटकारा पा जाएंगे। यदि हम ऐसा न करें, तब भी सत्य की ही विजय होगी। कभी-न-कभी हमें परमात्मा के प्रयोजन के सम्मुख घुटने टेकने ही पडे़गे, परन्तु उस समय तक इस बीच की अवधि में किसी प्रकार की विवशता नहीं है। भगवान् हमारा स्वेच्छापूर्वक सहयोग चाहता है, जिससे सौन्दर्य और अच्छाई का प्रसव-पीड़ा के बिना और प्रयासहीन रूप से जन्म हो जाए। जब हम परमात्मा के प्रकाश के लिए पारदर्शक माध्यम बन जाते हैं, तो वह अपने कार्य के लिए हमारा उपयोग करता है।

62.तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।
हे भारत (अर्जुन), तू अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ उसी की शरण में जा। उसकी कृपा से तुझे परम शान्ति और शाश्वत धाम प्राप्त होगा।सर्वभावेन: अपने सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ। हमें अपने अस्तित्व के सब स्तरों पर ब्रह्म की चेतना अनुभव होनी चाहिए। राधा का कृष्ण के प्रति पे्रम आध्यात्मिक से लेकर शारीरिक तक, अस्तित्व के सब स्तरों पर अखण्ड, प्रेम का प्रतीक है।अर्जुन से कहा गया है कि वह परमात्मा के साथ सहयोग करे और अपना कत्र्तव्य पूरा करे। उसे अपने अस्तित्व की सम्पूर्ण स्थिति को बदलना होगा। अपने-आप को भगवान् की सेवा में लगा देना होगा। तब उसका मोह समाप्त हो जाएगा, कार्य का कारण का बन्धन टूट जाएगा और वह फिर छायाहीन प्रकाश को, पूर्ण समस्वरता और सर्वोच्च आनन्द को प्राप्त कर लेगा।
 
63.इति ते ज्ञानमाख्यातं गृह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।
इस प्रकार मैंने तुझे यह ज्ञान बतलाया है, जो सब रहस्यों से बड़ा रहस्य है। इस पर भलीभांति विचार करने के बाद तेरी जैसी इच्छा हो, वैसा कर।
विमृश्यैतद् अशेषेण: इस पर भलीभांति विचार करके। हमें अपनी बुद्धि का प्रयोग करना होगा, [३]और अपने विवेक से काम लेना होगा।
यथा इच्छसि तथा कृरु: जैसी तेरी इच्छा हो, वैसा कर। परमात्मा देखने में तटस्थ या निरपेक्ष प्रतीत होता है, क्योंकि उसने चुनने का निर्णय अर्जुन के हाथ में छोड़ दिया है। उसकी यह प्रतीयमान निरपेक्षता उसकी इस चिन्ता के कारण है कि हममें से प्रत्येक उसके पास अपनी स्वेच्छा से ही पहुंचे। वहकिसी पर भी दबाव नहीं डालता, क्योंकि स्वतन्त्र स्वतः स्फूर्तता बहुत मूल्यवान् है। सहयोग के लिए मनुष्य को मनाया जाना है, उस पर दबाव नहीं डाला जाना; उसको आकृष्ट किया जाना है, हांका नहीं जाना; उसे मनाकर तैयार किया जाना है, विवश नहीं किया जाना। भगवान् अपना आदेश ऊपर से नहीं थोप देता। परमात्मा की पुकार को स्वीकार करने के लिए या अस्वीकार कर देने के लिए हम हर समय स्वतन्त्र हैं। एकत्व स्थापित करने वाला आत्मसमर्पण साधक की पूर्णतम सहमति से किया जाना चाहिए। परमात्मा हमारे बदले आरोहण का काम नहीं करता, हालांकि यदि हम लड़खड़ाने लगें, तो वह हमें धीरज बंधाता है। वह तब तक धैर्य से प्रतीक्षा करने को तैयार है, जब तक हम उसकी ओर अभिमुख न हों।
 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एक ऊंघते हुंए बनने वाले की भांति, जिसकी उंगलियां दक्षतायुक्त लापरवाही से खेलती रहती हैं, संकल्प-शक्ति ने एक अनमने भाव से बुनना शुरू किया है, तब से, जब जीवन पहले-पहल शुरू हुआ था, और वह सदा इसी प्रकार बुनती रहेगी।
  2. त्वां विहाय न शक्नोमि जीवितं क्षणमेव हि। अन्तर्बहिश्च नित्यं त्वं सत्यरूपेण वर्तसे।।
  3. तुलना कीजिए, महाभारत, 12, 141, 102 तस्मात् कौन्तेय विदुषा धर्माधर्मविनिश्चये। बुद्धिमास्थाय लोकेस्मिन् वर्तितव्यं कृतात्मना।।

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