भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-54

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20. योग-त्रयी

 
9. धार्यमाणं मनो यर्हि भ्राम्यदाश्वनवस्थितम्।
अतंद्रितोऽनुरोधेन मार्गेणात्म-वशं नयेत्।।
अर्थः
इस प्रकार दृढ़ रूप से निश्चल करते करते मन यदि पुनः शीघ्र चंचल होकरर भटकने लगे, तो सावधानी से उसे सँवारकर, समझा-बुझाकर, पुचका कर अपने वश में कर ले।
 
10. मनो-गतिं न विसृजेत् जित-प्राणो जितेंद्रियः।
सत्व-संपन्नया बुद्धया मन आत्म-वशं नयेत्।।
अर्थः
मन की लगाम न छूटने दें, इंद्रियों और प्राणों को जीत लें और सत्वगुणसंपन्न बुद्धि से मन को अपने वश में लाएं।
 
11. ऐष वै परमो योगो मनसः संग्रहः स्मृतः।
हृदयज्ञत्वमन्विच्छन् दम्यस्येवार्वतो मुहुः।।
अर्थः
नियंत्रण में लाये योग्य खुराफाती घोड़े के अंतःकरण की वृत्ति किस तरह जानी जाए, इस ओर ध्यान देनेवाला पुरुष जिस तरह उसे सतत अपने वश कर लेता है, उसी तरह मन को अपने वश में करना भी वस्तुतः परम योग है, ऐसा (अनुभवी लोग) कहत हैं।
 
12. सांख्येन सर्व-भावनां प्रतिलोमानुलोमतः।
भवाप्ययावनुध्यायेत् मनो यावत् प्रसीदति।।
अर्थः
सांख्य-शास्त्र में बतायी हुई अनुलोम-प्रतिलोम प्रक्रियानुसार सभी भावों की उत्पत्ति और नाश का चिंतन करें और यह सब मन प्रसन्न होने तक करते रहें।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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