महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 187 श्लोक 37-55

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सप्ताशीत्यधिकशततम (187) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: सप्ताशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 37-55 का हिन्दी अनुवाद

रथ के विचित्र पैंतरों से विचरने वाले तथा विचित्र युद्ध करने वाले उन महारथियों का विचित्र रथों से व्याप्त वह विचित्र युद्ध वहाँ सब रथी दर्शक की भाँति देखने लगे। एक दूसरे को जीतने की इच्छा वाले वे वीर योद्धा प्रयत्नपूर्वक पराक्रम में तत्पर हो वर्षाकाल के मेघों की भाँति बाणरूपी जल की वर्षा कर रहे थे। सूर्य के समान तेजस्वी रथों पर बैठे हुए वे पुरूषप्रवर योद्धा चन्चल चपलाओं की चमक से युक्त शरत्काल के मेघों की भाँति शोभा पा रहे थे। महाराज! क्रोध और अमर्ष में भरे हुए वे परस्पर स्पर्धा रखने वाले, विजय के लिये प्रयत्नशील और विशाल धनुष धारण करने वाले धनुर्धर योद्धा मतवाले गजराजों के समान एक दूसरे से जूझ रहे थे। राजन्! निश्चय ही अन्तकाल आये बिना किसी के शरीर का नाश नहीं होता है, तभी तो उस संग्राम में क्षत-विक्षत हुए वे समस्त महारथी एक साथ ही नष्ट नहीं हो गये। उस समय योद्धाओं के कटे हुए हाथ, पैर, कुण्डल-मण्डित मस्तक, धनुष, बाण, प्रास, खडग, परशु, पट्टिश, नालीक, छोटे नाराच, नखर, शक्ति, तोमर, अन्यायन्य नाना प्रकार के साथ किये हुए उत्तम आयुध, भाँति-भाँति के विचित्र कवच, टूटे हुए विचित्र रथ तथा मरे गये हाथी, घोड़े, इधर-उधर पड़े थे। वायु के समान वेगशाली, सारथिशून्य, भयभीत घोड़े जिन्हें बारंबार इधर-उधर खींच रहे थे, जिनके रथी योद्धा और ध्वज नष्ट हो गये थे, ऐसे नगराकार सुनसान रथ भी वहाँ दृष्टिगोचर हो रहे थे। आभूषणों से विभूषित वीरों के मृत शरीर यत्र-तत्र गिरे हुए थे, काटकर गिराये हुए व्यजन, कवच, ध्वज छत्र, आभूषण, वस्त्र, सुगन्धित फूलों के हार, रत्नों के हार, किरीट, मुकुट, पगड़ी, किंकिणी समूह, छाती पर धारण की जाने वाली मणि, सोने के निष्क और चूड़ामणि आदि वस्तुएँ भी इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं। इन सबसे भरा हुआ वह युद्धस्थल वहाँ नक्षत्रों सेव्याप्त आकाश के समान सुशोभित हो रहा था। इसी समय क्रुद्ध और असहिष्णु दुर्योधन का रोष और अमर्ष से भरे हुए नकुल के साथ युद्ध आरम्भ हुआ। माद्री पुत्र नकुल ने आपके पुत्र दुर्योधन को दाहिने कर दिया और हर्ष में भरकर उस पर सैकड़ों बाणों की झड़ी लगा दी, फिर तो वहाँ महान् कोलाहल हुआ। अमर्षशील शत्रु के द्वारा युद्धस्थल में अपने आपको दाहिने किया हुआ देख दुर्योधन इसे सहन न कर सका। महाराज! फिर आपके पुत्र राजा दुर्योधन ने भी तुरंत ही रणभूमि में नकुल को भी अपने दाहिने ला देने का प्रयत्न किया। तेजस्वी नकुल युद्ध की विचित्र प्रणालियों के ज्ञाता थे। उन्होंने यह देखकर कि धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन मुझे दाहिने लाने की चेष्टा कर रहा है, उसे सहसा रोक दिया। नकुल ने दुर्योधन को अपने बाणसमूहों द्वारा पीडि़त करते हुए उसे सब ओर से रोककर युद्ध से विमुख कर दिया। उनके इस पराक्रम की समस्त सैनिक सराहना करने लगे। उस समय आपकी कुमन्त्रणा तथा अपने को प्राप्त हुए सम्पूर्ण दुःखों को स्मरण करके नकुल ने आपके पुत्र को ललकारते हुए कहा- ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत द्रोणवधपर्व में नकुल का युद्ध विषयक एक सौ सतासीवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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