महाभारत वन पर्व अध्याय 167 श्लोक 1-23

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सप्तषष्टयधिकशततम (167) अध्‍याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: सप्तषष्टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुनके द्वारा अपनी तपस्या-यात्राके वृतान्तका वर्णन, भगवान् शिवके साथ संग्राम और पाशुपतास्त्र प्राप्ति की कथा

वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! देवराज इन्द्रके चले जानेपर भाइयों तथा द्रौपदीके साथ मिलकर अर्जुनने धर्मपुत्र युधिष्ठिरको प्रणाम किया। पाण्डुनन्दन अर्जुनको प्रणाम करते देख युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न हुए एवं उनका मस्तक सूंघकर हर्षगर्दद वाणी में इस प्रकार बोले-'अर्जुन! स्वर्गमें तुम्हारा यह समय किस प्रकार बीता ? कैसे तुमने दिव्यास्त्र प्राप्त किये और कैसे देवराज इन्द्रको संतुष्ट किया ? 'पाण्डुनन्दन! क्या तुमने सभी अस्त्र अच्छी तरह सीख लिये ? क्या देवराज इन्द्र अथवा भगवान् रूद्रने प्रसन्न होकर तुम्हें अस्त्र प्रदान किये हैं ? 'शत्रुदमन! तुमने जिस प्रकार देवराज इन्द्रका दर्शन किया है अथवा जैसे पिनाकधारी भगवान् शिवको देखा है, जिस प्रकार तुमने सब अस्त्रोंकी शिक्षा प्राप्त की है और जैसे तुम्हारेद्वारा देवाराधनका कार्य सम्पादित हुआ है, वह सब बताओं। भगवान् इन्द्रने अभी-अभी कहा था कि 'अर्जुनने मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न किया है' सो वह उनका कौनसा प्रिय कार्य था, जिसे तुमने सम्पन्न किया है ? 'महातेजस्वी वीर! मैं ये सब बातें विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूं। शत्रुओंका दमन करनेवाले निष्पाप अर्जुन! जिस प्रकार तुम्हारे ऊपर महादेवजी तथा देवराज इन्द्र संतुष्ट हुए और वज्रधारी इन्द्रका जो प्रिय कार्य तुमने सम्पन्न किया है, वह सब पूर्णरूपसे बताओं'। अर्जुन बोले-महाराज! मैंने जिस विधिसे देवराज इन्द्र तथा भगवान् शंकरका दर्शन किया था; वह सब बतलाता हूं, सुनिये! शत्रुओंका मर्दन करनेवाले नरेश! आपकी बतायी हुई विद्याको ग्रहण करके आपहीके आदेशसे मैं तपस्या करनेके लिये वनकी ओर प्रस्थित हुआ। काम्यक वनसे चलकर तपस्यामें पूरी आशा रखकर मैं भृगुतुंग पर्वतपर पहुंचा और वहां एक रात रहकर जब आगे बढ़ा, तब मार्गमें किसी ब्राह्मणदेवताका मुझे दर्शन हुआ। उन्होंने मुझसे कहा- 'कुन्तीनन्दन! कहां जाते हो ? मुझे ठीक-ठीक बताओं। 'कुरूनन्दन! तब मैंने उनसे सब कुछ सच बता दिया। नृपश्रेष्ठ! ब्राह्मणदेवताने मेरी यथार्थ बातें सुनकर मेरी प्रशंसा की और मुझपर बड़े प्रसन्न हुए। तत्पश्चात् उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक कहा-'भारत! तुम तपस्याका आश्रय लो! तपमैं प्रवृत होनेपर तुम्हें शीघ्र ही देवराज इन्द्रका दर्शन होगा। महाराज! उनके इस आदेशको मानकर मैं हिमालय पर्वतपर आरूढ़ा हो तपस्यामें संलग्न हो गया और एकमासतक केवल फल-फूल खाकर रहा। इसी प्रकार मैंने दूसरा महीना भी केवल जल पीकर बिताया। पाण्डवनन्दन! तीसरे महीनेमें मैं पूर्णतः निराहार रहा । चौथे महीनेमें मैं उपर को हाथ उठाये खड़ा रहा। इतनेपर भी मेरा बल क्षीण नहीं हुआ, यह एक आश्रर्यकीसी बात हुई। पांचवां महीना आरम्भ होनेपर जब एक दिन बीत गया तब दूसरे दिन एक शूकररूपधारी जीव मेरे निकट आया। वह अपनी थूथूनसे पृथ्वीपर चोट करता और पैरोंसे धरती खोदता था। बार-बार लेटकर वह अपने पेटसे वहांकी भूमिको ऐसी स्वच्छ कर देता था, मानो उसपर झाड़ दिया गया हो। उसके पीछे किरात-जैसी आकृतिमें एक महान् पुरूषका दर्शन किया। उसने धनुष बाण और खंग ले रखे थे। उसके साथ स्त्रीयोंका एक समुदाय भी था। तब मैंने धनुष तथा अक्षय तरकस लेकर एक बाणके द्वारा उस रोमांचकारी सूकरपर आघात किया। साथ ही किरातने भी अपने सुदृढ़ धनुषको खींचकर उसपर गहरी चोट की, जिससे मेरा हद्य कम्पित सा हो उठा। राजन्! फिर वह किरात मुझसे बोला-'यह सूअर तो पहले मेरा निशाना बन चुका था, फिर तुमने आखेटके नियमको छोड़कर उसपर प्रहार क्यों किया ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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