महाभारत वन पर्व अध्याय 34 श्लोक 1-12

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चतुस्त्रिंश (34) अध्‍याय: वन पर्व (अर्जुनाभिगमन पर्व)

महाभारत: वन पर्व: चतुस्त्रिंश अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

धर्म और निति की बात कहते हुए युधिष्ठिर की अपनी प्रतिज्ञा के पालनरूप धर्म पर ही डटे रहने की घोषणा

संजय कहते हैं-जनमेजय् ! भीमसेन जब इस प्रकार अपनी बात पूरी कर चुके, तब महानुभाव, सत्यप्रतिज्ञ एवं अजातशत्रु राजा युधिष्ठिर ने धैयपूर्वक उनसे यह बात कही-युधिष्ठिर बोले-भरतकुलनन्दन ! तुम मुझे पीड़ा देते हुए अपने वाग्बाणों द्वारा मेरे हृदय को जो विदीर्ण कर रहे हो, यह निःसंदेह ठीक ही है। मेरे प्रतिकूल होने पर भी इन बातों के लिये मैं तुम्हारी निंदा नहीं करता; क्योंकि मेरे ही अन्याय से तुमलोगांे पर यह विपत्ति आयी है। उन दिनों धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन के हाथ से उसके राष्ट्र तथा राजपद का अपहरण करने की इच्छा रखकर ही मैं द्यूतक्रीड़ा में प्रवृत्त हुआ था; किंतु उस समय धूर्त जुआरी सुबलपुत्र शकुनि दुर्योधन के लिये उसकी ओर से मेरे विपक्ष में आकर जूआ खेलने लगा। भीमसेन ! पर्वतीय प्रदेश का निवासी शकुनि बड़ा मायावी है। उसने द्यूतसभा में पासे फेंककर अपनी मायाद्वारा मुझे जीत लिया; क्योंकि मैं माया नहीं जानता था; इसीलिये मुझे यह संकट देखना पड़ा है। शकुनि के सम और विषम सभी पासों को उसकी इच्छा के अनुसार ही ठीक-ठीक पड़ते देखकर यदि अपने मन को जूए की ओर से रोका जा सकता, तो यह अनर्थ न होता, परन्तु क्रोधावेश मनुष्य के धैर्य को नष्ट कर देता है (इसीलिये मैं जूए से अलग न हो सका)। तात भीमसेन ! किसी विषय में आसक्त हुए चित्त को पुरूषार्थ, अभिमान अथवा पराक्रम से नहीं रोका जा सकता (अर्थात् उसे रोकना बहुत ही कठिन है), अतः मैं तुम्हारी बातों के लिये बुरा नहीं मानता। मैं समझता हूं, वैसी ही भवितव्यता थी। भीमसेन ! धृतराष्ट्र के पुत्र राजा दुर्योधन ने राज्य पाने की इच्छा से हमलोगों को विपत्ति में डाल दिया। हमें दासतक बना लिया था, किंतु उस समय द्रौपदी हमलोगों की रक्षक हुई। तुम और अर्जुन दोनों इस बात को जानते हो कि जब हम पुनः द्यूत के लिये बुलाये जाने पर उस सभा में आये तो उस समय समस्त भरतवंशियों के समक्ष धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन ने मुझसे एक ही दांव लगाने के लिये इस प्रकार कहा-‘राजकुमार अजातशत्रो ! (यदि आप हार जाय तो) आपको बारह वषोंतक इच्छानुसार सबकी जानकारी में और पुनः एक वर्षतक गुप्त वेष में छिपे रहकर अपने भाईयों के साथ वन में निवास करना पड़ेगा। ‘कुन्तीकुमार ! यदि भरतवंशियों के गुप्तचर आपके गुप्त निवास समाचार सुनकर पता लगाने लगें और उन्हें यह मालूम हो जाय कि आपलोग अमुक जगह अमुक रूप में रह रहे हैं, तब आपको पुनः उतने (बारह) ही वर्षोतक बन में रहना पडे़गा। इस बात को निश्चय करके इसके विषय में प्रतिज्ञा कीजिये। भरतवंशी नरेश ! यदि आप सावधान रहकर इतने समय तक मेरे गुप्तचरों को मोति करके अज्ञातभाव से ही विचरते रहें तो मैं यहां कौरवों की सभा में यह सत्य प्रतिज्ञा करता हूं कि उस सारे पंचनदप्रदेश पर फिर तुम्हारा ही अधिकार होगा। ‘भारत ! यदि आपने ही हम सब लोगों को जीत लिया तो हम भी उतने ही समय तक सोर भोगों का परित्याग करके उसी प्रकार वास करेंगे।’ राजा दुर्योधन ने जब समस्त कौरवों के बीच इस प्रकार कहा, तब मैंने भी ‘तथास्तु’ कहकर उसकी बात मान ली।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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