महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 107 श्लोक 1-15

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सप्ताधिकशततम (107) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: सप्ताधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति

युधिष्ठिर ने कहा- परंतप भरतनन्दन! आपने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्रों के धर्ममय आचार, धन, जीविका के उपाय तथा धर्म आदि के फल बताये हैं। राजाओं के धन, कोश, कोश-संग्रह, शत्रुविजय, मन्त्री के गुण और व्यवहार, प्रजा वर्ग की उन्नती, संधि-विग्रह आदि छः गुणों के प्रयोग, सेना के बर्ताव, दुष्टों की पहचान, सत्पुरूषों के लक्षण, जो अपने समान, अपने से हीन तथा अपने से उत्कृष्ट हैं- उन सब लोगों के यथावत् लक्षण, मध्यम वर्ग को संतुष्ट रखने के लिये उन्नतिशील राजा को कैसे रहना चाहिये - इसका निर्देश, दुर्बल पुरूष को अपनाने और उसके लिये जीविका की व्यवस्था करने की आवश्यकता- इन सब विषयों का देशाचार और शास्त्र के अनुसार संक्षेप में धर्म के अनुकूल प्रतिपादन किया है। बुद्धिमानों में क्षेष्ठ पितामाह! आपने विजया-भिलाषी राजा के बर्ताव का भी वर्णन कर दिया है। अब मैं गणों(गणतन्त्र राज्यों)- का बर्ताव एवं वृतान्त सुनना चाहता हुँ। भारत! गणतन्त्र-राज्यों की जनता जिस प्रकार अपनी उन्नति करती है, जिस प्रकार आपस में मतभेद या फूट नहीं होने देती, जिस तरह शत्रुओ पर विजय पाना चाहती है और जिस उपाय से उसे सुहृदों की प्राप्ति होती है-ये सारी बातें सनने के लिये मेरी बड़ी इच्छा है। मैं देखता हूँ, संघबद्ध राज्यों के विनाश का मूल कारण है आपसी फूट। मेरा विश्वास है कि बहुत- ये मनुष्यों के जो समुदाय हैं,उनके लिये किसी गुप्त मन्त्रणा या विचार को छिपाये रखना बहुत ही कठिन है। ‘परंपत राजन् इन सारी बातों को मैं पूर्ण रूप से सुनना चाहता हूँ। किस प्रकार वे संघ या गण आपस में फूटते नहीं हैं,यह मुझे बताइये। भीष्म जी ने कहा-भरत श्रेष्ठ! नरेश्वर! गणों में, कुलो में तथा राजाओं में वैर की आग प्रज्वलित करने वाले ये दो ही दोष हैं-लोभ और अमर्ष। पहले एक मनुष्य लोभ का वरण करता है (लोभवश दूसरे का धन लेना चाहता है), तदनन्तर दूसरे के मन में अमर्ष पैदा होता है; फिर वे दोनों लोभ और अमर्षं से प्रभावित हुए व्यक्ति समुदाय, धन और जन की बड़ी भारी हानि उठाकर एक-दूसरे के विनाशक बन जाते हैं। वे भेद लेने के लिये गुप्तचरों को भेजते हैं, गुप्त मन्त्रणाएँ करते तथा सेना एकत्र करने में लग जाते हैं। साम, दाम और भेदनीति के प्रयोग करते हैं, तथा जन-संहार, अपार धनराशि के व्यय एवं अनेक प्रकार के भय उपस्थित करने वाले विविध उपायों द्वारा एक-दूसरे को दुर्बल कर देते हैं। संघबद्ध होकर जीवन-निर्वाह करने वाले गणराज्य के सैनिकों को भी यदि समय पर भोजन और वेतन न मिले तो भी वे फूट जाते हैं। फूट जाने पर सबके मन एक-दूसरे के विपरीत हो जाते हैं और वे सबके सब भय के कारण शत्रुओं के अधीन हो जाते है। आपस में फूट होने से ही संघ या गणराज्य नष्ट हुए हैं। फूट होने पर शत्रु उन्हें अनायास ही जीत लेते हैं; अतः गणों को चाहिये कि वे सदा संघबद्ध-एकमत होकर ही विजय के लिये प्रयत्न करें। जो सामूहिक बल और पुरूषार्थं से सम्पन्न हैं, उन्हें अनायास ही सब प्रकार के अभीष्ट पदार्थों की प्राप्ति हो जाती है। संघबद्ध होकर जीवन-निर्वाह करने वाले लोगों के साथ संघ से बाहर के लोग भी मैत्री स्थापित करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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