महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 174 श्लोक 58-63

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १४:२१, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

चतुसप्‍तत्‍यधिकशततम (174) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 58-63 का हिन्दी अनुवाद

पिङग्‍ला बोली- मेरे सच्‍चे प्रियतम चिरकाल से मेरे निकट ही रहते हैं। मैं सदा से उनके साथ ही रहती आयी हूं। वे कभी उन्‍मत नहीं होते, परंतु मैं ऐसी मतवाली हो गयी थी कि आज से पहले उन्‍हें पहचान ही न सकी। जिसमें एक ही खंभा और नौ दरवाजे हैं, उस शरीर रूपी घर को आज से मैं दूसरों के लिये बंद कर दूंगी। यहां आने वाले उस सच्‍चे प्रियतम को जानकर भी कौन नारी किसी हाड़–मांस के पुतले को अपना प्राणवल्‍लभ मोनेगी? अब मैं मो‍हनिद्रास से जग गयी हूं और निरंतर सजग हूं- कामनाओं का भी त्‍याग कर चुकी हूं। अत: वे नरकरूपी धूर्त मनुष्‍य काम का रूप धारण करके अब मुझे धोखा नहीं दे सकेंगे। भाग्‍य से अथवा पूर्वकृत शुभकर्मों के प्रभाव से कभी–कभी अनर्थ भी अर्थरूप हो जाता है, जिससे आज निराश होकर मैं उत्‍तम ज्ञान से सम्‍पन्‍न हो गयी हूं। अब मैं अजितेन्द्रिय नहीं रही हूं। वास्‍तव में जिसे किसी प्रकार की आशा नहीं है, वही सुख से सोता है। आश का न होना ही परम सुख है। देखो, आशा को निराश के रूप में परिणत करके पिंग्ला सुख की नींद सोने लगी। भीष्‍म जी कहते हैं-राजन्! ब्राह्मण के कहे हुए इन पूर्वोक्‍त तथा अन्‍य युक्तियुक्‍त वचनों से राजा सुनजित् का चित स्थिर हो गया। वे शोक छोड़कर सुखी हो गये और प्रसन्‍नतापूर्वक रहने लगे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्व के अंतर्गत मोक्षधर्मपर्व में ब्राह्मण और सेनजित् के संवाद का कथनविषयक एक सौ चौहतरवां अध्‍याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।