महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 199 श्लोक 52-67

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नवनवत्‍यधिकशततम (199) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: नवनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 52-67 का हिन्दी अनुवाद

ब्राह्राण ने कहा – राजन् ! इस जप का फल क्‍या मिलेगा ? इसको मैं नहीं जानता; परंतु मैंने जो कुछ जप किया था, वह सब आपको दे दिया । ये धर्म, यम, मृत्‍यु और काल इस बात के साक्षी हैं। राजा ने कहा – ब्रह्रान् ! य‍दि आप मुझे अपने जपजनित धर्म का फल नहीं बता रहे हैं तो इस धर्म का अज्ञात फल मेरे किस काम आयेगा ? वह सारा फल आप ही के पास रहे । मैं संदिग्‍ध फल नहीं चाहता। ब्राह्राण ने कहा-राजर्षे ! अब तो मैं अपने जप का फल दे चुका; अत: दूसरी कोई बात नहीं स्‍वीकार करूँगा । इस विषय में आज मेरी और आपकी बातें ही प्रमाणस्‍वरूप हैं (हम दोनों को अपनी-अपनी बातों पर दृढ़ रहना चाहिये)। राजसिंह ! मैंने जप करते समय कभी फल की कामना नहीं की थी; अत: इस जप का क्‍या फल होगा,यह कैसे जान सकॅूगा ? आपने कहा था कि ‘दीजिये’ और मैंने कहा था कि ‘दॅूगा’ –ऐसी दशामें मैं अपनी बात झूठी नहीं करूँगा । आप सत्‍य की रक्षा कीजिये और इसके लिये सुस्थिर हो जाइये। राजन् ! यदि इस तरह स्‍पष्‍ट बात करनेपर भी आप आज मेरे वचन का पालन नहीं करेंगे तो आपको असत्‍य का महान् पाप लगेगा। शत्रुदमन नरेश ! आपके लिये भी झूठ बोलना उचित नहीं है और मैं भी अपनी कही हुई बात को मिथ्‍या नहीं कर सकता। मैंने बिना कुछ सोच-विचार किये ही पहले देने की प्रतिज्ञा कर ली है; अत: आप भी बिना विचारे मेरा दिया हुआ जप ग्रहण करें। यदि आप सत्‍यपर दृढ़ हैं तो आपको ऐसा अवश्‍य करना चाहिये। राजन् ! आपने स्‍वयं यहॉ आकर मुझसे जप के फल की याचना की है और मैंने उसे आपके लिये दे दिया है अत: आप उसे ग्रहण करें और सत्‍यपर डटे रहें। जो झूठ बोलनेवाला हैं, उस मनुष्‍य को न इस लोक में सुख मिलता है और न परलोक में ही । वह अपने पूर्वजों को भी नहीं तार सकता; फिर भविष्‍य में होनेवाली संततिका उद्धार तो कर ही कैसे सकता है ? पुरूषश्रेष्‍ठ ! परलोक में सत्‍य जिस पकार जीवों का उद्धार करता है, उस प्रकार यज्ञ, वेदाध्‍ययन, दान और नियम भी नहीं तार सकते हैं। लोगों ने अब तक जितनी तपस्‍याऍ की हैं और भविष्‍य में भी जितनी करेंगे, उन सबको सौगुना या लाखगुना करके एकत्र किया जाए जो भी उनका महत्‍व सत्‍य से बढ़कर नही सिद्ध होगा। सत्‍य ही एकमात्र अविनाशी ब्रह्रा है । सत्‍य ही एकमात्र अक्षय तप है, सत्‍य ही एकमात्र अविनाशी यज्ञ है, सत्‍य ही एकमात्र नाशरहित सनातन वेद है। वेदों में सत्‍य ही जागता हैं – उसी की महिमा बतायी गयी है । सत्‍य का ही सबसे श्रेष्‍ठ फल माना गया है । धर्म और इन्द्रिय –संयम की सिद्धि भी सत्‍य से ही होती है । सत्‍य के ही आधार पर सब कुछ टिका हुआ है। सत्‍य ही वेद और वेदांग है । सत्‍य ही विद्या तथा विधि है। सत्‍य ही व्रतचर्या तथा सत्‍य ही ओंकार है। सत्‍य प्राणियों को जन्‍म देनेवाल (पिता) है, सत्‍य ही संतति है, सत्‍य से ही वायु चलती है और सत्‍य से ही सूर्य तपता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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