महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 8

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित १३:००, २४ जुलाई २०१५ का अवतरण ('==अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)== <...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 8 का हिन्दी अनुवाद

देवता बोले- इस वर के प्रभाव से वह असुर हम लोगों को बहुत कष्ट देगा, अत: आप प्रसन्न होइये ओर उसके वध का कोई उपाय सोचिये। क्योंकि आप ही सम्पूर्ण भूतों के आदि स्त्रष्टा, स्वयम्भू, सर्वव्यापी, हव्य-कव्य से निर्माता तथा अव्यक्त प्रकृति और ध्रुवस्वरूप हैं। भीष्म कहते हैं- युधिष्ठिर देवताओं का यह लोकहितकारी वचन सुनकर दिव्यशक्तिसम्पन्न भगवान प्रजापति ने उन सब देवगणों से इस प्रकार कहा। ब्रह्माजी ने कहा- देवताओं! उस असुर को अपनी तपस्या का फल अवश्य प्राप्त होगा। फल भोग के द्वारा जब तपस्या की समाप्ति हो जायगी, तब भगवान विष्णु स्वयं ही उसका वध करेंगे। भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर ब्रह्माजी के द्वारा इस प्रकार उसके वध की बात सुनकर सब देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने दिव्य धाम को चले गये। दैत्य हिरण्यकशिपु ब्रह्माजी का वर पाते ही समस्त प्रजा को कष्ट पहुँचाने लगा। वरदान से उसका घमण्ड बहुत बढ़ गया था। वह दैत्यों का राजा होकर राज्य भोगने लगा। झुड के झुंड दैत्य उसे घेरे रहते थे। उसने सातों द्वीपों और अनेक लोक कलोकान्तरों को बलपूर्वक अपने वश में कर लिया। उस महान् असुर ने तीनों लोकों में रहने वाले समस्त देवताओं को जीतकर सम्पूर्ण दिव्य लोकों और वहाँ के दिव्य भोगों पर अधिकार प्राप्त कर लिया। इस प्रकार तीनों लोगों को अपनी अधीन करके वह दैत्य स्वर्ग लोक में निवा करने लगा। वरदान के मद से उन्मत्त हो दानव हिरण्यकशिपु देवलोक का निवासी बन बैठा। तदनन्तर वह महान असुर अन्य समस्त लोकों को जीत कर यह सोचने लगा कि मैं ही इन्द्र हो जाऊँ, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, सूर्य, जल, आकाश, नक्षत्र, दसों दिशाएँ, क्रोध, काम, वरुण, वसुगण, अर्यमा, धन देने वाले धनाध्यक्ष, यक्ष और किम्पुरुषों का स्वामी- ये सब मैं ही हो जाऊँ। ऐसा सोचकर उसने स्वयं ही बलपूर्वक उन-उन पदों पर अधिकार जमा लिया। उनके स्थान ग्रहण करके उन सबके कार्य वह स्वयं देखने लगा। उत्तम देवषिगण श्रेष्ठ यज्ञों द्वारा जिन देवताओं का यजन करते थे, उन सबके स्थान पर वह स्वयं ही यज्ञभाग का अधिकारी बन बैठा। नरक में पड़े हुए सब जीवों को वहाँ से निकालकर उसने स्वर्ग का निवासी बना दिया। बलवान दैत्यराज ने ये सब कार्य करके मुनियों के आश्रमों पर धावा किया और कठोर व्रत का पालन करने वाले सत्यधर्म परायण एवं जितेन्द्रिय महाभाग मुनियों को सताना आरम्भ किया। उसने दैत्यों को यज्ञ का अधिकारी बनाया और देवताओं को उस किधकार से वन्चित कर दिया। जहाँ-जहाँ देवता जाते थे, वहाँ-वहाँ वह उनका पीछा करता था। देवताओं के सारे स्थान हड़पकर वह स्वयं ही त्रिलोकी के राज्य का पालन करने लगा। उस दुरात्मा के राज्य करते पाँच करोड़ इकसठ लाख साठ हजार वर्ष व्यतीत हो गये। इतने वर्षो तक दैत्यराज हिरण्यकशिपु ने दिव्य भोगों और ऐश्वर्य का उपभोग किया। महाबली दैत्यराज हिरण्यकशिपु के द्वारा अत्यन्त पीड़ित हो इन्द्र आदि सब देवता ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्माजी के पास पहुँचकर खेदग्रस्त हो हाथ जोड़कर बोले। देवताओं ने कहा- भूत, वर्तमान और भविष्य के स्वामी भगवान पितामह! हम यहाँ आपकी शरण में आये हैं। आप हमारी रक्षा कीजिये। अब हमें उस दैतय से दिन रात घोर भय की प्राप्ति हो रही है। भगवन! आप सम्पूर्ण भूतों के आदिस्त्रष्टा, स्वयम्भू, सर्वव्यापी, हव्य कव्यों के निर्माता, अव्यक्त प्रकृति एवं नितय स्वरूप हैं।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।