अंतर्राष्ट्रीय विवाचन
अंतर्राष्ट्रीय विवाचन
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 42,43 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | श्री कृष्ण अग्रवाल। |
अंतर्राष्ट्रीय विवाचन जब किन्हीं दो राज्यों के विवादग्रस्त मामलों का निपटारा पंच निर्णय द्वारा होता है तब उसको अंतरराष्ट्रीय विवाचन कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय विवाद तीन अन्य प्रकार से भी निपटाया जा सकता है-
(1) आपसी समझौते से।
(2) किसी तीसरे व्यक्ति की सहायता से।
(3) मध्यस्थता द्वारा।
इतिहास
प्राचीन यूनान के नगर राज्यों के आपसी संबंधों में मध्य निर्णय का विशेष महत्व था। हमें ज्ञात है कि वहाँ सात शताब्दियों के भीतर इस प्रकार अस्सी से अधिक महत्वपूर्ण पंच निर्णय हुए। मध्य युग में भी विवाचन के उदाहरण हमें बराबर मिलते हैं। परंतु विवाचन का प्रचलन विशेषत १८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ। सन् १७९४ ई. में संयुक्त राज्य अमेरिका और ग्रेट ब्रिटेन के मध्य एक संधि हुई जो जे संधि के नाम से प्रसिद्ध है। उस समय से शांतिपूर्वक निपटारे की भावना निरंतर प्रगति करती गई, यद्यपि अनेकानेक बाधाएँ भी आईं। सन् १७९४ तथा १९१३ ई. के बीच दो सौ से अधिक पंचाट हुए जिनमें सन् १८७२ का अलबामा पंचाट मुख्यत उल्लेखनीय है।
प्रारंभ में विवाचन पक्षों की इच्छा पर निर्भर करता था। किसी विवादग्रस्त मामले में विभिन्न पक्षों द्वारा स्वेच्छापूर्वक किए गए प्रसंविदा पर ही विवाचन आधारित होता था। बाद में यह प्रयास हुआ कि विवाचन अनिवार्य कर दिया जाए और पसंदीदा इस प्रकार का हो जिसके अंतर्गत विभिन्न पक्ष भविष्य में होने वाले विवादों का निपटारा विवाचन द्वारा कराने के लिए बाध्य हों। साथ ही यह भी प्रयत्न हुआ कि पहले की अनेक व्यक्तिगत संधियों को हटाकर एक व्यापक सामूहिक संधि हो जो सभी व्यक्तिगत संधियों का स्थान ग्रहण कर लें। सन् १८९९ तथा १९०७ ई. के हेग सम्मेलनों में इस दिशा में प्रयत्न हुए। सन् १८९९ ई. के अभिसमय का प्रयोजन था कि समस्त अंतरराष्ट्रीय विवादों का निपटारा मैत्रीपूर्ण ढंग से हो और इस कार्य के निमित्त विवाचन न्यायालय की एक स्थायी संस्था स्थापित की जाए जो सभी की पहुँच के भीतर हो। इस अधिसमय में ६१ अनुच्छेदों द्वारा मध्यस्थता, अंतरराष्ट्रीय परिपृच्छा आयोग, स्थायी विवाचन न्यायालय तथा विवाचन प्रक्रिया की व्यवस्था की गई। सन् १९०७ ई. में प्रथम अभिसमय पर पुनर्विचार हुआ और अनुच्छेदों की संख्या ६१ से बढ़ाकर ९६ हो गई। किंतु अनिवार्य विवाचन की योजना असफल रही और प्रथम महायुद्ध ने इस योजना का अंत कर दिया। फिर भी, व्यक्तिगत संधियों द्वारा विवाचन की परंपरा में विकास हुआ और सन् १९०२ से १९३२ ई. तक हेग विवाचन न्यायालय ने बीस पंचाट दिए।
राष्ट्रसंघ (लीग ऑव नेशंस) के अभिसमय में ऐसा कोई नियम नहीं था जिससे सदस्य राज्य अनिवार्य विवाचन के लिए बाध्य हों। अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना से अनिवार्य क्षेत्राधिकार की संभावना का मार्ग प्रशस्त हुआ परंतु वास्तविक रूप में विवाचन से इसका प्रयोजन न था। सन् १९२८ ई. में लीग ऑव नेशंस की जेनरल असेंबली ने अंतर्राष्ट्रीय विवादों का शांतिपूर्वक निपटारा करने के लिए जो संविधि बनाई उसमें केवल राजनीतिक विवादों का विवाचन द्वारा निपटारा अनिवार्य था। सन् १९२९ में अमरीकी राज्यों की एक सामूहिक संधि हुई जिसके द्वारा सर्वांगपूर्ण अमरीकी विवाचन की व्यवस्था की गई। इसके अतिरिक्त विवाचन की संस्था व्यक्तिगत संधियों पर ही आधारित रही।
मध्यस्थ न्यायाधिकरण
प्रारंभ में बहुधा किसी अन्यदेशी राज्य के प्रमुख को विवाचक चुन लिया जाता था। नियमानुसार राज्य प्रमुख को यह अधिकार था कि वह विवाचन कार्य अन्य किसी के सुपुर्द कर दे। परिणाम यह हुआ कि विवाचन कार्य राज्य के अधिकारीगण करते थे और विवाचन में निर्णय वस्तुत कानूनी आधार पर न होकर राजनीति के रँग में रँगी हुई मध्यस्थता का रूप ग्रहण करने लगा। अतएव प्रक्रिया के इस रूप का अंत हो गया।
वर्तमान पद्धति में एक न्यायाधिकरण बना दिया जाता है जिसमें प्रत्येक पक्ष द्वारा चुने गए विचारकों की संख्या बराबर होती है। विवाचकगण मुख्य विवाचक का निर्वाचन करते हैं। न्यायाधिकरण की कार्रवाई मुख्य विवाचक की अध्यक्षता में होती है। मुख्य विवाचक के निर्वाचन में यदि विवाचकों में मतभेद हो जाता है तो निर्वाचन की कार्रवाई विशेष नियमों के अनुसार होती है।
विवाचकों, विशेषकर मुख्य विवाचक, के निर्वाचन में प्राय कठिनाई होती है जिसके कारण विवाचन के निर्देशन में विलंब हो जाता है और कभी-कभी तो निर्देशन हो ही नहीं पाता। इस कठिनाई को दूर करने के लिए सन् १८९९ ई. में स्थायी विवाचन न्यायालय (पर्मानेंट कोर्ट ऑव इंटरनेशनल जस्टिस) की स्थापना हुई। यह न्यायालय वास्तव में उन व्यक्तियों की सूची मात्र है जो विवाचन कार्य के योग्य हैं तथा उसके लिए सहमत हैं। साथ में कुछ नियम बने हुए हैं जिनके अनुसार विभिन्न पक्ष व्यक्तिगत मामलों में उपर्युक्त सूची से विवाचक चुनकर मध्यस्थ न्यायाधिकरण की रचना कर सकते हैं। प्रशासन कार्य के लिए न्यायालय से संलग्न एक कार्यालय तथा स्थायी समिति है। सन् १९२० ई. में स्थायी अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना हुई परंतु विवाचन न्यायालय बना रहा।
विवाचन प्रक्रिया
जब कोई दो राज्य किसी विवाद का विवाचन के निमित्त निर्देशन करते हैं तब निर्देशन का प्रविषय तथा शर्तें संधि पत्र अथवा तदनुरूप अन्य लेख पत्र द्वारा निश्चित हो जाती हैं। यदि संधिपत्र में किसी नियम या सिद्धांत का उल्लेख नहीं होता तो विवाचन की कार्रवाई व्यवहार-विधि-नियमों के अनुसार होती है। सन् १८९९ ई. में प्रक्रिया संबंधी बहुत से नियम बना दिए गए थे परंतु उनका प्रयोग तभी होता है जब संधिपत्र में आवश्यक नियम न लिखे हों। इस प्रकार प्रक्रिया संबंधी सभी बातें पक्षों द्वारा स्वयं निश्चित की जा सकती हैं।
प्रक्रिया के नियम
(क) विवाचन प्रक्रिया दो भागों में विभाजित है-लिखित परिप्रश्न तथा मौखिक कार्रवाई।
(ख) परक्रामण की कार्रवाई नियमित रूप से गुप्त रखी जाती है।
(ग) निजी क्षमता संबंधी प्रश्नों का निर्णय करने की शक्ति न्यायाधिकरण को प्राप्त है।
(घ) न्यायाधिकरण के विमर्श गोपनीय होते हैं।
(ङ) निर्णय बहुमत से होता है।
(च) पंचाट का उद्देश्यपूर्ण होना आवश्यक है।
(छ) पंचाट अंतिम निर्णय है परंतु उससे केवल विवाद वाले पक्ष ही बाध्य होते हैं।
विवाचन तथा कानूनी निर्णय
मध्यस्थ न्यायाधिकरण के निर्णय प्राय कानून के प्रति सम्मान की भावना से प्रेरित नहीं होते जिस प्रकार न्यायालय के निर्णय होते हैं। मध्यस्थ न्यायाधिकरण बहुधा पक्षों को संतुष्ट करने की इच्छा से प्रभावित होते हैं, न कि वस्तुत कानूनी नियमों का पालन करने की उद्भावना से। न्यायाधिकरण के निर्णय में प्राय उन युक्तियों का उल्लेख नहीं होता जिन पर उनके निर्णय आधारित होते हैं और न वे अपने को पूर्ववर्ती दृष्टांत (नजीर) मानने के लिए बाध्य समझते हैं।
दोषपूर्ण विवाचन
जब न्यायाधिकरण निर्देशन में दी गई अधिकार सीमा का उल्लंघन करता है या प्रत्यक्ष रूप से न्याय के विपरीत कार्य करता है अथवा यह सिद्ध हो जाता है कि अमुक पंचाट छल, कपट या भ्रष्टाचार द्वारा प्राप्त किया गया है या पंचाट के निबंध अस्पष्ट हैं, तब विवाचन निर्णय दोषपूर्ण समझा जाता है और उस दिशा में विभिन्न पक्ष उसकी मान्यता देने के लिए बाध्य नहीं होते। सन् १८३१ ई. में हालैंड के सम्राट का पंचाट इस आधार पर अमान्य ठहराया गया था कि उसमें अधिकार सीमा का उल्लंघन हुआ था। इसी प्रकार सन् १९०९ में बोलीविया ने आरजेंटीना के राष्ट्रपति का पंचाट अमान्य ठहराया था।
सं. ग्रं.-जे. डब्ल्यू. गारनर टैगोर लॉ लेक्चर्स, १९२२; रॉस ए टेक्स्ट बुक ऑव इंटरनेशनल लॉ; डब्ल्यू. ई. हाल इंटरनेशनल लॉ। (श्री. अ.)