अकबर, जलालुद्दीन मुहम्मद

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अकबर, जलालुद्दीन मुहम्मद
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 63,64
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1973 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी।

अकबर, जलालुद्दीन मुहम्मद (प्रसिद्ध मुगल सम्राट् अकबर) का जन्म अमरकोट (सिंध) के किले में 15 अक्टूबर, सन्‌ 1542 को हुआ। उसकी माता हमीदाबानू बेगम और पिता हुमायूँ था। कंधार तक तो हुमायूँ उसे ले जा सका किंतु वहीं छोड़कर उसे फारस भागना पड़ा। अकबर काबुल के किले में अपने चाचा कामरान की देखरेख में रहा। हुमायूँ ने फारस से लौटकर कंधार और काबुल जीत लिए। उस समय अकबर तीन वर्ष का था। अकबर को पढ़ने-लिखने का तो नहीं, किंतु सवारी, अस्त्र-शस्त्र चलाने और युद्धकला सीखने का शौक था।

जब हुमायूँ ने भारत पर आक्रमण किया तब अकबर उसके साथ था। पिता की आज्ञा से उसने दो युद्धों में भाग भी लिया। दिल्ली जीतने के छह महीने पश्चात्‌ हुमायूँ अपने पुस्तकालय की सीढ़ी से गिरकर मर गया (जनवरी 20, सन्‌ 1556)। अकबर की आयु केवल तेरह वर्ष चार महीने की थी जब वह अपने शिक्षक बैरम खाँ की सहायता से कलानोर के फौजी पड़ाव में सिंहासन पर बिठाया गया। बैरम खाँ अभिभावक और वकील बनकर अकबर के नाम से शासन करने लगा।

मुगलों का अफगान सेना के नेता हेमू (हेमराज) से भय था। अपने स्वामी आदिल शाह के लिए अनेक युद्ध जीतता हुआ हेमू आगरा पहुँचा। पानीपत के मैदान में उसका मुगलों से युद्ध हुआ। उसके दुभार्भाग्य से सहसा उसकी आँख में तीर लगा जिससे वह मूर्छित हो गया। फलत हारती हुई मुगल सेना को विजय प्राप्त हुई (5 नवंबर, 1556)।

अकबर के सरदार प्रबल थे और शासन की बागडोर बैरम खाँ ने मजबूती से पकड़ रखी थी जिससे वह सर्वेसर्वा हो गया था। अकबर को नाम मात्र के लिए सम्राट कहलाने से संतोष न हुआ। बैरम खाँ से छुटकारा पाने के लिए आगरा से वह दिल्ली चला गया और वहाँ से उसने उसको पदच्युत कर दिया। बैरम ने युद्ध की ठानी किंतु कैद कर लिया गया। अकबर ने उसको क्षमा करके मक्का जाने की अनुमति दे दी।

अकबर के सामने दो विकट समस्याएँ थीं। एक तो उद्दंड सरदारों का दमन, दूसरी राज्य का संवर्धन। पहली समस्या के हल करने में उसे लगभग सात वर्ष लगे। उसने अदहम खाँ को, जिसने अकबर के वजीर की हत्या की थी, प्राणदंड दिया (1562)। इसके बाद उसने सीस्तानी सरदारों का दमन कर उनके नेता ख़ानज़माँ और अब्दुल्ला खाँ को युद्ध में परास्त किया। ख़ानज़माँ तो खेत रहा और अब्दुल्ला का वध कर दिया गया (1567)। प्रबल और उद्दंड सरदारों को दुर्दशा देखकर फिर अकबर का सामना करने का साहस किसी को न हुआ।

यद्यपि सरदारों के दमन में अकबर दत्तचित्त था, फिर भी उसकी सेना राजपूताना और मालवा में कुछ सफलता प्राप्त करती रही। सन्‌ 1561 में मालवा, 1562 में आमेर, 1564 में जोधपुर तक उसकी सेनाएँ बढ़ गई थीं और राजपूताने में आतंक फैल गया। अकबर की नीति राजपूतों को हराकर केवल अपना राज्य बढ़ाना मात्र न थी। वह उनसे मित्रता बढ़ाकर उन्हें अपना तथा साम्राज्य का हितैषी भी बनाना चाहता था। उनको उसने वचन दिया कि यदि वे उसका प्रभुत्व स्वीकार कर लें, साम्राज्य को निश्चित सैनिक सहायता के रूप में उपहार दें, बिना सम्राट की आज्ञा के आपस में न लड़ें और सम्राट की आज्ञा लेकर राजगद्दी पर बैठें तो उनके धर्म, राज्य, शासन विधान, सामाजिक जीवन आदि में वह हस्तक्षेप न करेगा। अपनी उदार नीति के प्रमाणस्वरूप अकबर ने युद्ध के कैदियों को गुलाम बनाने की प्रथा (1562 ई.), तीर्थो पर यात्रियों से कर लेना और हिंदुओं से जिजिया लेना गैर-कानूनी घोषित कर दिया (1563-64 ई.०)।

जयपुर और जोधपुर के राज्यों ने अकबर की शर्तें मान लीं। उन्होंने सम्राट तथा राजकुमारों से अपने घराने की लड़कियाँ देकर वैवाहिक संबंध भी जोड़ लिए। किंतु अधिकांश राजा इस प्रतीक्षा में थे कि मेवाड़ के महाराणा की, जिनका राजपूताने में सबसे अधिक सम्मान था, क्या नीति होती है। महाराणा उदय सिंह ने अकबर की ओर रुख करना तो दूर रहा, इसके अफगान शत्रुओं पर वरद कर रख दिया और सम्राट की अवहेलना की। ऐतिहासिक महत्व के कारण चित्तौड़ के महाराणा राजपूताने पर आधिपत्य अपना जन्मजात अधिकार समझते थे। वे महाराणा कुंभा तथा राणा सांगा के उत्तराधिकारी थे। अकबर भी बाबर का पौत्र होने के कारण अपने को महाराणा या किसी अन्य राज्याधिपति से कम नहीं समझता था। दोनों की लागडाँट बिना युद्ध द्वारा निर्णय के शांत होती न दिखाई दी। अत सन्‌ 1567 में अकबर ने चित्तौड़ तथा रणथंभौर के किलों को घेर लिया। कई महीनों की मारकाट के बाद अकबर ने चित्तौड़ और रणथंभौर के किले सर कर लिए। अकबर का महत्व स्पष्ट हो गया जिससे कालिंजर, मारवाड़ और बीकानेर के राज्यों ने भी उसका प्रभुत्व मान लिया बंगाल के अफगान सुल्तान सुलेमान कर्रानी ने भी उसका नाम खुतबा और सिक्के में रख दिया।

चित्तौड़ पर अधिकार जमने से मालवा पर भी अकबर का पंजा कस गया और गुजरात जाने का रास्ता, जो राजनीतिक और व्यापारिक महत्व रखता था, खुल गया। अकबर के पिता हुमायूँ ने मालवा, गुजरात और बंगाल पर अपना प्रभुत्व एक बार स्थापित किया था। उसी नाते तथा साम्राज्य विस्तार के आदर्श से प्रेरित होकर अकबर ने गुजरात के सरदारों के एक नेता का वहाँ शांतिस्थापन करने का निमंत्रण स्वीकार कर लिया और गुजरात पर चढ़ाई कर दी। बंगाल और बिहार के अफगान शासक ने जब मुगल सीमा पर आक्रमण किया तब उन पर प्रत्याक्रमण करके उन प्रांतों को भी उसने जीत लिया (1572-74)।

साम्राज्य अब इतना बड़ा हो गया था कि उसके संगठन में अकबर को सात-आठ वर्ष लगे। सारे साम्राज्य की इलाही गज से पैमाइश कराके तथा भूमि की उपज को ध्यान रखकर पैदावार का एक-तिहाई लगान निश्चित किया गया। देश के प्रचलित शासन में बहुत कुछ सुधार किए गए। निष्पक्ष और उदार धार्मिक नीति तथा सामाजिक सुधार के लिए देश के प्रमुख धर्मों का अध्ययन किया गया। विविध धर्मों के विद्वानों को इबादतखाने में एकत्रित कर अकबर उनके शास्त्रार्थ सुनता। जहाँ तक संभव हो सका. सब धर्मों को सहानुभूति अथवा सहायता दी गई।

दीन इलाही

अक्बर ने अंत में दीन इलाही नाम की एक संस्था स्थापित की जिसका किसी भी मत का व्यक्ति सदस्य बनाया जा सकता था। इस संस्था के मुख्य सिद्धांत थे--
(1) ईश्वर में दृढ़ विश्वास,
(2) सम्राट की भक्ति,
(4) तथासंभव हत्या या मांस भोजन का त्याग,
(४) स्त्री सहवास में संयम और शुद्धता,
(५) समय-समय पर भोज और दान।
दीक्षित किए हुए सदस्य सम्राट का एक छोटा चित्र अपनी पगड़ी में रखते और आपस में सब मिलते तो अल्लाहो अकबर और उत्तर में जल्लेजलालहू कहकर अभिवादन करते। अकबर की धारणा संभवत यह थी कि उसका मत मानने में किसी धर्मावलंबी की आपत्ति न होनी चाहिए। उसके मत के संबंध में लोगों के विभिन्न विचार थे। कोई उसको नया धर्म प्रवर्त्तक समझता और उसको नीयत पर संदेह करता और कोई उसे जगद्गुरु कहलाने के लिए उत्सुक समझता। सदस्यों को सम्राट स्वयं चुनता और दीक्षित करता। सदस्य बनाने के लिए लोभ, बल प्रयोग, आग्रह अथवा पदोन्नति का उपयोग सम्राट ने कभी नहीं किया।

अकबर ने अरबी और संस्कृत ग्रंथों के, जैसे कुरान, मजमउलबल्दान, भगवद्गीता, महाभारत, अथर्ववेद आदि के सरल फारसी में अनुवाद कराए जिससे हिन्दू मुसलमान लोग एक-दूसरे के धर्म, इतिहास और संस्कृति को समझ सकें। हिंदी को उच्च स्थान देने के लिए उसने कविराज का पद दरबार में प्रचलित किया था। विवाह की आयु अनिवार्यत लड़कियों की 14 वर्ष तथा लड़कों की 16 वर्ष कर दी। जबर्दस्ती तथा डर से सती हो जाने का निषेध करके विधवा विवाह को कानून के अनुकूल घोषित कर दिया।

अकबर की धार्मिक नीति

अकबर की धार्मिक नीति से हिंदू, सिक्ख और उदार मुसलमान तो प्रसन्न थे किंतु कट्टर मुसलमानों में असंतोष और रोष फैला। सेना के संगठन से सैनिकों और जागीरदारों में विरोध की भावना फैली। फलत बंगाल, बिहार और मालवा में विद्रोह की आग भड़क उठी। विद्रोहियों ने अकबर के भाई हकीम को, जो अफगानिस्तान में शासन कर रहा था, आगरे का साम्राज्य लेने के लिए बुलाया। अकबर ने सब कठिनाइयों का धैर्य और वीरता से सामना किया और उन पर पूर्ण विजय पाई। यद्यपि उसे अपने सुधार में कुछ हेरफेर तथा उनकी तीव्र गति को कुछ धीमा करना पड़ा, तथा उसने अपने आदर्शों, नीति और विधानों को कार्यान्वित करने से मुँह न मोड़ा।

अपने भाई मिर्जा हकीम की गतिविधि तथा मध्य एशिया के शासक अब्दुल्ला खाँ उजबक की साम्राज्य विस्तार की नीति के कारँ अकबर ने भारत की पश्चिमी सीमाओं को सदृढ़ बनाने का संकल्प किया। धीरे-धीरे उसने काश्मीर, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान तथा सिंध पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। अंत में मुगल साम्राज्य को सीमा हिंदूकुश की पर्वतमाला निश्चित हो गई।

दक्षिण में भी समस्याएँ उठ खड़ी हुई। पुर्तगालियों का अरब सागर पर प्रभुत्व होने से व्यापार तथा हज यात्रा में भारतवासियों के लिए अनेक असुविधाएँ पैदा हो गईं। उन्होंने एक बार सम्राट की बेगमों की यात्रा में भी अड़चन डाली। इस विदेशी समुद्री शक्ति का तभी दमन हो सकता था जब दक्षिण के राज्य सम्राट का नेतृत्व स्वीकार कर पूरा सहयोग देते। इसके सिवा वे राज्य आपस में लड़ते और धार्मिक झगड़ों में दिलचस्पी लेते, जिससे धार्मिक वातावरण दूषित होता था। अकबर ने उनको समझाने और मिलाने के निष्फल प्रयत्न किए। अंत में युद्ध छिड़ गया जिससे खानदेश और अहमदनगर पर भी कुछ अधिकार स्थापित हो गया।

अकबर जब दक्षिण के युद्ध में लगा हुआ था तब उसे समाचार मिला कि उसका सबसे बड़ा पुत्र सलीम लोगों के बहकाने से विद्रोह कर इलाहाबाद में डटकर राज्य करने लगा है। अकबर दक्षिण से लौटा और संभव था कि बाप बेटे में युद्ध हो जाता, किंतु सलीम का साहस छूट गया और आगरा आकर उसने क्षमा माँग ली (१६०३)। लगभग ५० वर्ष राज करने के अनंतर १६ अक्टूबर, सन्‌ १६०५ को उदर रोग से अकबर की मृत्यु हो गई। अकबर भारत के मुसलमान सम्राटों में सबसे प्रतापी, उदार, गंभीर और दूरदर्शी राज्य निर्माता था।

अकबर का शरीर गठीला और सुडौल था। उसे सवारी, शिकार तथा अस्त्र-शस्त्र-संचालन का शौक था। पहले वह बड़े पैमाने पर सामूहिक शिकार करता जिसमें हजारों शिकारी जानवरों को घेरकर सैकड़ों की संख्या में मार डालते थे। आगे चलकर उसने उस हत्याकांड का परित्याग कर दिया। यद्यपि वह स्वस्थ और बलिष्ठ था तथापि उसके पेट में कभी-कभी शूल उठा करता था। संभव है, अपने विचारों के बदलने के अलावा उदर रोग के कारण भी उसने सुरापान, अफीम सेवन और आहार-विहार को परिमित और नियंत्रित कर दिया हो। दिन में एक ही बार वह स्वल्प भोजन करता और, जहाँ तक हो सकता था, मांस खाने से बचता था।

सेना संचालन और किलों पर घेरा डालकर उन्हें जीतने की कला में वह दक्ष था। कठिन के कठिन समस्या उपस्थित होने पर भी वह घबराता न था और उसके समाधान का ढंग निकाल लेता था। किसी काम में वह तब तक हाथ न लगाता था जब तक उसकी पूरी तैयारी न कर लेता। आवश्यकता पड़ने पर लंबी-लंबी यात्रा वह थोड़े दिनों में ही समाप्त कर लेता था। इसी कारण उसका आतंक दूर तक फैला रहता था। बंदूकों और तोपों के निर्माण में वह असाधारण रुचि रखता जिससे उस कौशल में उत्तरोत्तर उन्नति होने लगी।

अकबर की स्मरणशक्ति जैसी जबर्दस्त थी वैसी ही उसकी बुद्धि भी सूक्ष्म एवं कुशाग्र थी। इसीलिए स्वयं पढ़ने-लिखने का काम न करने पर भी केवल सुनकर ही उसने आश्चर्यजनक ज्ञानराशि एकत्र कर ली थी जिसके बल पर शासन ही नहीं, काव्य, दर्शन, इतिहास आदि के सूक्ष्म तत्वों को भी समझने की शक्ति उसने प्राप्त कर ली थी। मितभाषी होने के कारण उसके वाक्य और विचार सारगर्भित होते थे। उसकी मुद्रा गंभीर, रोबीली, आदरणीय तथा प्रभावशाली थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

सं. ग्रं.- वी.ए. स्मिथ अकबर (संशोधित संस्करण), आक्सफोर्ड, 1919; त्रिपाठी सम ऐस्पेक्ट्स ऑव मुस्लिम ऐडमिनिस्ट्रेशन।