अफ़लातून (प्लैटो)
अफ़लातून (प्लैटो)
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 155 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | भोलानाथ शर्मा। |
अफ़लातून (प्लैटो) यूनान देश का सुविख्यात दार्शनिक। उसका मूल ग्रीक भाषा का नाम प्लातोन है; इसी का अंग्रेजी रूपांतर प्लैटो और अरबी रूपांतर अफ़लातून है। उसका जन्मकाल 429 ई.पू. 427 ई.पू. माना जाता है। उसके पिता का नाम अरिस्तोन और माता का पैरिक्तियोने था। ये दोनों ही एथेंस के अत्यंत उच्च कुलों में उत्पन्न हुए थे। आरंभ में अफ़लातून की प्रवृति काव्यरचना की ओर थी, पर लगभग 20 वर्ष की अवस्था में सोक्रतेस (सुकरात) के प्रभाव से वह कवि से विचारक बन गया। यद्यपि अपनी कुलपरंपरा केअनुसार उसको राजनीति में सक्रिय भाग लेना चाहिए था, तथापि सामसामयिक राजनीतिकी दुर्दशा ने उसको इस दिशा में प्रवृत्त होने से रोक दिया। ई.पू. 399 में सुकरात के मृत्युदंड के पश्चात्वह एथेंस छोड़कर चला गया और उसने दूर देशों की (कुछ के मत में भारतवर्ष तक की) यात्रा की। ई.पू.389 में वह इटली और सिलिली गया। इसी यात्रा में उसकी भेंट सिराकूस के शासक दियोनिसियुस प्रथम से हुई तथा दियोन और पिथागोरस के अनुयायी आर्कितास के साथ आजीवन मित्रता का सूत्रपात हुआ। इस यात्रा से लौटते समय संभवत: वह ईगिना में बंदी बना लिया गया। पर धन देकर उसको छुड़ा लिया गया।
एथेंस लौटने पर उसने अकादेमी नामक स्थान पर यूरोप के प्रथम विश्वविद्यालय का बीजारोपण किया। यह उसके जीवन का मध्याहृकाल था। उसने अपने जीवन के उत्तरार्ध को इसी विद्यालय के विकास कार्य में लगा दिया। ई. पू.367 में सिराकूस के दियोनिसियुस प्रथम की मृत्यु के उपरांत दियोन ने अफ़लातून को दियोनिसियुस द्वितीय को दार्शनिक राजा बनाने के लिए आमंत्रित किया। अफ़लातून ने अपनी शिक्षा का प्रयोग करने के लिए इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। पर यह प्रयोग असफल रहा। ईर्ष्या से प्रेरित होकर दियोनिसियुस् द्वितीय ने दियोन् को निर्वासित कर दिया। अफ़लातून ने सिराकूस की तीसरी यात्रा ई.पू. 361 में की, पर वह इस बार भी वहाँ के राजनीतिक जीवन के उलझे हुए सूत्रों को सुलझा नहीं सका और कुछ समय के लिए स्वयं बंदी बना लिया गया। यहाँ से उसको आर्कितास के प्रभाव से मुक्ति मिली। इसके पश्चात उसका जीवन अकादेमी में ही व्यतीत हुआ और ई.पू. 348 में 80 वर्ष की आयु में उसका शरीरांत हुआ।
सुंदर स्वस्थ शरीर, दीर्घ जीवन, आर्थिक चिंताओं का अभाव, उच्च कुल में जन्म, सदगुरू सुकरात की प्राप्ति, कुशाग्र बुद्धि इत्यादि अपरिमित वरदान अफ़लातून को प्राप्त थे। उसने इन सबका सदुपयोग किया तथा अपने और अपने गुरु के नाम को अमर बना दिया। उसकी इस अमर ख्याति का आधार है उसकी रचनाओं का साहित्यिक सौष्ठव और उसके विचारों की अतल गंभीरता।
अफ़लातून की रचनाओं की तालिका प्राचीन काल में बहुत लंबी थी, परंतु आधुनिक आलोचकों ने अनेक प्रकार की कसौटियों पर उनकी प्रामणिकता का परीक्षण करके उनमें से अनेक को अप्रामणिक सिद्ध कर दिया है। परंतु यह सौभाग्य की बात है कि अफ़लातून की समग्र प्रामाणिक रचनाएँ अद्यवधि उपलबध है। कुल मिलाकर अफ़लातून की रचनाओं में आजकल 25 संवाद, 1 सुकरात का आत्मनिवेदन तथा कुछ उसके पत्र प्रामाणिक माने जाते हैं। इनके नाम निम्नलिखित है:--
(1)अपोलौगिया,
(2)क्रितो (न),
(3) यूथफ्री (न),
(4)प्रोतागोरस
(5)हिप्पियास लघु,
(6) हिप्पियास बड़ा,
(7) लारवेस
(8)लीसिस
(9)खर्मिदीस
(10)गौर्गियास
(11)मैनैक्षैनस्
(12) मैनो (न),
(13)यूथीदीमस
(14)क्रातीलस
(15)सिम्पौसियौन
(16)फएदो(न)
(17)पौलितेइया अर्थात रिपब्लिक,
(18)फएद्रस
(19)थियैतैतस
(20)पार्मैनिदीस
(21)सौफिस्त,
(22)पौलितिकस
(23)क्रितियास
(24)तिमाइयस
(25)फिविबस
(26)नौमोई अर्थात लॉज़,
(27) ऐपिस्तोलाए अर्थात 13 पत्रों का संग्रह।
संवादात्मक रचनाओं में प्रमुख वक्ता सुकरात है तथा रचना का नाम सुकरात के अतिरिक्त अन्य प्रमुख वक्ता के नाम पर पड़ा है। केवल 1, 15, 17, 21, 22, 26 और 27 संख्यावाली रचनाएँ इसका अपवाद हैं। इनके नाम का संबंध विषय से है। यह सब ग्रथं आकार में तुलसीदास की रचनाओं से प्राय: दो गुने होंगे।
अफ़लातून की रचनाओं में विषयों की आश्चर्यजनक विविधता है। सुकरात का जीवनवृत्त, गणतत्व का विवेचन, शबदतत्व, सौंदर्यतत्व, शिक्षाशास्त्र, राजनीति, आत्मा की अमरता, काव्यालोचन, संगीतसमीक्षा, सृष्टितत्व आदि न जाने कितने गूढ़ विषयों पर अफ़लातून ने अपने विचारों को व्यक्त किया है। पर उसका मुख्य दार्शनिक सिद्धांत 'थियरी ऑव् आइडियाज़' नाम से विख्यात है। मूल ग्रीक भाषा में 'अइदस्' और 'इदिया' शब्दों का प्रयोग इस सिद्धांत के संबंध में किया गया है। ये शब्द भाषाशास्त्र की दृष्टि से संस्कृत की 'विद' जातु से संबद्ध हैं, पर अर्थ की दृष्टि से इनका संबंध महाभाष्यकार पतंजलि और आचार्य शंकर द्वारा प्रयुक्त 'आकृति' शब्द से अधिक है। इंद्रियग्राह्य जगत् के परिदृश्यमान पदार्थो के मूल में रहनेवाले बुद्धिग्राह्या और अतींद्रिय तत्व को, जो स्थायी है और परिदृश्यमान पदार्थो का कारण है, अफ़लातून ने 'इदिया' कहा है। इन 'इदियों' का अपना स्वतंत्र स्थायी अस्तित्व है। दृश्यजगत् के पदार्थों में जाए कुछ यथार्थ सत्य है वह अपने 'इदिया' के अस्तित्व में भागीदार होने के कारण है। संसार की समस्त पुस्तकें 'इदिया' की अपूर्ण अनुकृतियाँ मात्र हैं। 'इदिया' में भी उँच-नीच का कोटिक्रम पाया जाता है। इनमें सर्वोच्च 'इदिया' सत् (अगॉथन) का इदिया है। यह समग्र सत्ता का मूल कारण है, प्रकाशस्वरूप है, पर इसके पूर्ण वर्णन में वाणी मूक हो जाती है। 'इदिया' दृश्य पदार्थों से पृथक् और अपृथक् दोनों ही है। सत् के 'इदिया' और विश्वात्मा का परस्पर क्या संबंध है, इस बात को अफलातून ने अस्पष्ट ही छोड़ दिया है।
वास्तविक, अव्यभिचारी, स्थायी, स्पष्ट ज्ञान की प्राप्ति 'इदिया' के अवधारण से ही संभव है, दृश्य पदार्थों में भटकने से केवल 'मत' या 'राय' की ही प्राप्ति हो सकती है जाए परिवर्तनशील और अविश्वसनीय है। ज्ञान की प्राप्ति के लिए शिक्षा और पूर्वस्मृति का उद्बोधन आवश्यक है। अफ़लातून के मत में शरीर की कारा में आबद्ध होने के पूर्व मानवयी आत्मा अपने शुद्ध रूप में 'इदिया' का चिंतन किया करती थी। उस अवस्था के पुन: स्मरण से ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है।
ज्ञान की प्राप्ति से ही सामाजिक और राजनीतिक कर्तव्यों का सम्यक् अवबोध और पालन संभव है। अफ़लातून का विश्वास था कि पूर्ण ज्ञानी दार्शनिक ही निर्विकार भाव से शासन का कार्य कर सकते हैं। इन ज्ञानी शासकों में अनासक्ति की भावना को बद्धमूल करने के लिए उसने उनके मध्य में संपत्ति, संतान और स्त्रियों के ऊपर समानाधिकार के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। पर यह साम्यवाद केवल शासकों तक ही सीमित रहा।
नगरों के सुशासन के लिए शासकों में सत्यज्ञान का होना अनिवार्य है। परंतु अनेक कलाएँ और विशेष कर नाटक और कविताएँ तो सत्य की अनुकृति की भी अनुकृति हैं--क्योंकि दृश्यजगत् के पदार्थ 'इदियाओं' की अनुकृति हैं और कलाएँ इन दृश्यजगत के पदार्थो का अनुकरण करती हैं। अत: इन कलाओं को आदर्श नगर में कोई प्रश्रय नहीं मिलना चाहिए। कवियों को आदर्श नगर से बहिष्कृत कर दिया जाना चाहिए।
परंतु इससे हमको यह निष्कर्ष कदापि नहीं निकालना चाहिए कि अफ़लातून नीरस दार्शनिक था। उसने अपने सिंपोसियोन नामक संवाद के सौंदर्य के स्वरूप का अविस्मरणीय प्रतिपादन किया है। इस संवाद में प्रेम और सौंदर्य के स्वरूप का ऐसा उद्घाटन किया गया है कि अफ़लातून की प्रतिभा का लोहा मानना पड़ता है। बाह्य कायिक सौंदर्य से संपझ अल किवियादीस को कुरूपतासंपझ सुकरात के आंतरिक सौंदर्य के समक्ष मंत्रमुग्ध हुआ देखकर हमको स्वर्गिक सौंदर्य की झलक दिखाई देने लगती है।
पर जैसे-जैसे समय बीतता गया, अफ़लातून के विचारों में परिवर्तन होता गया गया। उसके अंतिम ग्रंथ नोमोई (लाज) में, जिसको अफ़लातूनस्मृति का नाम दिया जा सकता है, हमको यथार्थवादी अफ़लातून के दर्शन होते हैं। यहाँ पर वह 5040 नागरिकों के एक-दूसरे ही प्रकार के नगर की व्यवस्था करता है। इस नगर का शासन सभा, परिषद्, विधानरक्षकों, परीक्षकों और रात्रिपरिषद् के द्वारा संवैधानिक पद्धति से करने का सुझाव है। इस नगर में दर्शन की अपेक्षा धर्म की चर्चा अधिक और नास्तिकों का मतपरिवर्तन करने अथवा मार डालने तक का विधान किया गया है।
यूरोप में अफ़लातून का प्रभाव सभी विचारकों से अधिक गहरा रहा है। ह्वाइटहेड के अनुसार समस्त पाश्चात्य दर्शन अफ़लातून की रचनाओं की पादटिप्पणियों की परंपरा है। आधुनिक काल के कुछ विचारकों ने उसको अधिनायकवाद के समर्थकों में गिना है, पर यह उनकी भ्रांति है। उर्विक नामक विद्वान् ने अफ़लातून की आदर्श नगरव्यवस्था में भारतीय समाज का प्रभाव सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। गिलबर्ट मरे के मत में अफ़लातून के समान गद्यलेखक न दूसरा हुआ है और न होगा ही। रिटर के अनुसार वह सर्वदा अविस्मरणीय रहेगा; वह उन आध्यात्मिक शक्तियों को उन्मुक्त करनेवाला है जो बहुतों के लिए वरदान सिद्ध हुई हैं और सर्वदा वरदान बनी रहेंगी।
अफ़लातून संबंधी साहित्य सभी सभ्य देशों की भाषा में विपुल मात्रा में पाया जाता है। अत: यहाँ केवल प्रमुख रचनाओं का नामोल्लेख किया जाता है।
मूल रचना के संबंध में बर्नेट् (आक्सफोर्ड), बेकर, स्टालबोम् (जर्मनी) के संस्करण अत्यंत प्रामाणिक माने जाते हैं। अफ़लातून की रचनाओं के अनुवाद समस्त प्रमुख यूरोपीय भाषाओं में उपलब्ध हैं।
अंग्रेजी में जावेट का अनुवाद अधिक प्रसिद्ध है, पर बहुत सही नहीं है, यद्यपि इसकी शैली अत्यंत आकर्षक है। लोएब् क्लासिकल लाइब्रेरी में अफ़लातून की समस्त रचनाएँ---मूल और अनुवाद---12 जिल्दों में प्रकाशित हो चुकी हैं। काँनफोर्ड के अनुवाद अधिक विश्वसनीय हैं। हाल में कई ग्रंथों के सुलभ अनुवाद भी प्रकाशित हुए हैं। हिंदी में स्वर्गीय डा. बेनीप्रसाद ने सुकरात के जीवन से संबंध रखने वाली कुछ छोटी रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद किया था जाए नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा 'सुकरात' नाम से प्रकाशित हुआ था। भोलानाथ शर्मा ने 'रिपब्लिक' का मूल ग्रीक भाषा से हिंदी में अनुवाद किया है जो 'आदर्श नगरव्यवस्था' नाम से हिंदी समिति द्वारा प्रकाशित किया गया है।
अफ़लातून से संबंधित आलोचनात्मक साहित्य में निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं---बनेंट : ग्रीक फिलासफी फ्रॉम थलैस् टु; टेलर : प्लेटो; फोल्ड द फिलॉसफ़ी ऑव प्लैटो और प्लैटो, ऐंड हिज् कंटेंपोरेरीज्; त्सैलर : प्लेटो ऐंड द ओल्डर अकाडेमी;गौंपर्त्स : ग्रीक थिंकर्स् जिल्द 2 और 3; शोरी : ह्वाट् प्लैटो सेड, और यूनिटी ऑव प्लैटोज थॉट्; रिट्टर : द एसेंस ऑव प्लैटोज़ फिलासफी, और फ्लातोन, जाएइन् लबन्, ज़ाइने श्रिफ्टैन्, जाएइने लीरे (जर्मन भाषा में) (रिट्टर आधुनिक समय में प्लैटो का सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञ माना जाता है।); ग्रूव : प्लैटोज़ थॉट; वैर्नर याएगर: पाइडेइया, जिल्द 2 और 3; फ्रीड्लांडर; प्लातोन्; उर्विक : मेसेज ऑव प्लैटो; विलामोवित्स् मेओलैन्डॉर्फ् : प्लातोन् भाग 1, 2 (जर्मन भाषा); लियॉन् रोबिन : ग्रीक थॉट्; लूतॉस्लास्की : द ऑरिजिन ऐंड ग्रोथ् ऑव प्लैटोज़ लॉजिक्; स्ट्युआर्ट : द मिथ्स् ऑव प्लैटो; क्रॉसमैन् : प्लैटो टुडे; पौपर : द ओपन् सोसाइटी ऐंड इट्स एनीमीज; लॉज : फिलासफ़ी ऑव प्लैटो; तामसकर : अफ़लातून की समाजिक व्यवस्था (हिंदी)।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ