उपनयन

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लेख सूचना
उपनयन
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 116
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक राजबली पांडेय

उपनयन हिंदुओं के स्मार्त संस्कारों में से एक संस्कार उपनयन है। 'उपनयन' का अर्थ है विद्याभ्यास और नैतिक विनय के लिए पिता अथवा उसके अभाव में किसी अभिभावक द्वारा बालक को 'आचार्य के समीप ले जाना'। यह मुख्यत: शौक्षणिक संस्कार है। इसके माध्यम से बालक जातीय ज्ञान और आचार-विचार में दीक्षित होकर सामाजिक कर्तव्यों का पालन करने के योग्य बनता है। यह एक प्रकार से बालक का दूसरा जन्म है। माता-पिता से बालक का भौतिक जन्म होता है। आचार्य से उसका बौद्धिक तथा नैतिक। उपनयन से संस्कृत बालक की संज्ञा 'द्विज' (दो जन्मवाला) होती है। उपनयन के लिए बालक की अवस्था आठ वर्ष श्रेष्ठ मानी जाती है। इसी प्रकार अंतिम अवस्था क्रमश: १६, २२ और २४ वर्ष है। अंतिम अवस्था तक उपनयन न होने से बालक '्व्राात्य' (समाज से पतित और बहिष्कृत) हो जाता है और ्व्राात्यष्टोम द्वारा शुद्ध होकर ही पुन: समाज में प्रवेश के लिए अधिकारी हो सकता है। उपनयन में आचार्य का चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है; वह उच्च कोटि का विद्वान्‌ और चरित्रवान्‌ होना चाहिए। जिसका उपनयन अविद्वान्‌ करता है वह अंधकार से और अधिक अंधकार में प्रवेश करता है (तमसो वा एष तम: प्रविशति यमविद्वानुपनयते।-श्रुति)। शौनक के अनुसार बालक का उपयनय बहुश्रुत, कुलीन, शीलवान्‌ और तपस्वी द्विजश्रेष्ठ ही कर सकता है। आचार्य पद के लिए वृत्तिहीन का वरण नहीं करना चाहिए; मज्जा से अपवित्र हाथ रक्त से शुद्ध नहीं होता (न योजयेत्‌ वृत्तिहीनं वृणुयाच्च न तं गुरुम्‌। नहि मज्जाकरौ दिग्धौ रुधिरेण विशुध्यत: 1-हारीत)।

उपनयन संस्कार के लिए उपयुक्त ऋतु और समय का चुनाव आवश्यक है। ब्रह्मण बालक के लिए वसंत ऋतु, क्षत्रिय के लिए ग्रीष्म, वैश्य के लिए शरत्‌ और रथकार (= शिल्पी) के लिए वर्षा उपुयक्त मानी गई है, (बौधायन गृह्यसूत्र, 2-5-6)। ये ऋतुएँ वर्णगत स्वभाव की प्रतीक हैं। संस्कार के बहुत से आनुषंगिक और आवश्यक अंग हैं। उपनयन के एक दिन पहले से बालक संस्कार के लिए तैयार किया जाता है। घर में श्री, लक्ष्मी, धृति, मेधा, पुष्टि, श्रद्धा और सरस्वती की पूजा होती है। दूसरे दिन प्रात:काल माता के साथ और साथियों के सहित बालक अंतिम भोजन करता है। इसके पश्चात्‌ स्नान से पवित्र होकर वह उपनयन के लिए प्रस्तुत होता है। तब उसको कठोर ब्रह्मचारी जीवन के उपकरण दिए जाते हैं। सबसे पहले शरीर के गुप्त अंग को ढकने के लिए कौपनी, फिर कौपीन बाँधने के लिए नैतिक प्रतीक मेखला, यज्ञ का प्रतीक ब्रह्मसूत्र (जनेऊ), बिस्तर के लिए अजिन (मृगचर्म), भयनिवारण और संयम का प्रतीक दंड प्रदान किया जाता है। इसके पश्चात्‌ कतिपय प्रतीकात्मक कृत्य होते हैं। इनमें सर्वप्रथम हृदयस्पर्शी है। ब्रह्मचारी का हृदयस्पर्श करते हुए आचार्य कहता है, 'मैं अपनी इच्छाशक्ति में तुम्हारा हृदय धारण करता हूँ' (पारस्कर गृह्यसूत्र, २-२-१८)। इसके पश्चात्‌ अश्मारोहण होता है जो आचार में दृढ़ता का द्योतक है। दृढ़ता का आश्वासन पाकर आचार्य ब्रह्मचारी को अपने संरक्षण में लेता है और उससे पूछता है, 'तुम्हारा क्या नाम है?' ब्रह्मचारी उत्तर देता है, 'मैं अमुक हूँ।' आचार्य पूछता है, 'तुम किसके छात्र हो?' ब्रह्मचारी कहता है, 'आपका'। आचार्य समाधान करता है, 'तुम इंद्र के ब्रह्मचारी हो; अग्नि तुम्हारा गुरु है; मैं तुम्हारा आचार्य हूँ।' इसकें अनंतर आचार्य ब्रह्मचारी को आचार संबंधी आदेश देता है। तदुपरांत सर्वप्रसिद्ध सावित्री (गायत्री) मंत्र का उपदेश करता है : 'सविता (सबको उत्पन्न करनेवाले) के सर्वश्रेष्ठ प्रकाश का हम ध्यान करें; वह हमारी बुद्धि को प्रेरित करे।' गायत्री मंत्र के उपदेश के पश्चात्‌ ज्ञान और तपस्या के प्रतीक पवित्र अग्नि को नित्य हवन के लिए प्रदीप्त करता है। उपनीत ब्रह्मचारी को अपना पोषण समाज में भिक्षाचरण के द्वारा करना चाहिए। आजकल उपनयन के दिन केवल औपचारिक रूप से ब्रह्मचारी भिक्षा माँगता है। संस्कार में जो परवर्ती परिवर्तन हुआ है उसके अनुसार एक और अभिनय होता है। ब्रह्मचारी विद्याध्ययन के लिए काशी अथवा काश्मीर जाने का स्वाँग करता है। उसके मामा या बहनोई उसको विवाह का प्रलोभन देकर वापस लाते हैं।

इस संस्कार के अंत में त्रिरात व्रात का अनुष्ठान होता है। यह ्व्रात तीन रात्रि के बदले कभी 12 दिन अथवा 12मास तक चलता है। आधुनिक युग में तो यह विधान मात्र है; इसका पालन नहीं होता। किंतु नियमत: ब्रह्मचारी का कठोर जीवन यहीं से प्रारंभ होता है। इस व्रात का अवसान मेधाजनन नामक कृत्य में होता है। मेधाजन का उद्देश्य है, ब्रह्मचारी में मेध अथवा प्रतिभा उत्पन्न करना। इस संबंध में शौनक का कथन है, जगत्‌ को धारण करनेवाली सावित्री (सूर्य की पुत्री) स्वयं मेधारूपिणी है; विद्या में सिद्धि प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाले द्वारा मेधा पूजनीया है (या सावित्री जगद्धात्री सैव मेधास्वरूपिणी। मेधा प्रसिद्धए पूज्या विद्या सिद्धिमभिप्सिता।-शौनक)।

शैक्षणिक परिस्थितियों के बदलने के कारण उपनयन के प्रयोजनों और आदर्शो में भी परिवर्तन होता आया है। आजकल यह संस्कार औपचारिक रूप में ही सुरक्षित है। परंतु प्राचीन काल में यह वास्तविक था और ब्रह्मचर्याश्रम के प्रारंभ में एक बहुत ही अनुकूल वातावरण उत्पन्न करता था। संसार के सभी धर्मों और जातियों में यह संस्कार किसी-न-किसी रूप में पाया जाता है। परंतु जहाँ अन्यत्र किसी-न-किसी शारीरिक कार्य-अंगच्छेदन, बलपरीक्षा आदि-के बिना जाति के अधिकारों में प्रवेश पाना असंभव है, हिंदुओं में जातीय जीवन में प्रवेश के लिए प्रवेशपत्र शैक्षणिक है। (विस्तृत विवरण के लिए द्र. 'संस्कार)।[१]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.-म.म.पी.वी.काणे : हिस्ट्री आव हिंदू धर्मशास्त्र; राजबली पांडेय : हिंदु संस्कार : सामाजिक धार्मिक अध्ययन; श्रीमती स्टेवेंसन : राइट्स आव द ट्वाइस बॉर्न