ऐंथ्रैक्स

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लेख सूचना
ऐंथ्रैक्स
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 270
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक सत्यपाल गुप्त

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ऐंथ्रौक्स विशेषकर वनस्पतिभोजी जंतुओं का रोग है और उनके पश्चात्‌ उन मनुष्यों को हो जाता है जो इस रोग से ग्रस्त पशुओं के सपंर्क में रहते हैं या चमड़े अथवा खाल का काम करते हैं। पैस्टर (Pasteur) ने सबसे पहले पशुओं में इसी रोग के प्रति रोगक्षमता उत्पन्न की थी। जीवाणु प्राय: भोजन के साथ शरीर में प्रवेश करने के पश्चात्‌ रक्त या अन्य ऊतकों में बढ़ते हैं। प्लोहा की वृद्धि हो जाती है और प्राय: 12 से 48घंटे में रोगी की मृत्यु हो जाती है।

मनुष्य में रोग के निम्नलिखित रूप पाए जाते हैं:

1. त्वगीय रूप–यह रूप कसाई, चमड़े को कमानेवाले और ब्रश बनाने का काम करनेवालों में पाया जाता है। संक्रमण के पश्चात्‌ ऊतकों का एक पिंड बन जाता है, जिसके बीच में रक्ताधिक्य होता है और गलन भी होती है। इस रूप में मृत्यु कम होती है।

2. फुफ्फुसीय रूप–इसको ऊन का काम करनेवालों का रोग (ऊल सार्टर्स डिज़ीज़) भी कहा जाता है। इस रोग में स्थान स्थान पर फुफ्फुस गलने लगता है। रोग के इस रूप में मृत्यु अधिक होती है।

3 आंत्रीय रूप–रोग के जीवाणु भोजन के साथ आंत्र में पहुँचते हैं। यदि संक्रमण के रक्त में पहुँचने के कारण रक्तवूतिता (सेप्टिसीमिया) उत्पन्न हो जाती है तो मृत्यु निश्चित है। रोग का निदान आक्रांत ऊतकों, में, या रक्त में, जीवाणुओं के दिखाई पड़ने से ही किया जा सकता है। ऐं्थ्रौक्स दंडाणुओं को साधारणतया ऐं्थ्रौक्स ही कहा जाता है। ये दंडाणु ग्रामधन वातापेक्षी समूह के हैं, जिसके सदस्य स्पोर बनाते हैं। ये जीवाणु अण्वीक्षक द्वारा देखने से सीधे दंड के समान दिखाई देते हैं। इनके सिरे कटे से होते हैं। जीवाणुओं का संवर्धन करने पर स्पोर उत्पन्न होते हैं, किंतु पशु के शरीर में ये नहीं उत्पन्न होते। इनपर एक आवरण बन जाता है। इस जीवाणु को इसी प्रकार के अन्य कई समानरूप जीवाणुओं से भिन्न करना पड़ता है। ऐं्थ्रौक्स जीवाणु सभी जंतुओं के लिए रोगोत्पादक हैं। गिनीपिग और चूहे के चर्म को तनिक सा खुरच देने पर वे संक्रमित हो जाते हैं। रोगरोध के लिए इन जीवाणुओं से एक वैक्सीन तैयार की जाती है। चिकित्सा के लिए इनसे तैयार किया हुआ ऐंटीसीरम और सल्फ़ोनैमाइड ओषधियाँ उपयोगी हैं। मरे हुए जंतु को या तो जला देना चाहिए या गढ़े में चूना बिछाकर और मृत पशु के ऊपर भी अच्छी तरह चूना छिड़कर गाड़ देना चाहिए।


टीका टिप्पणी और संदर्भ