केतु

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
  • केतु नवग्रहों में से एक ग्रह। फलित ज्योतिष ग्रंथों में इसे ग्रह कहा गया है किंतु सिद्धांत ग्रंथ चंद्रकक्ष और क्रांतिरेखा के अध:पात के बिंदु को ही केतु मानते हैं। फलित ज्योतिष में इसके आधार पर शुभाशुभ फल का निर्णय किया जाता है। यह पापग्रह कहा जाता है। विंशोत्तरी गणना के अनुसार केतु की दशा का फल सात वर्ष तक रहता है। केतु के पूर्व बुध और बाद में शुक्र की दशा आती है।
  • पौराणिक आख्यान के अनुसार एक राक्षस का कबंध। कहा गया है कि समुद्रमंथन के समय यह राक्षस देवताओं के साथ बैठकर अमृतपान कर गया था। इसलिये विष्णु ने इसका सिर काट लिया। अमृत के प्रभाव से वह मरा नहीं और उसका सिर राहु और कबंध केतु हो गया। कहा गया है कि इसे अमृपान करते सूर्य और चंद्र ने पहचाना था। इस कारण सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय यह राक्षस उन्हें ग्रसता रहता है।
  • आकाश में उदित होने वाले एक प्रकार के तारे जिनमें प्रकाश की एक पूंछ सी दिखाई देती है जिसके कारण इन्हें पुच्छल तारा कहते हैं। कभी कभी इनका प्रकाश झाडू की तरह बिखरा बिखरा बिखरा सा रहता है जिसके कारण इसे बढ़नी या झाडू भी कहते हैं। भारतीय ज्योतिष संहिता में इनकी संख्या 105 कही गई है। पराशर उनकी संख्या 101 कहते हैं। गर्गादि ज्योतिर्विदों ने 101 के अतिरिक्त 899 केतुओं का वर्णन किया है। नारक के मत में केतु केवल एक है; किंतु उसके रूप अनेक हैं। पाश्चात्य खगोलशास्त्रियों के अनुसार इनकी संख्या अनिश्चित है। वे भिन्न भिन्न पटलों में भिन्न भिन्न दीर्घवृत्त अथवा परवलय वृत्त में भिन्न भिन्न वेगों से घूमते हैं। इनकी कक्षाओं की दो नाभियों में एक नाभि सूर्य होता है। दीर्घ वृत्तात्क कक्षा होने से ये तारे जब रविनीच के सूर्य के समीपवर्ती कक्षा में होते हैं तभी दिखाई पड़ते हैं। रविनीच के कक्षांश में आते ही ये तारे कुछ कुछ दिखाई पड़ने लगते हैं और आरंभ में दूरबीन से देखने पर प्रकाश के धब्बे सरीखे जान पड़ते हैं। ज्यों ज्यों वे सूर्य के निकट आते जाते हैं इनकी नाभि दिखाई पड़ने लगती है और क्रमश: स्पष्ट होती जाती है। किंतु अनेक केतुओं की नाभि दिखाई नहीं पड़ती। उनमें नाभि है भी या नहीं कहना कठिन है। इन तारों की नाभि अपने आवरण में लिपटी हुई सूर्य के २ अंश से 90 अंश के भीतर देख पड़ती है। इन तारों के साथ प्रकाश की एक पुच्छ होती है। इस पुच्छ में स्वयं प्रकाश नहीं होता। वह स्वच्छ, पारदर्शी और वायुमय होता है। उसमें सूर्य के सान्निध्य से प्रकाश आ जाता है। इसी कारण पुच्छ के दूसरी ओर का छोटे से छोटा तारा दिखाई पड़ सकता है ।

सत्तरहवीं शती के उत्तरार्ध तक खगोलशास्त्रियों की धारणा थी कि केतु समूह के तारे मनमाने घूमते फिरते हैं। उनका न तो कोई कक्ष है और न उनके घूमने का कोई नियम। 1862 ई. में पहली बार हेली नामक खगोलशास्त्री ने एक केतु के संबंध में निश्चित ढंग से प्रतिपादित किया कि वह अनियिमित नहीं है वरन्‌ लगभग हर 76 वर्ष पर दिखाई पड़ता है। इस आधार पर इस केतु को हेली केतु नाम दिया गया है। उसके बाद लोगों का ध्यान केतुओं की गति की ओर आकृष्ट हुआ और अब तक अनेक केतुओं के कक्ष और गति के बारे में जानकारी प्राप्त की जा चुकी है। निर्धारित समय पर दिखाई पड़नेवाले केतुओं को नियकालिक केतु कहते हैं।

शेयरले नामक खगोलशास्त्री ने इस बात की जानकारी प्राप्त की है कि अनेक केतुओं और उल्कापुंजों, दोनों के कक्ष एक ही हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ