कैथोडकिरण आसिलोग्राफ
कैथोडकिरण आसिलोग्राफ
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 132 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | अरविंदमोहन |
कैथोडकिरण आसिलोग्राफ ऐसा यंत्र है जो विद्युत की अनेक क्रियाओं को नेत्रों के सम्मुख स्पष्ट दृष्टिगोचर कर देता है। कैथोडकिरण वाल्व अथवा इलेक्ट्रानगन एक विशेष उष्मायनिक वाल्व (थर्मायोनिक ट्यूब) है जिसका उपयोग विद्युत विषयक अनेक क्षेत्रों के अध्ययन में अनिवार्य हो गया है। इस वाल्व की क्रिया एक उष्ण तंतु (फिलामेंट) से निकलनेवाली इलेकट्रान किरणावली का स्फुरदीप्त (फ्लुओरेसेंट) परदे पर पड़ने से संबद्ध है। कुछ वस्तुओं का गुण है कि उनपर इलेक्ट्रान पड़ते ही उनसे प्रकाश निकलने लगता है। इस गुण को स्फुरदीप्ति कहते हैं। प्रकाश का वर्ण विविध पदार्थो के लिए विभिन्न है। पदार्थ तथा उससे बनाए गए परदे पर ही इस दीप्ति की अवधि निर्भर है। कैथोडकिरण दोलनलेखी के हेतु उन पदार्थो का चयन किया जाता है जिनकी स्फुरदीप्ति इलेक्ट्रान किरण रूकनेपर तत्काल ही समाप्त हो जाती है।
कैथोडकिरण वाल्व----पूर्वोक्त क्रिया को कैथोडकिरण वाल्व अति सूक्ष्म समय में करता है। इलेक्ट्रान के वेग से ही इस क्रिया का वेग सीमित है। इस वाल्व के तीन अनिवार्य भग है: (1) इलेक्ट्रान पुंज का उत्पादन तथा उसको संगमित (फोकस) करनेवाली बंदूक (गन) (2) इस पुंज को विचलित करनेवाली स्थिरविद्युत (इलेक्ट्रोस्टैटिक) अथवा चुंबकीय क्षेत्र तथा (3) स्फुरदीप्ति परदा जिसपर देखकर नेत्रों द्वारा विद्युतक्रिया का अध्ययन किया जाता है। चित्र 1 से यह भाग स्पष्ट है।
इलेक्ट्रान गन----आजकल अनेक इलेक्ट्रान गनों का प्रचलन है जिनके द्वारा उपयोगिता के अनुसार इलेक्ट्रान पुंज मिलते हैं। लगभग सदैव इलेक्ट्रान पुंज को स्थिरविद्युत क्षेत्र द्वारा ही संगमित किया जाता है। एक ऊष्म कैथोड से निकलनेवाले इलेक्ट्रान। धातु के चार खोखले बेलनों (नलियों) के अक्ष की दिशा में अग्रसर होते हैं। प्रथम दो धातु के वेलन क्रमानुसार विद्युत् बाल्व (ट्रायोड या पेंटोड) के नियंत्रण ग्रिड (कंट्रोल ग्रिड) तथा परदा ग्रिड (स्क्रीन ग्रिड) की भाँति है इनका वास्तविक रूप ग्रिड के समान नहीं है। प्रथंम अर्थात नियंत्रण ग्रिड को साधारणत: ऋणात्मक विभव पर तथा दूसरे को धनात्मक विभव पर रखते हैं। धनात्मक होने के कारण इस द्वितीय ग्रिड द्वारा इलेक्ट्रान का वेग बढ़ता है; अत: इसको त्वरण ग्रिड भी कहते हैं। ऋंणाग्र से निकलनेवाले इलेकट्रानों की संख्या इन दोनों ग्रिडों के विभवों पर निर्भर है।
ग्रिडों के पश्चात् दो विद्युदग्र हैं जिनके द्वारा इलेक्ट्रान किरणों को संगमित (फोकस) किया जाता है। इनका विभव धनात्मक है ; अत: ये दोनों धनाग्र कहे जाते हैं बहुधा द्वितीय ग्रिड तथा द्वितीय धनाग्र का विभव समान रहता है। प्रथम धनाग्र का विभव सदैव द्वितीय से कम रखा जाता है द्वितीय धनाग्र को भूमि (अर्थ) से जोड़कर तथा कैथोड आदि पर ऋणात्मक विभव देकर पूर्वोक्त विभवांतर बनाए जा सकते हैं। प्रथम धनाग्र के बीच बड़ा छिद्र है जिसमें इलेक्ट्रान इसे छुए बिना निकल जाएँ, द्वितीय छिद्र छोटा है अत: एक पतली इलेक्ट्रान किरण ही गन से निकल सकती है।
पूर्वोक्त गन इलेक्ट्रानों को केंद्रित करती है तथा उनके द्वारा बननेवाली स्फुरदीप्ति के विस्तार का नियंत्रण भी करती है। कुछ गनों में चुंबकीय संगमन (फ़ोकसिंग) युक्तियाँ रहती है; इनमें केवल एक धनाग्र की ही आवश्यकता पड़ती है।
विचलन युक्ति---इलेक्ट्रान गन से आनेवाली किरणों को स्थिर विद्युतीय अथवा चुंबकीय क्षेत्रों में द्वारा विचलित करना संभव है। प्रथम युक्ति में दो जोड़ी समांतर पट्टिकाएँ (प्लेट) किरण के मार्ग में इस भाँति रखी जाती है कि एक के तल दूसरे से लंब दिशा में हों तथा प्रत्येक जोडे के बीच से किरण निकल जाए। पट्टिकाएँ किरणपथ से दोनों ओर रहकर मार्ग में कोई बाधा नहीं उत्पन्न करतीं। एक जोड़ी पट्टिका क्षैतिज तथा दूसरी उर्ध्वाधर रहती है। इन पट्टिकाओं के विभवानुसार इलेक्ट्रान किरण को ऊपर नीचे दाएँ बाएँ मोड़ना संभव है। परदे पर किरण विचलन निम्नलिखित समीकरण द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। चित्र:कैथोडकिरण-आसिलोग्राफ-3.gif जिसमें द (d) पट्टिका के बीच से परदे तक की दूरी, ब (1) पट्टिका की कार्यकारणी लम्बाई, अ (a) पट्टिका के दोनों तलों के बीच की दूरी (किरणें लंब दिशा में मापने पर), व (V1) पट्टिका का विभव तथा व 2(V2) गन के ऋणग्र तथा द्वितीय धनाग्र के बीच का विभवांतर है। यदि चुंबकीय क्षेत्र की शक्ति लंबाई ल (b) तक श (c) गाउस हो तथा उसके पश्चात् शून्य हो तो सेंटीमीटर प्रणाली में
विचलन =0.286 ल द श/ व2 [0.296 b d G/Ö(V2)] बाहरी काच की दीवार पर ऐक्वाडाग का लेप होता है जिसके कारण इलेक्ट्रान द्वितीय ऋणाग्र तक लौटकर विद्युत्पथ पूर्ण करते हैं।
स्फुरदीप्ति परदे-----कैथोडकिरण बाल्व के परदे स्फुर (फॉस्फर) नामक पदार्थो के बनते है जिनकी विशेषता इलेक्ट्रान पड़ने पर स्फुरदीप्ति उत्पन्न करना है। विभिन्न रंगों के स्फुर पाए जाते हैें। इनकी क्षमता (एफ्रशेन्सी) तथा प्रकाश देने का समय भिन्न भिन्न है। साधारणत: उपयोगी पदार्थ विलेमाइट है, जो यशद (जस्ता) का आर्थोसिलिकेट है। इसके द्वारा हल्के हरे वर्ण का प्रकाश उत्पन्न होता है। जस्ता, कैडमियम, मैगनीसियम तथा सिलिकन का उपयोग भी स्फुर के रूप में किया जाता है। स्फुर बनाने के हेतु चूर्ण करना, मणिभ बनाना, पुन: चूर्ण करना आदि तथा ऋणाग्रकिरण लेखी के परदे पर द्रव मिलाकर समांग परत में जमाना इत्यादि कठिन क्रियाएँ हैं। एक लाख में एक अंश चांदी, मैगनीज, तांबा या क्रोमियेम मिलने पर स्फुरकी दीप्ति 10 से 100 गुणी तक बढ़ जाती है।
उपयोग- कैथोडकिरण दोलनलेखी के उपयोगों की असीमितता दिनोदिन स्पष्ट होती जा रही है। यदि मान लें कि व र तथा व ल दोनों पट्टिकाओं के विभव हैं तथा व 2 पूर्ववत् गन के ऋणाग्र तथा द्वितीय धनाग्र का विभवांतर है तो इन तीनों राशियों के विभिन्न मानों पर यंत्र की उपयोगिता निर्भर है। यंत्र के उपयोगों को दो श्रेणियों में रख सकते हैं
जब दोनों पट्टिकायुग्मों पर ज्यावक्रीय (सिनुसॉइडल) विभवांतर एक साथ लगाया जाए ;
जब एक जोड़ी पर आरे के समान (सॉ-टूथ) या लंब-समय-आधार (लीनियर टाइम बेस) विभवांतर (चित्र 2) लगाया जाए तथा दूसरे पर जाँच के हेतु विभिन्न विभव लगाए जायें ।
प्रथम श्रेणी में समकोणीय ज्यावक्रीय विद्युततरंगों का अध्ययन लिसाजू के चित्रों द्वारा किया जाता है।
द्वितीय श्रेणी के द्वारा किसी भी प्रसंवादी (हारमोनिक) विभव का अध्ययन करना संभव हो जाता है। तरंगगति एक प्रसंवादी तथा एक रैखिक गति के मिलने पर प्राप्त होती है ; अत: यंत्र की एक जोड़ी पट्टिका पर लंब-समय-आधार विभ्रव लगाया जाता है। इसके हेतु एक अपोहन परिपथ (स्वीप सर्किट) बनाया जाता है। पट्टिकाओं पर विभव न होने पर परदे के बीच एक प्रकाशबिंदु बनता है-अपोहन द्वारा यह बिंदु धीर गति दाएँ समय स (t) में पहुँचता है। दाएँ से पुन: तत्काल ही प्रकाशबिंदु बाईं ओर आ जाता है। यह तत्काल लौटने का समय स (t) से अत्यल्प होने के कारण प्रकाश का लौटना दृष्टिगोचर नहीं हो पाता। यदि समय स (t) दूसरी जोड़ी पट्टिका पर लगी तरंग की अवधि अ (T) के समान है तो परदे पर एक तरंग दिखाई पड़ती है। यदि अवधि अ/न (T/n) है तो न (n) तरंगे परदे पर दिखाई पड़ेंगी। यदि पट्टिकाओं की दोनों जोड़ियों पर लगे विभव समकालिक (सिनेक्रोनस) है। तो दृष्टि-बिलंबना (परसिस्टेंस ऑव विज़हन) तथा परदे पर प्रकाश के इलेक्ट्रान गिरते ही उत्पन्न तथा समाप्त होने के कारण तरंग चित्र परदे पर स्थिर दिखाई पड़ेगा। आरे के समान तरंग एक संघनित्र (कंडेन्सर) को आवेश (चार्ज) देकर तथा निरावेश (डिसचार्ज) करने पर बनती है। कैथोडकिरण दोलनमापी केवल ज्या-तरंग-वक्रों का अध्ययन मात्र ही नहीं करता वरन् किसी भी आवर्ती तरंग का अध्ययन करता है। क्षणिक अथवा उच्च आवृति (हाई फ्रीक्वन्सी) विभव इस यंत्र द्वारा चित्रित किए जा सकते हैं। इलेक्ट्रान कणों का अवस्थितित्व (इनर्शिया) अत्यंत न्यून होने के कारण ये उच्चतम आवर्ती विभव का अनुकरण कर सकते हैं। 10 लाख चक्र (साइकिल) प्रति सेकंड की आवृत्ति साधारण यंत्र काम दे सकते हैं।
इन यंत्रों द्वारा ध्वनि विज्ञान, यंत्रनिर्माण, शोध कार्य, दिशावेध यंत्र (राडार), दूरवीक्षण (टेलीविज़न), धातु आदि का भीतरी चित्र लेना तथा अनेक अन्य कार्य सरल, सुलभ तथा सुगम हो गए हैं। परदे पर बननेवाले चित्रों के फोटो इस यंत्र की उपयोगिता को स्पष्ट करते हैं।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं.ग्रं.-जे. आर. पियर्स : जर्नल अप्लाइड फिजिक्स 11,548 (1840); जे. एफ. राइडर : कैथेड रे ऑसिलोग्राफ़ इनसाइक्लोपीडिया ; हार्नवे : प्रिंसिपल्स ऑव इलेक्ट्रिसिटी ऐंड मैगनेटिज्म ; जे. एफ. राइडर : कैथेड रे टयूब ऐट वर्क।