कैथोड किरणें

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लेख सूचना
कैथोड किरणें
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 134
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक अरविंदमोहन

कैथोड किरणें' सन्‌ 1897 के पूर्व विद्युत क्षेत्र में विरल गैसों में (रेयरिफायड गैसों) में विद्युद्विसर्जन (इलेक्ट्रिक डिस्चार्ज) संबंधी रोचक एवं महत्वपूर्ण प्रयोग किए गए थे। यदि किसी प्रेरणाकुंडली (इंडक्शन कॉयल) या अन्य प्रेरण मशीन के ऋणात्मक छोर को चित्र 1 की आकृति की काँच की पली न के अंत क से तथा धनात्मक छोर को अंत क 2 से संबद्ध करके सूक्ष्म छिद्र छ से नली की वायु को चूषक पंपों द्वारा निकाल दें तो विरल गैसों पर प्रयोग किए जा सकते हैं। वायु विरल होने पर (दाब- 0.11 मि. मी.) ऋणात्मक छोर पर एक कालापन बनता है और पूर्ण नली में चमकदार प्रकाश दिखाई पड़ता है। काले स्थान को क्रुक्स की कालिमा (क्रुक्स डार्क स्पेस) कहते हैं। यदि वायु को अधिक विरल कर दिया जाए तो यह कालिमा नली के दूसरी ओर तक बढ़ जाती है और अंत में काँच की दीवार तक अंधकार हो जाता है (दाब- 0.37 मि.मी.)। परंतु अब काँच की दीवार स्वयं चमकने लगती है तथा उसका वर्णा हरा अथवा नीला इत्यादि हो जाता है- रंग काँच के प्रकार पर निर्भर है। यदि नली में सूक्ष्म छिद्रयुक्त अभ्रक (माइका) के पर्दे प1, प2 रख दिए जाएँ तो काँच के छोर पर चमक केवल इन परदों के छिद्रों से होती हुई क,द में पहुँचती है। काँच पर होने वाली चमक को स्फुरदीप्ति (फ़ॉस्फोरेसेंस) कहते हैं।

गुण----पूर्वोक्त से स्पष्ट है कि ऋणात्मक छोर से कुछ कण नली के दूसरी ओर बहते या प्रवाहित होते हैं जिनको पर्दो से रोका जा सकता है। इस धारा का नाम ऋणाग्र किरण रखा गया है। कैथोड किरणों के निम्नलिखित गुण भौतिकी की पाठ्य पुस्तकों में विस्तारपूर्वक मिल सकते हैं :


कैथोड किरणें सदैव सीधी रेखा में चलती हैं। प्रयोग में किरण के पथ में बाधा रखने पर समान रूप की छाया बनाना इसका प्रमाण है। चित्र 2 से यह स्पष्ट है, जिसमें स्वस्तिकाकार बाधा की छाया दिखाई गई है।

किरणों के पथ में रखी हुई वस्तुओं पर यांत्रिक बल (मिकैनिकल फोर्स) पड़ता है। चित्र 3 में अभ्रक की हलकी हवा चक्की क1 से ख2 की ओर चलने लगती है----बल का यह स्पष्ट प्रमाण है।

वस्तुओं पर टकराकर ये किरणें उष्मा उत्पन्न करती हैं। यदि कैथोड अवतल (कनकेव) हो तो किरणों को एक बिंदु पर संगमित (फोकस) करते हुए प्लैटिनम आदि धातुओं को इतना तप्त किया जा सकता है कि वे लाल हो जाएँ। कैथोड किरणें विद्युतद्वारा के समान चुंबकीय क्षेत्र में अपनी दिशा बदल देती हैं। चुंबकीय बल की दिशा तथा किरणों की पहलेवाली दिशा दोनों से समकोण बनानेवाली दिशा की ओर किरणें चलने लगती हैं । किरणों के साथ ऋणात्मक आवेश रहता है। पेरिन ने सर्वप्रथम विद्युद्दर्शी या विद्युन्मापी द्वारा सिद्ध किया कि किरणें तीव्रगामी ऋणात्मक आवेश के कणों के समूह हैं। किरणें स्थिरविद्युतीय क्षेत्रों के कारण भी अपने पथ से विचलित हो जाती हैं। किरणें धनात्मक आवेशयुक्त छड़ की ओर आकर्षित होती हैं ।

उपर्युक्त प्रयोगों में विद्युदग्र (इलेक्ट्रोड) प्लैटिनम के लिए गए थे। कैल्सियम तथा बेरियम आदि के विद्युदग्र लेकर वेनेल्ट ने अत्यंतघनी ऋणाग्र किरणें उत्पन्न कीं।

टामसन के प्रयोग-----कैथोड किरणों का आवेश्युक्त कण होना सर जे. जे. टामसन ने अपने प्रसिद्ध प्रयोगों द्वारा प्रमाणित किया। आज पदार्थ के विद्युतसिद्धांत की दृष्टि से ये प्रयोग इतने महत्वपूर्ण हैं कि इनका संक्षिप्त विवरण आवश्यक है। चित्र 4 (क) में काँच की नली के भीतर अत्यल्प दबाव पर वायु है, अर्थात्‌ उसमें अत्यंत विरल वायु है। क1 ऋणाग्र है; क 2 एकविशेष धनाग्र है जिसमें आयताकार खिड़की बनी है। इस खिड़की के सामने तथा सुचालक तार से जुड़ी एक दूसरी समान खिड़की ख है। इस प्रकार ख से निकलने वाली कैथोड किरणों का एक समूह काँच नली के स्थान प, पर स्फुरदीप्ति उत्पन्न करता है। किरण पथ में दो विद्युदग्र ग तथा घ लगे हैं जिनके बीच विद्युत विभवांतर (पोटेंशियल डिफरेंस) वि (v) है। यदि घ धनात्मक है तो काँच पर का चमकीला स्थान प1 से नीचे प 2 पर आ जाता है। इन्हीं विद्युदग्रों के ऊपर नीचे दो हेल्महोल्ट्ज कुंडलियाँ, जिनका व्यास विद्युदग्रों की लंबाई के समान बनाया रहता है, लपेटी जाती हैं। इनमें प्रवाहित विद्युद्वारा का चुंबकीय बल इस चित्र के धरातल की लंब दिशा में रहता है। यदि बल की दिशा पाठक की ओर है तो प1 ऊपर की ओर हट जाएगा।

अब दो प्रयोग किए जा सकते है :

ग, घ पर स्थिरविद्युत्‌ विभवांतर लगाकर कुंडली में इतनी धरा प्रवाहित करें कि विभवांतर तथा कुंडली की धारा दोनों के होने पर प1 न, नीचे हटे और न ऊपर उठे, अर्थात्‌ विद्युत्‌ और चुंबकीय क्षेत्रों का बल किरणों पर समान ओर विपरीत पड़े।

चुंबकीय क्षेत्र के आभाव में दूरी प1, प2, की माप की जाए। इन दोनों प्रयोगों के द्वारा ऋणाग्र किरण के कणों के आवेश तथा द्रव्यमान (मास) का अनुपात मापना संभव है। ऋणात्मक आवेश की तीव्र गतिवाले कणों का वेग वे (v), द्रव्यमान द्र (m), तथा प्रत्येक कण के ऊपर आवेश की मात्रा मा (e), को पूर्वोक्त प्रयोग से ज्ञात किया जा सकता है। आवेग मा (e) के कणों के वेग वे (v) से विद्युत्‌-धारा-शक्ति मा, वे (ev), होगा। चुंबकीय क्षेत्र च (H) के लगाने पर कणों पर लगबा बल चु मा वे (Hev) होगा। गति की दिशा से लंब दिशा में लगा बल सदैव वृत्ताकार गति देता है।

अत: त्वरण वे2/त्र होगा जहां त्र (v2/r) (r) वृत्त का अर्धव्यास है। यदि कण का द्रव्यमान द्र (m) है तो

द्र वे2/त्र - चु मा वे [mv2/r=Hev]

या द्र वे/मा- चु त्र [mv/e=Hr]

अत: चुंबकीय क्षेत्र लगाने पर कणों में हुए विचलन द्वारा गा, (y) की माप की जा सकती हे । इसी प्रकार चुंबकीय प्रयोग द्वारा द्र,वे/मा (mv/e) मापा गया है।

यदि दोनों प्लेटों के बीच विद्युत्‌क्षेत्र वि (V) है तो कण पर बल मा, वि (eV) लगेगा। यदि यह विद्युतक्षेत्र कण पर चुंबकीय क्षेत्र के समान बल डालता हो तो,

मा वि = चु मा वे [ev=Hev]

या वि/चु- वे [V/H=v]

उपर्युक्त समीकरण (2) से वे (v) तथा इसका मान (1) में रखने पर ऋणाग्र किरणों का मा/द्र (e/m) विदित हो जाता है । इन प्रयोगों द्वारा मिले परिणाम निम्नांकित तालिका में दिए गए हैं :

गैस वे (v) मा/द्र* (e/m) वायु 2.8x109 7.7x 106 वायु 2.8x 109 9.1x 106 वायु 3.6x 109 7.7x 106 हाइड्रोजन 2.5x 109 6.7x 106 कार्बन डाइआक्साइड 2.2x 109 6.7x 106

[१]

टामसन के परिणाम से यह सिद्ध हो गया कि नली के भीतर की गैस का कोई प्रभाव राशि मा/द्र (m/e) पर नहीं पड़ता।

इनके प्रयोगों के उपरांत मा/द्र (e/m) का विशुद्ध मान संप्रति 1.7 x10 माना गया है ।

प्रसिद्ध ज़ीमान प्रभाव (ज़ीमान एफ़ेक्ट) द्वारा भी मा/द्र (e/m) का यही मान पाया गया। यह भी सिद्ध हुआ कि हाइड्रोजन आयन पर विद्युद्विश्लेषण (इलेक्ट्रॉलिसिस) के समय मिलनेवाला आवेश भी प्राय: इतना ही होता है।

डॉ. जान्स्टन स्टोनें ने सर्वप्रथम ऋणाग्र किरण के इन आवेशयुक्त कणों को इलेट्रान नाम दिया। विदित हुआ कि आवेश का यह अखंड एकक है। पदार्थो की संरचना में इसका विशेष महत्व है तथा निर्वात नली (वैक्युअम ट्यूब) के अविष्कार और प्रयोग में इन इलेक्ट्रानों का ही प्रमुख हाथ है।[२]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सेंटीमीटर-ग्राम-सेकंड प्रणाली में
  2. सं. ग्रं.- एस. जी. स्टार्लिग : इलेक्ट्रिसिटी ऐंड मैगनेटिज्म; जे. पेरिन : कांपटू रेंडू, खंड 121(1895), पृष्ठ 1130 ; ए. बैनेल्ट : फ़िलॉसॉफ़िलकल मैगजीन, खंड 10 (1905) पृ. 80; जे. टामसन: फ़िलॉसॉफ़िलकल मैगजीन, खंड 44 (1897), पृ. 293 तथा खंड 48 (1899), पृ. 517, पी. जीमान: फ़िलॉसॉफ़िलकल मैगजीन, खंड 43 (1897) पृ. 226।