कौषीतकि
कौषीतकि
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 194 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | रामांश्कर मिश्र |
कौषीतकि ऋ ग्वेद से संबद्ध उपनिषद्। इसकी गणना प्राचीन उपनिषदों में की गई है। इसका रचनाकाल ईसा पूर्व बारहवीं से छठी शती के मध्य अनुमान किया गया है। यह चार अध्यायों में विभक्त है। पहले अध्याय में देवयान और पितृयान मार्गों का वर्णन है। जो मृत्यु के बाद मनुष्य के भविष्य का निर्धारण करते हैं। देवयान मार्ग से जानेवाले जीव को संसार में फिर से जन्म नहीं लेना पड़ता। वह अंत में परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है। दूसरा मार्ग पितृलोक को जाता है। वहाँ से शुभ कर्मफल के क्षीण होने के बाद जीव को फिर जन्म-मरण-रूपी संसार में लौटना पड़ता है। दूसरे अध्याय में तत्कालीन सामाजिक रीतियों, उपासनाओं तथा इच्छित वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए धार्मिक अनुष्ठानों का वर्णन है। इसमें प्राण तत्व के स्वरूप का भी संक्षेप में प्रतिपादन किया गया है। इसमें कौषीतकि, पैंग्य, प्रतर्दन और शुष्कभृंगार इन चार दार्शनिकों के सिद्धांतों का उल्लेख है। कौषीतकि और पैंग्य के अनुसार प्राण ब्रह्म है। इंद्रियों और मन की अपेक्षा प्राण श्रेष्ठ है क्योंकि इनके बिना मनुष्य जीवित रह सकता है पर प्राण के बिना नहीं। तीसरे अध्याय में इंद्र और प्रतर्दन के संवाद में प्राण को समस्त ज्ञान तथा क्रियाओं का अधिष्ठान तथा मूल कारण माना गया है। प्राण चेतन है। वह प्रज्ञात्मक अथवा चेतन आत्मा है। वही प्रज्ञा अथवा स्वयंप्रकाश ज्ञान है। समस्त ज्ञानेंद्रियाँ कर्मेद्रियाँ तथा मन प्रज्ञा के ही विभिन्न अंग हैं। प्रज्ञा के ही कारण इंद्रियों द्वारा अपने विभिन्न विषयों की अनुभूति तथा शरीर की विभिन्न क्रियाएँ संभव हैं। इस प्रकार प्राण को जीवन तत्व, प्रज्ञा, चेतन आत्मा तथा ब्रह्म कहा गया है। वह आनंदमय, अविनाशी तथा अमृततत्व है। चौथे अध्याय में ब्रह्म अथवा परमतत्व के विषय में बालाकि और अजात शत्रु का संवाद है। इसका उल्लेख बृहदारण्यक में भी मिलती है। बालाकि सूर्य, चंद्रमा, विद्युत, आकाश, वायु, अग्नि, जल, शब्द छायाशरीर, प्रज्ञा आदि सत्रह तत्वों को ब्रह्म अथवा पुरु ष की संज्ञा देते हैं। अजातशत्रु इन सबको परमतत्व के रूप में स्वीकार नहीं करते। वह इनको ब्रह्म के कार्य मानते हैं। ब्रह्म इन सभी कार्यों का कारण है, इनका ईश्वर है और इन सबसे परे है। वही पारमार्थिक ज्ञान का विषय है। जाग्रत और सुषुष्तावस्था के विश्लेषण से ब्रह्म अथवा आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करने का भी यहाँ प्रयत्न किया गया है।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं. ग्र.-बेलवलकर और राणाडे : हिस्ट्री ऑव इंडियन फ़िलासाफ़ी, भाग 2; मैक्सम्युलर : सैक्रेड बुक्स ऑव द ईस्ट, भाग 1; राणाडे : कांस्ट्रक्टिव सर्वे ऑव, उपनिषदिक फ़िलासॉफ़ी।