क्षारीय और लवणमय भूंमि
क्षारीय और लवणमय भूंमि
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 266 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | राधारमण अग्रवाल |
क्षारीय और लवणमय भूमि उस प्रकार की भूमि को कहते हैं जिसमें क्षार तथा लवण विशेष मात्रा में पाए जाते हैं। शुष्क जलवायुवाले स्थानों में यह लवण श्वेत या भूरे श्वेत रंग के रूप में भूमि पर जमा हो जाता है। यह भूमि पूर्णतया अनुपजाऊ एवं ऊसर होती हैं और इसमें शुष्क ऋतु में कुछ लवणप्रिय पौधों के अलावा अन्य किसी प्रकार की वनस्पति नहीं मिलती। पानी का निकास न होने के कारण बरसात में इन भूमिखंडों पर बरसाती पानी अत्यधिक मात्रा में भरा रहता है। यह पानी कृत्रिम नालियों के अभाव, प्राकृतिक ढाल की कमी एवं नीचे की मिट्टी के अप्रवेश्य होने के कारण भूमिखंडों से बाहर नहीं निकल पाता और गरमी पड़ने पर वायुमंडल में उड़कर सूख जाता है। बरसात में यह गँदला बना रहता है और सूखने पर भूमि की सतह पर लवण छोड़ देता है तथा साथ ही साथ इसे क्षारीय बना देता है।
विभिन्न प्रांतों में इस भूमि को अलग अलग नामों से पुकारते हैं, जैसे उत्तर प्रदेश में ऊसर या रेहला, पंजाब में ठूर, कल्लर या बारा, मुंबई में चोपन, करल इत्यादि। ऐसी भूमि अधिकतर उत्तर प्रदेश, पंजाब एवं बंबई प्रांतों में पाई जाती है। हैदाराबाद तथा मद्रास में भी यह मिलती है। ऐसी भूमि तीन मुख्य श्रेणियों की होती है। पहली वह जिसमें केवल लवण की मात्रा अधिक हो, दूसरी वह जिसमें लवण तथा क्षार दोनों वर्तमान हों और तीसरी वह जिसमे क्षार अधिक हो तथा लवण कम हो। रासायनिक तरीकों द्वारा इस भूमि को पहचाना जाता है। इस भूमि का पुननिर्माण करने के लिये अधिक मात्रा में पानी भरकर लवण को घुल जाने देते हैं। फिर यह पानी कृत्रिम नालियों द्वारा बाहर निकाल देते हैं। अधिक क्षारवाली भूमि में जिप्सम का चूर्ण और विलेय कैलसियमयुक्त पदार्थ का प्रयोग आवश्यक हो जाता है। प्रारंभ में केवल लवण और जलप्रिय पौधे, जैसे धान वा जौ, उगाए जाते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ