गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 202
भगवान् के साथ एकत्व, सब प्राणियों के साथ एकत्व, सर्वत्र सनातन भागवत एकता का अनुभव और इसी एकता की ओर मनुष्यों को आगे बढ़ा ले जाना , यही वह जीवन - विषयक धर्म है जो गीता की शिक्षा से उद्भूत होता है। इससे अधिक महान् , अधिक व्यापक , अधिक गंभीर और कोई धर्म नहीं हो सकता। स्वयं मुक्त होकर इस एकत्व में रहना और मानव - जाति को इसी रास्ते पर आगे बढ़ने में मदद देना तथा अपने सब कर्मो को भगवान् के लिये करते हुए , और मनुष्यों को जिसका जो कर्तव्य कर्म है उसे हर्ष और उत्साह के साथ करने में बढ़ावा देना, इससे अधिक महान् और उदार दिव्यकर्मविधान नहीं हो सकता। यह मुक्त स्थिति और यह एकत्व हमारी मानव - प्रकृति का गुप्त लक्ष्य है और यही मानव - जाति के जीवन में अंतर्निहित चरम इच्छा है। इसी की ओर मनुष्यजाति को उस सुख की प्राप्ति के लिये मुड़ना होगा जिसे वह अभीतक नहीं खोज पायी। पर यह तब होगा जब मनुष्यों की आखें खुलेंगी और वे अपनी इन आंखो और अपने इन हृदयों को ऊपर उठाकर अपने में, अपने चारों ओर, सब भूतों में, और ‘सर्वत्र’ भगवान् को देखने लगेंगे और यह जान लेंगे कि हम तब भगवान् में ही रहते हैं और हमारी यह भेदजनक निम्न प्रकृति केवल एक कैदखाने की दीवार है जिसे तोड़ डालना होगा, या फिर यह बच्चों के पढ़ने की एक पाठशाला है जिसकी पढ़ाई खतम करके आगे बढ़ना होगा जिससे हम प्रकृति में प्रौढ़ और आत्मा में मुक्त हो जायें। ऊध्र्वस्थित भगवान् के साथ एकात्मभाव को प्राप्त होना ही मुक्ति का अभिप्राय और संसिद्धि का रहस्य है।
« पीछे | आगे » |