गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 258

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां

सूर्य की प्रभा, मनुष्य में पौरूष , बुद्धिमानों में बुद्धि, तेजस्वियों में तेज, बलवानों में बल, तपस्वियों में तप, हूं।”[१] ‘‘ सब भूतों में मैं जीवन हूं।” प्रत्येक उदाहरण में उस असली गुण की ही ऊर्जा का संकेत किया गया है - ये सब भूतभाव जो कुछ बने हैं उसके लिये वे इसी शक्ति पर निर्भर हैं। वह मूलभूत गुण ही वह विशिष्ट लक्षण हैं जो समस्त भूतभाव की प्रकृति में भगवती शक्ति की सत्ता को लक्षित करता है। भगवान् फिर कहते हैं, ‘‘ सब वेदों में मैं प्रणव हूं ” अर्थात् वह मूल ध्वनि हूं जो श्रुत शब्द समस्त सृष्टिशक्तिशाली ध्वनियों का मूल है। ऊँ ही स्वर और शब्द की शक्ति का वह एकमात्र विराट् रूप है जिसमें वाक् और शब्द की समस्त आध्यात्मिक शक्ति और विकास - संभावना अंतर्भूत और एकत्र है। इसीमें ये सब शक्तियां समन्वित रहती और इसीमें से बाहर लिनकलती हैं। इसीमें से वे अन्य ध्वनियां निकलती और इसीका विकास मानी जाती हैं जिनमें से भाषाओं के शब्द निकलते और बुने जाते हैं। इससे यह बात स्पष्ट हो जती है । इन्द्रिय, प्राण, ज्योति, बुद्धि, तेज, बल, पौरूष, तप आदि के बाह्म प्राकृत विकास परा प्रकृति की चीज नहीं हैं, बल्कि परा प्रकृति वह मूलभूत गुण है जो अपनी आत्मस्वरूप शक्ति में ही स्थित है और वही स्वभाव है।
आत्मा की जो शक्ति इस प्रकार व्यक्त हुई है, आत्मचैतन्य की जो ज्योति तथा व्यक्त वस्तुओं में उसके तेज की जो शक्ति है वही अपने विशुद्ध मूल स्वरूप में आत्म - स्वभाव है। वह शक्ति, ज्योति ही वह सनातन बीज है जिसमें से अन्य सब चीजें विकसित और उत्पन्न हुई हैं। अन्य सब चीजें इसीकी परिवर्तनशील और नमनीय अवस्थाएं हैं। इसीलिये इस सिलसिले के बीच में गीता एक सर्वसामान्य सिद्धांत के तौर पर यह बात कह जाती है कि , ‘‘ हे पार्थ , मुझे सब भूतों का सनानत बीज जानो।”[२] यह सनातन बीज आत्मा की शक्ति , आत्मा की सचेतन इच्छा है, वह बीज है जिसे, गीता ने जैसा कि अन्यत्र बतलाया है कि , भगवान् महत् ब्रह्म में, विज्ञान में, विज्ञान - स्वरूप महत् में आधन, स्थापित करते हैं और उसीसे सब भूतों की उत्पत्ति होती है। यही वह आत्मशक्ति है जो सब भूतों में मूलभूत गुण - रूप से प्रकट होती और उनका स्वभाव बनती है।इस मूलभूत गुणरूप शक्ति और अपरा प्रकृति का इन्द्रिय - मनोगोचर प्राकृत विकार अर्थात् विशुद्ध वस्तुतत्व और इसका अपर रूप, इन दोनों में जो यथार्थ भेद है, वह इस सिलसिले के अंत में स्पष्ट रूप से दरसा दिया गया है। ‘‘ बलवानों का में बल हूं कामरागविर्जित ” अर्थात् विषयों के प्राकृत भोग- सुख से सर्वथा अनासक्त ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 7.8 -11
  2. 7.10

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