गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 260

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां

क्या इस आध्यात्मिक काम का अभिप्राय पुण्य काम, नैतिक , सात्विक क काम है - कारण , पुण्य की उत्पत्ति और प्रवृत्ति सदा सात्विक ही हुआ करती है? परंतु ऐसा सामने से स्पष्ट ही परस्पर - विरोध , ‘ वदतो व्याघात’ का दोष आता है, क्योंकि इसके बाद के चरण में ही यह बात कही गयी है कि सब सात्मिवक भाव भी भगवद्रूप नही बल्कि निम्नजात विकार हैं। भगवान् के सान्निध्य में पहुंचने के लिये पाप का तो परित्याग करना ही पड़ता है, पर यदि भगवत् - स्वरूप में प्रवेश करना है तो उसी प्रकार पुण्य को भी पार कर जाना पड़ता है। पहले सात्विक तो बनना ही होगा, पर पीछ उसे भी पीछे छोड़कर आगे बढ़ना होगा। नैतिक सदाचार केवल चित्तशुद्ध का साधन है। इससे भागवत प्रकृति की ओर हम ऊंचे उठ सकते हैं, पर वह प्रकृति स्वयं ही द्वन्द्वातीत होती है, - और वास्तव में यदि ऐसा न होता तो विशुद्ध भागवत सत्ता या भागवत शक्ति किसी ऐसे बलवान् मनुष्य में कभी न रह सकती जो राजस कामक्रोध के अधीन होता है। आध्यात्मिक अर्थ में धर्म नीतिमत्ता या सदाचार ही नहीं है। गीता ने अन्यत्र कहा है कि धर्म वह कर्म है जो स्वभाव के द्वारा अर्थात् अपनी प्रकृति के मूलभूत विधान के द्वारा नियत होता है। और यह स्वभाव मूलतः आत्मा की ही अंतःस्थित चिन्मयी इच्छा और विशिष्ट कर्मशक्ति का ही विशुद्ध गुण है।
अतः काम का अभिप्राय यहां हमारे अंदर रही हुई उस सहेतुक भगवदिच्छा से है जो निम्न प्रकृति के आमोद की नहीं बल्कि अपनी ही क्रीड़ा और आत्मपूर्णता के आनंद की खोज करती और उसे ढ़ूंढ़ निकालती है; यह जीवलीला के उस दिव्य आनंद की कामना है जो स्वभाव के विधान के अनुसार अपनी सज्ञान कर्म शक्ति को प्रकट कर रहा है। पर फिर इस कथन का क्या अभिप्राय है कि भगवान् भूतों में, अपरा प्रकृति के रूपों और भावों में, सात्विक भावों तक में नहीं हैं, यद्यपि वे सब हैं उन्हींकी सत्ता के अंदर? एक अर्थ से तो भगवान् का उनके अंदर होता स्पष्ट ही अनिवार्य है, क्योंकि इसके बिना उन सब पदार्थो का रहना ही संभव नही हो सकता । अभिप्राय तब यही हो सकता है कि भगवान् की जो वास्तविक परा आत्मप्रकृति है उस रूप में भगवान् उनके अंदर कैद नहीं हैं; बल्कि ये सब विकार उनहीं की सत्ता में अहंकार और अज्ञान के कर्म द्वारा उत्पन्न होते हैं। अज्ञान में सभी चीजें उल्टी दिखायी देती हैं और एक प्रकार की मिथ्या की ही अनुभूति होती हैं। हम लोग समझते हैं कि जीव इस शरीर के अंदर है, शरीर का ही एक परिणाम और विकार है; ऐसा ही हम उसे अनुभव भी करते हैं; पर सच तो यह है कि जीव के अंदर शरीर है ओर वही जीव का परिणम और विकार है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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