गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 28

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गीता-प्रबंध
4.-उपदेश का कर्म

इसमें संदेह नहीं कि गीता कर्मयोग-शास्त्र है, पर उन कर्मों का जो ज्ञान में अर्थात् आध्यात्मिक सिद्धि में और शांति में परिसमाप्त होते हैं, उन कर्मों का जो भक्ति प्रेरित हैं, अर्थात् यह वह ज्ञान युक्त सचेतन शरणागति है जिसमें भक्त कर्मी अपने-आप को पहले भगवान् के हाथों में सौंप दता है और फिर भगवान् की सत्ता में प्रवेश करता है, यह उन कर्मों का शास्त्र हर्गिज नहीं है जिन्हें आधुनिक मन कर्म का मान का बैठा है, उन कर्मों का बिल्कुल नहीं जो अहंकार और परोपकार के भाव से किये जाते हैं या जो वैयक्तिक, सामाजिक और भूतदया के विचारों, सिद्धांतों और आदर्शों से प्रेरित होते हैं। फिर भी गीता के आधुनिक टीकाकर यही दिखाना चाहते हैं कि गीता में कर्म का आधुनिक आर्दश ग्रहण किया गया है। कितने ही अधिकारी पुरुषों द्वारा लगातार यह कहा जाता है कि भारतीय विचार और आध्यात्मिकता की जो सामान्य प्रवृत्ति है कि मनुष्य को वैरागी और शांतिकामी निवृत्तिमार्गी बना दे, उसका गीता विरोध करती है, यह स्पष्ट शब्दों में कर्म के मानव सिद्धांत का, अर्थात् सामाजिक कर्तव्यों को निःस्वार्थ भाव से करने के आदर्श का, इतना हीं नहीं, बल्कि समाज सेवा के सर्वथा आधुनिक आदर्श का भी प्रतिपादन करती है।
इन सब बातों का उत्तर मेरे पास इतना ही है कि गीता में, स्पष्ट ही, और केवल इसका ऊपरी अर्थ ग्रहण करते हुए भी, इस तरह की कोई बात नहीं है, यह केवल आधुनिकों की समझ का फेर है, कुछ-न-कुछ समझ लेना है, यह एक प्राचीन ग्रंथ को अर्वाचीन बुद्धि समझने का फल है, सर्वथा पुरातन, प्राच्य और भारतीय शिक्षा को वर्तमान यूरोपीय या यूरोपीयकृत बुद्धि से जानने की व्यर्थ चेष्टा है। गीता जिस कर्म का प्रतिपादन करती है वह मानव-कर्म नहीं बल्कि दिव्य कर्म है, सामाजिक कर्तव्यों का पालन नहीं बल्कि कर्तव्य और आचरण के अन्य सब पैमानों को त्यागकर अपने स्वभाव के द्वारा कर्म करने वाले भागवत-अधिकृत महापुरुषों का कर्म है जो नाहंकृत भाव से संसार के लिये नहीं उन भगवान् की प्रीतिपूजा के तौर पर यज्ञ-रूप से किया जाता है जो मनुष्य और प्रकृति के पीछे सदा विद्यमान हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो, गीता नीतिशास्त्र या आचारशास्त्र का ग्रंथ नहीं हैं, बल्कि अपने आध्यात्मिक जीवन का ग्रंथ है। आधुनिकों की बुद्धि वर्तमान समय में यूरोपीय बुद्धि है जो अपने मूल सूत्र-स्वरूप यूनानी-रूमी संस्कृति की परमोच्च अवस्था के दार्शनिक आदर्शवाद का ही नहीं, बल्कि मध्यकालीन युग के ईसाई भक्तिवाद का भी परित्याग करके भी ऐसी बन गयी है। दार्शनिक आर्दशवाद और भक्तिवाद के स्थान पर इसने व्यावहारिक आर्दशवाद और समाज सेवा, देशसेवा और मानव सेवा का भाव ला बैठाया है। ईश्वर से इसने छुटकारा पा लिया है अथवा यह कहिये कि ईश्वर को केवल रविवार की छुट्टी के लिये रख छोड़ा है और ईश्वर के स्थान पर देवरूप से मनुष्य को और प्रत्यक्ष पूज्य प्रतिमा रूप से समाज को प्रतिष्ठित किया है। अपनी सर्वोत्तम अवस्था में यह व्यवहार्य, नैतिक और सामाजिक है, इसमें कर्मनिष्ठा है, परोपकार की और मनुष्य जाति को सुखी करने की अभिलाषा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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