गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 328

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य

[१]भगवान् श्रीमुख से कहते हैं , ‘‘ मैं अपनी इच्छा से तेरे हित के लिये वह परम वचन तुझसे कहूंगा , क्योंकि अब तेरा हृदय मेरे अंदर आनंद ले रहा है ”, क्योंकि भगवान् में हृदय की यह प्रीति होना ही सच्ची भक्ति का संपूर्ण घटक और सारतत्व है। कहा है , ज्यों ही परम वचन सुनाया जाता है अर्जुन तुरंत उसे ग्रहण करता और यह पूछता है कि प्रकृति के इन सब पदार्थों में मैं भगवान् को कैसे देखूं , और उसी प्रश्न से तुरंत और स्वभाविक रूप से विश्व के आत्मारूप भगवान् के दर्शन होते हैं और तब जगत्कर्म का वह भीषण आदेश आता है।[२]भगवान् के विषय में गीता का यह आग्रह है कि भगवान् इस सारे जगत् और जागतिक जीवन के संपूर्ण रहस्य के निगुढ़ मूल हैं ,यह ज्ञान मोक्षदायक होने के साथ - साथ वह ज्ञान है जो काल के अंदर होने वाले इस सारे विश्वकर्म प्रवाह और कालातीत सनातन सत्स्वरूप के बीच दीख पड़नेवाली खाई को पाट देता है।
पर ऐसा करते हुए यह ज्ञान इन दोनों में से किसी को भी असत् नहीं ठहराता , न किसी के भी सत्स्वरूप से कोई चीज निकाल लेता है ; प्रत्युत यह सारा विश्व ही ईश्वर है अथवा इस इस विश्व का कोई विश्वातीत ईश्वर है या जो कोई परम तत्व हमारे आध्यात्मिक ध्यान में या आत्मानुभूति में आते हैं , उन सब का इस ज्ञान में सामंजस्य हो जाता है। भगवान् अज अविनाशी अनतं आत्मा हैं जिनका कोई आदि नहीं ; काई ऐसी चीज न है न हो सकती है जिसमें से वे निकले हों , क्योंकि वे एक हैं , कालातीत हैं , निरपेक्ष हैं। ‘‘ मेरा जन्म न देवता जानते हैं न महर्षि ही ..... जो मुझे अज अनादि जानता है ”[३] इत्यादि इस परम वचन के अपोद्घात हैं , और यह परम वचन यह आश्वासन देता है कि यह ज्ञान सीमित करनेवाला अथवा बौद्धिक ज्ञान नहीं है , क्योंकि उस परम पुरूष का रूप और स्वभाव , उसका स्वरूप , - यदि उसके लिये इन शब्दों का प्रयोग किया जा सकता हो , - मन के द्वारा चिंत्य नहीं हैं , बल्कि यह विशुद्ध आत्मानुभूत ज्ञान है और यह मत्र्य मनुष्य को अज्ञान के सारे असमंजस से तथा सब पाप , दुःख ओर बुराई के सारे बंधनों से मुक्त करता है - जो जानव जीव इस परम आत्ज्ञान के प्रकाश में रह सकता है वह जगत् के काल्पनिक या इन्द्रियगोचर अर्थो के रे पहुंचता है । वह उस अद्वैत की अनिर्वचनीय शक्ति को प्राप्त होता है जो सबके अतीत होने पर भी सबका पूरण करनेवाला है , जो सबके परे भी और यहां भी एकरस है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10.1
  2. 10. 1 – 18
  3. 10.2 – 3

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