गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 330

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य

ये ऋिषि वेदों की सर्वधारक , सर्वबोध , सर्वप्रकाशक के रूप हैं - उपनिषदें सब पदार्थो को सप्त सप्त अर्थात् सात् - सात की पंक्ति में व्यव्यस्थित बतलाती हैं। इनके साथ ही चार शाश्वत मनु अर्थात् मनुष्य के मूलपुरूष हैं - क्योंकि परमेश्वर की कर्मप्रकृति चमुर्विध है और मानवजाति इस प्रकृति को अपने चतुर्विध चारित्र्य से प्रकट करती है। ये भी , जैसा कि उनके नाम से प्रकट है , मनोमय पुरूष हैं । इसे समूचे जीवन के , जिसकी क्रिया व्यक्त् या अव्यक्त मानस पर निर्भर करती है , ये स्त्रष्टा हैं , उन्हींसे जगत् के ये सब प्राणी उत्पन्न हुए हैं ; सब उन्हींकी पूजा और संतति हैं। और ये महर्षि तथा ये मनु स्वयं भी परम पुरूष के चिरंतन मानस पुत्र हैं[१] जो उनके आध्यात्मिक परम भाव से विश्व - प्रकृति के अंदर उत्पन्न हुए हैं। ये मूल पुरूष हैं और जगत् में जो - जो उत्पादक हैं उन सबके मूल भगवान् हैं।
सब आत्माओं की आत्मा , सब जीवों के जीव , अखिल मानस के मानस , अखिल जीवन के जीवन , सब रूपों के सारतत्व स्वरूप से स्वतःसिद्ध परम तत्व हैं , हम जो कुछ हैं उससे सर्वथा उल्टे नहीं , बल्कि इसके विपरीत हमारे और जगत् के संपूर्ण सद्रूप और प्राकृत रूप के सारे तत्वों और शक्तियों के स्वतःसिद्ध उत्पादक और प्रकाशक हैं। हमारे जीवन के ये परम मूल हमसे किसी ऐसी खाई द्वारा पृथक् नहीं हैं जिसे पाटा न जा सके और न वे इन प्राणियों को , जो उन्हींसे निकले हैं , अपनी संतान मानने से इंकार करते हैं न इन सबको वे भ्रम की सृष्टि ही बतलाते हैं। वे ही सदात्मा हैं और सब उन्हींके भूतभाव हैं। वे शून्य में से , किसी अभाव में से या स्वप्न - रूप मिथ्यात्व में से कोई पदार्थ नहीं निर्मित करते । अपने - आपमें से निर्मित करते हैं , अपने अंदर ही वे उत्पन्न होते हैं ; सब उन्हीके सद्रूप में हैं , सब कुछ उन्हींके सद्रूप से है। जगत के पदार्थों की ओर देखने की जो विश्वदेववाद की दृष्टि है उसका अंतर्भाव इस सिद्धांत में हो जाता है और फिर यह सिद्धांत उसके आगे बढ़ता है। वासुदेव ही सब हैं , क्योंकि जगत् में जो प्रकट नहीं है तथा वह सब भी जो कभी व्यक्त नहीं होता । उनका सत्स्वरूप किसी प्रकार भी उसके भूतभाव से सीमित नहीं है ; इस सापेक्ष जगत् से वह किसी अंश से भी बंधे नहीं हैं। सर्वभूत होने में भी वे हैं सर्वातीत ही ; सांत रूपों को धारण करते हुए भी वे हैं सदा वही अनंत ही ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मद्भावा मानसा जाताः ।

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