गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 336

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
7.गीता का महाकाव्य

यह योग जब एक बार सिद्ध हो जाता है तब ऐसे अव्यभिचारी सुस्थिर योग के द्वारा , वह प्रकृति के किसी भी भाव में तन्निष्ठ हो सकता है , किसी भी मानव अवस्था को धारण कर सकता है , चाहे जो जगत् कर्म कर सकता है , और यह सब करते हुए वह भगवदीय आत्स्वरूप के साथ अपने एकत्वभाव से च्युत नहीं होता , सर्वसत्ताधारी परमेश्वर के साथ निरंतर मिलन से किंचित् भी नियुक्त नही होता।[१] यह ज्ञान जब हृदय , मन और शरीर की सारी प्रकृति पर अपना पूरा प्रभाव डालकर भाव में परिणत होता है तब यही स्थिरा और भक्ति और प्रगाढ़ प्रेम बन जाता है उन आदिकारण परम पुरूष के प्रति जो हमारे ऊपर हैं , यहां सर्वत्र सदा सब पदार्थों के नियंता प्रभु के रूप से अवस्थित हैं , मनुष्य में हैं , प्रकृति में हैं। यह ज्ञान प्रथमतः बुद्धि का ज्ञान होता है ; पर पीछे हृदय में भी इसका ‘ भाव ’ उदित होता है।[२] हृदय और बुद्धि का यह परिवर्तन समस्त प्रकृति के संपूर्ण परिवर्तन का आरंभ है। एक नया अंतर्जन्म और एक नयी स्मृति हमें अपने भक्ति - प्रेम के परमाराध्य के साथ एकत्वलाभ के लिये , तैयार करती है। इस भागवत पुरूष को , जो अब संसार में सर्वत्र और संसार के ऊपर दीख पड़ता है , महत्ता , सौन्दर्य तथा पूर्णता में वह प्रीति को , प्रेम के प्रगाढ़ आनंद को प्राप्त होता है।
वह प्रगाढ़ आनंद मन के इधर - उधर छितरे हुए बहिर्भूत जीवन - सुख का स्थान स्वयं ग्रहण कर लेता है ; बल्कि यह कहिये कि वह परमानंद और सब सुखों को अपने अंदर खींच लेता और एक विलक्षण रसक्रिया के द्वारा मन - बुद्धि और हृदय के सब भावों और इन्द्रियों के सब व्यापारों को रूपंतरित कर डालता है। सारी चेतना ईश्वरवादी हो जाती और ईश्वर की प्रत्युत्तर देती चेतना से भीर जाती है ; सारा जीवन - प्रवाह आनंदानुभव के समुद्रों में जा मिलता है। ऐसे भक्तों के सब भाषण और चिंतन भगवान् के ही संबंध में परस्पर कथन और बोधन होते हैं। उस एक आनंद में पुरूष का सारा संतोष और प्रकृति की सरी क्रीड़ा और सुख केद्रीभूत हैं। चिंतन और स्मरण में वही मिलन क्षण - प्रतिक्षण सतत होता रहता है , आतम के अंदर अपने आत्मैक्य की अनुभूति निरंतर बनी रहती है। और जिस क्षण से इस आंतरिक स्थिति का आरंभ होता है उसी क्षण से , अपूर्णता की उस अवस्था में भी , भगवान् पूर्ण बुद्धियोग के द्वारा उसे दृढ़ करते हैं। हमारे अंदर में जो प्रज्जवलित ज्ञानदीप है उसे उठाकर वे दिखाते हैं और पृथग्भूत मन और बुद्धि का अज्ञान नष्ट कर मानव आत्मा के अंदर स्वयं प्रकट होते हैं। इस प्रकार कर्म और ज्ञान के ज्ञानदीप मिलन पर आश्रित बुद्धियोग के द्वारा जीव अधःस्थित त्रस्त मन की परंपरा से निकलकर कर्मकन्नीं प्रकृति के ऊपर साक्षी चैतन्य अक्षर शांति को प्राप्त हो चुका। पर अब इस महत्तर बुद्धियोग के द्वारा जिसका आधार भक्ति - प्रेम और समग्र ज्ञान - विज्ञान का ज्ञानदीप्त मिलन है , जीव एक बृहत् महाभाव में डूबकर उन परम पुरूष परमेश्वर को प्राप्त होता है जो एकमेवाद्वितीय हैं , सर्व हैं और सर्व के स्वयं प्रभव हैं। इस प्रकार सनातन पुरूष व्यष्टिपुरूष और व्यष्टिप्रकृति में भर जाते हैं ; व्यष्टिपुरूष काल के अंदर आवागमन से निकलकर सनातन के अनंत भावों को प्राप्त होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते। 6.31
  2. बुधा भाव समन्विताः।

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