गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 57

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गीता-प्रबंध
7.आर्य क्षत्रिय -धर्म

आगे चलकर स्वयं भगवान् ही एक अध्याय में दैवी प्रकृति की संपदाओं को गिनाते हुए प्राणिमात्र पद दया , मृदुता, अक्रोध, अंहिसा आदि गुणों को अभय,वीर्य और तेज के बराबर ही आवश्यक बतलाते है । क्रूरता ,कठोरता, भयानकता और शत्रुओं के वध में हर्ष , धन - संचय और अन्यायपूर्ण भोग आसुरी गुण है ; इनकी उत्पत्ति उस प्रचंड आसुरी प्रकृति से हाती है जो जगत् में और मनुष्य में भगवान् की सत्ता नहीं मानती और कामना को ही अपना आराध्य देव जानकर पूजती है । तो ऐसे किसी दृष्टिकोण से अर्जुन की दुर्बलता फटकारी जाने लायक नहीं है ।“यह विषाद ,यह कलंक , यह अज्ञान ऐसे विकट संकट के समय तुझमें कहां से आया ? “[१]श्रीकृष्ण अर्जुन से पूछते हैं । प्रश्न का इशरा है अर्जुन के अपने वीर स्वभाव से रस्खलित होने के वास्तविक स्वरूप की ओर । एक दैवी करूणा होती है जो हम पर ऊपर से उतरती है और जिस मनुष्य की प्रकृति में यह दया नहीं है , जिसका चरित्र इस दया के सांचे में ढला हुआ नहीं है उसका अपने - आपको श्रेष्ठ मुनष्य , सिद्ध पुरूष या अतिमानव बतलाना मूर्खता और धृष्टतामात्र है, कारण अतिमानव उसी को कहना चाहिये जिसके द्वारा मानव जाति के अंदर भगवान् का उच्चतम स्वभाव व्यक्त होता है । यह करूणा युद्ध और संघर्ष, मनुष्य की ताकत और दुर्बलता ,उसके पुण्य और पाप , उसके सुख और दु:ख, उसके ज्ञान और अज्ञान, उसकी बुद्धिमता ओर मूर्खता , उसकी अभीप्सा और असफलता , इन सभी द्वंदों को प्रेम की, ज्ञान की और स्थिर साम्थ्र्य की दृष्टि से देखती है और उनमें प्रवेश करके सबकी सहायता करती और सबके क्लेश का निवारण करती है । साधु पुरूषों और परोपकारियों में यह दया प्रेम या उदारता की प्रचुरता के रूप में मूर्त होती है ; विचारकों ओर वीरों में यह सहायक ज्ञान एवं बल की विशालता तथा शक्ति का रूप धारण करती है ।
आर्य योद्धा में यह करूणा ही उसके शौर्य का प्राण होती है , जो किसी मरे को नहीं मारा करती , बल्कि दुर्बल,दीन ,पीडित,पराभूत ,आहत और गिरे हुए की सहायता और रक्षा करती है । परंतु वह भी दैवी करूणा की है जो बलशाली पीड़क और धृष्ट अत्याचरी को मार गिराती है , क्रोध ओर घृणा से नहीं ,- क्योकि क्रोध और घृणा कोई बड़े दैवी गुण नहीं हैं , पापियों पर ईश्वर का कोप, दुष्टों से ईश्वर की घृणा इत्यादि बातें अद्र्व - प्रबुद्ध संप्रदायों की वैसी ही कल्पित कहानियां है जेसी उनकी ईजाद की हुई बाह्म नरको की नानाविध स्थूल यंत्रणाओं की कहानियां । जैसा कि प्राचीन आध्यात्मिकता ने स्पष्ट रूप से देखा , यह दैवी करूणा जब बल के मद से मत पापी दैत्य की हत्या करती है तब भी इसमें वही प्रेम और अनुकंपा होती है जो प्रेम और अनुकंपा उन दीन - दुखियों और पीड़ीतों पर होती है जिन्हे उस दैत्य की हिंसावृत्ति और अन्याय से इसे बचाना है ।परंतु जो दया अर्जुन को उसके कर्म और जीवन के लक्ष्य का परित्याग करने के लिये उकसा रही है वह दैवी करूणा नहीं है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1गीता, 2.2

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