गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 63

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गीता-प्रबंध
7.आर्य क्षत्रिय -धर्म

यह वह ऊध्र्व - गति है जिससे मुनष्य मन से अनुप्राणित शरीर के रूप में न रहकर अंत में आत्मा होकर आत्मा में ही रहने लगता है । जो कोई शोक और दु:ख के वशीभूत होता है , इंद्रियानुभवों और भावावेगों का दास बनता है, क्षणभंगुर और अनित्य मात्रास्पर्शो में लिप्त रहता है , वह अमृत्व का अधिकारी नहीं हो सकता । इन सबको तब तक सहना होगा जब तक इन पर प्रभुत्व यह उच्च और महान् ज्ञान , - मन और आत्मा का यह कष्ट साध्य आत्मनुशासन जिसके द्वारा उसे भावावेगों के कोलाहल और इन्द्रियों के धोखों के परे आत्मज्ञान में ऊपर उठना - है हमें शोक और मोह से तो मुक्त कर सकता है ; मत्यु का भय और मरे हुओं का शोक तो इससे दूर हो सकता है ; इससे यह बोध भी हो सकता है कि जिन्हें हम मरा हुआ जानते हैं वे मरे हुए हैं ही नहीं , उनके लिये शोक करने की कोई बात नहीं क्योंकि वे केवल परलोक गये हैं , साथ ही वह शिक्षा मिल सकती है जिससे हम जीवन के भयंकर थपेडो को और शरीर की मृत्यु को अविचलित भाव से एक मामूली घटना के तौर पर देख सकें ; इससे हम इतने ऊचें उठ सकते हैं कि जीवन की सारी अवस्थाओं को उसी “एक” का प्राकटय जानें और यह जानें कि ये हमारी आत्माओं के लिये जगत् के बाह्म दृश्यों से ऊपर उठने के साधन है, और हमारा यह ऊध्र्वगामी विकास तब तक चलेगा जब तक हम अपने - आपको अमर आत्मा के रूप में न जान लें ; पर इससे अर्जुन को दिये गये कर्म के आदेश और कुरूक्षेत्र के हत्याकाण्ड को कैसे न्यायसंगत ठहराया जा सकता है?
इसका उत्तर यह है कि अर्जुन को जिस मार्ग पर चलना है उस मार्ग में उसके लिये यह कर्म करना आवश्याक है ; यह कर्म उसके सामने , अपने स्वधर्म का , अर्थात् सामाजिक कर्तव्य, जीवन धर्म और अपनी सत्ता के धर्म का पालन करते हुए अपरिहार्य रूप से आ पडा है । यह जगत्, भौतिक जगत् में आत्मा का यह प्राकटय, केवल जीवन के आंतरिक विकास का चक्र नहीं है , बल्कि एक क्षेत्र है जिसमें जीवन की बाह्म अवस्थाओं को उस आंतरिक विकास - साधन के लिये परिस्थिति और प्रसंग के रूप में ग्रहण करना होता है। यह जगत् परस्पर - सहाय और संघर्ष का क्षेत्र है ; यह हमें किसी ऐसी प्रगति का अवसर नहीं देता कि हम अपने अनायास प्राप्त सुखों को भोगते हुए शांति और चैन के साथ आगे बढते चले जायें , बल्कि यहां एक - एक पैड़ी वीरोचित प्रयास से और परस्पर - विरोधी शक्त्यिों के शीर्ष से होकर ही चढ़नी होती है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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